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Full text of "Mandukyopanishad  "

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हि 
जन कप लि: का 
जप वुइब 


ज्आ्क्च्छ के मत 


प्रकाशवकक्‍ः: 

उरतणलड परमशथामत 
सप्त सगेवार, हरिद्वार (उत्तर प्रदेश) 
पिनः 24940 

दुस्भाप - 033-426305 


संकलन 
जारतली धवन 


सम्पादन एवं प्रस्तुतीकरण 
छा० सारायण प्रसाद 


(७ प्रकराशकाधीन सर्वाधिकार सुनब्तित 
प्रथम संस्करण - १५९९ 
प्रेतियाँ : 3000 


००६ हि निललम दर 


लेजर लाइप सैटिन्गनः 
सुद्देश अग्रवाल, दिल्‍ली दृस्भाप:5477362 


अजन्ता ऑफसट प्रिन्टर्स 

-१/९८ , गली नं. २, इन्डस्टीयल एरिया 
, विश्वास नगर, दिल्‍ली-3२ 

फोन : २२०५० २९ 


विषयालुक्रमणिका 


अध्याय विषय 


प्राक्कथन 


१.१ नाम और नामी की अवधारणा 
२.२ परमात्मा के नाम तथा गुण 


१.३ ऊ परमात्मा का पूर्ण एवं उचित नाम अर 


१.९ एरमात्मा से जनित सृष्टि परमात्मा होते 
हुए भी परमात्मा से विलक्षण .ही.>होगी 


१.५ ऊ की तीन मात्रायें एवं अमात्र का ऑरिस्परिक- सम्बन्ध 2 ल्म्म्स्क्च्ह्डर 






पृष्ठ संख्या 


(3) -- (४४) 


2 


सान्छक्योपन्िषद्‌ : एक विहंगस दृष्ट्वुल कण 2९ 


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(६ छिछ७ -++« 


१.६ हमारा जीवन ही ऊ है. अप हर 
हल “०, रद १/रर च्छ ध्र फश्त्फा 
आत्मा के तीन पार्दि « 6 +.. ट+, : 2 
२१ दार्शनिक पृष्ठभूमि 030 ८ 
२.९. माण्डक्योपनिपद्‌ का शाब्दिक अर्थ तलब -- (८८००० ४६० 
२.३ माण्डक्योपनिपद्‌ की महिमा 285 
२-९ $ ही सव कछ है १७ 
२-४ सब कछ ऊ ही है - केसे? बट 
२-६ आत्मा का प्रथम पाद - विश्व (वहिप्पज्ञ) पर 
२-७ आत्मा का दितीय पाद - तेजस (अन्तश्नज्ञ) २5 
शा श्त्मा का ततीय पाद - प्राज्ञ (प्रज्ञानयन) 3६ 
आत्मा का चतर्थ पाद-। 5३ 
३-१ शात्मा के तीन पाद - ज़ाग्रत, स्वप्न एवं 3३ 


चषप्ति का पनगवलोकन 
तंतीय दाद का मांहमा - फ्राज्ञ को सवक्ास्जलत् 
आत्मा के चद्थ एाृद का विस्लएज 


७. हब) 
६») १.१ 


स्व 


थी हुआ 
श््प् 


4 


बट 


भग्निल को समझने मं बिन्‍्तन की प्रक्रिया 


दृद्मक्मानिं का दण्यार एबं अदेत्वाद एवं शिवो5हम। 


आत्मा का चतर्थ पाठ-]| 


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९.८ 
९.५ 

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तेगीय को जानने की आवश्यकता 

अर्थ पाद की महिमा 

साणि एवं समाधि में इंदर 

चतर्थ पाद मे प्रतीष्टि के लक्षण 

सतत वोधाव्णा का नाम सम्राधि है 

ज्ञान प्रमाधि 

जगत की आ्तीति एवं मो 

भागशाली कौन? 

ज़ाग्त में ही आत्मा को समझना है 

जगत के मिल्लात्व को झ्रमन्ने ये खा की उपयोगिता 


चतुर्थी पाद को समझने की प्रक्रिया 


8. 
१५ 
५.३ 
१९ 
१.५ 
५.६ 


तुरीय 
६.३ 


५२ 


गनियद का प्योज़न 

चतुर्थ पाद को समझने में तीन परादों की उपयोगिता 
आत्मा को समझने की ताकिक विधि 

ग़नियदों में प्रयृक्त नींद एवं खप्म का उर्ध 
समाधि एवं ज़गत का मिध्याल 

शत्मा उदुष्ट, अब्यवहार्थ एवं अकर्ता है 


की महिसा 

आत्मवोध के वाद बक्ति समय 
चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है 
आत्मबोध प्राप्त ्यक्ति अत, अनिद्र एवं 
खरहित अनुभव करता है 


४५ 


८३ 


८३ 


ऐ 


आत्मा और उसके पादों के साथ ऑक्रार ८८ 
अउीर उसकी माजाओं की एकता 


७-१ अकार और विश्व की एकता ु दे 
७-२. उकार और तैजस की एकता ९() 
७-३ मकार और प्राज्ञ की एकता ९, 
७.४ भमात्र और आत्मा की एकता ९ 
७-४५. विश्वास एवं भ्ध्यात्म ९९ 
स्यान्ड॒क्योपनिषद्‌ एवं इसके स्िछितार्थ ९९ 
८.१ मंगलाचरण हे 
८.२ यज्ञमय जीवन १0१ 
८.३. उपनिपद विद्या निम्नस्तरीय सत्य (जगत एवं अवस्थात्रय) को 

स्व्रीकारते हुए उच्चतम सत्यःक्री. ओर ले जाती है १0६ 
८.४. गरु कौन? फल) हे १0८ 
८-४ आत्मा के तीन पादक्षत सार्वभीमिक, ह्प्त्जू 

धर्म के व्प में सन्पूकू रे रा. उन्द्रिर कर) #/ कक, 
८.६. जीवन के कल्याण हत॑ संस्कृति कामहल्ू ० १0 


प्र कब हार अबक 
4 कसा 





प्राक्कथन 


उपनिपद्‌ थध्यात्म अर्थात ब्रह्मविद्या के मूत्र श्रोत हैं। समस्त वेदों अर्थात समस्त 
ज्ञान का चस्मसत्य उपनिपदों में अभिव्यकतत हुआ है। वेद का अन्तिम भाग होने से इसे 
वेदान्त भी कहा जाता है। उपनिषद्‌ सम्पूर्ण मानव जाति के लिये सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ हैं। विभिन्‍न 
सम्प्रदाबों के लोग - शैव, वेण्यव, शाक्त - सभी उपनिषदों की प्रामाणिकता को स्वीकार 
करते हैं। भगवान कृष्ण के मुख से निकली गीता भी उपनिपदों का ही दुग्धामृत है- 
स्वॉपिनिषदो गावो दोन्‍धा गोपालनन्दनः । 
पार्थों वल्सः स्ुधीभोक्‍ता उम्धं हक लं सहलत।॥। 

उपनिपद्‌ में वर्णित ब्रह्मविद्या ऋषि चेतना-लब्ध (मन की अधीनता से मुक्त सम्बक्‌- 
प्रवुद्व मानव चेतना) तत्त्वानुभृति पर आधारित है। यह कोई कल्पना न होकर जीवन का परम 
सत्य है। आधुनिक विज्ञान के नवीनतम अनुसन्धानों में यह प्रमाणित हुआ है कि अध्यात्म 
विद्या एक समग्र विज्ञान है। क्वांटम सिद्धांत के निष्कर्ष उपनिषदों में वर्णित सत्य की ही पुष्टि 
करते हैं। 
उपनिपदों में प्रतिपादित सिद्धांतों की परम सत्यता एवं सार्वभीमिकता से अनेक 
पाण्चात्य विद्वान प्रभावित हुए। -दाराशिकोह ने उपनिषदों का फारसी में अन॒वाद कराया। 
जर्मनी के प्रसिद्र विद्वान शोपेनहर ने उपनिषदों की प्रशंसा करते हुए लिखा है - 

“सम्पूर्ण विश्व में उपनिषदों के समान जीवन को ऊँचा उठाने वाला कोई दूसरा 
अध्ययन का विषय नहीं है। उनसे मेरे जीवन को शान्ति मिली है। उन्हीं से मझे मृत्य में भी 
शान्ति मिलेगी।” उपनिपदों में वर्णित सिद्धांतों का उल्लेख करते हुए उन्होंने आगे कहा है , 

“ये सिद्धांत ऐसे है ज्ञों एक प्रकार से अपौर्षेव ही हैं। ये जिनके मस्तिष्क की 
उपज हैं, उन्हें निरे मनुष्य कहना कठिन है।?”” 

.. उपनियदों की महिमा पर मुस्ध होने वाले कृछ अन्य महत्वपूर्ण विद्वानों के कथन इस प्रकार 
है 5 


. "पा पएार एशश0त९ छएणव, पठार 5॥0 छापत,+ 50 रढॉट्एववापरए 35 धारा णी (7फऊ॒गांगा905, 
[95 फैथशा पीर 508०८ ठी गाए डटि. | या छट गीट 56406 ता तंट्वा.7 

2, "७ 7905 उफ््लशाप्रगाया ०णाएथव्यीणा5 "्यी052 ठांश्ाशधाठाड एथा ग्वातीज फल उच्चाते 
[0 986 ग९॥6€ पराछा. 


(48) (/८८३22॥ 


“पपनिषद्दों के भीतर जो दार्शनिक कत्यना है, वह भारत में तो अदितीय है ही, सम्भवतः 
सम्पूर्ण विश्व में अतुलनीय है।”” 

“ग्रामवीव चिन्तना के इतिहास में पहले पहल वृहद्वाग्यक उपनिषद्‌ में ही ब्रह्म अथवा पूर्ण 
तत्त्व को ग्रहण करके उसकी वधार्थ व्यन्जना हुई है।” “ 

“अर हम पूर्व की और उनमें भी शिरेमणिसवस्पा भारतीय साहित्विक एवं दार्शनिक महान 
कतियों का अवलोकन करते है, तत्र हमें ऐसे अनेक गम्भीर सत्वों क पता चल्नता है जिनकी 
उन निष्कर्षों से तुलना करने पट, जहाँ गहुँचकर बरोधीय प्रतिभा झके गयी है, हमें पूर्व के 
तत्तज्ञान के आगे घुटना टेक देना पड़ता है।”” 

“धर्वी आदर्शवाद के प्रचुर प्रकाशए॒न्ज की तुलना में वूगेशनासियों का उच्चतम तल्वज्ञान ऐसा ही 
लगता है, जैसे मध्यान्ह सूर्य के ब्योमब्यापी प्रताप की पूर्ण प्रखस्ता में टिमिटिमाती हुई 
अनलणिखा की कोई श्रदि किरण, जिसकी अत्थिर और निस्तेज् ज्योति एसी हो रही हो मानो 
अब व॒ज्ची कि तव।!” 

उपनिएदों की उपरोक्त महिमा को सुनकर हम गौरवान्वित अनुमद तो कर सकते हैं 

परन्तु उपनिपद्‌ प्रतिषादित परमसत्यानुभृति के बिना हमारे जीवन में कृतकृत्यता, कृतार्धवा तथा 





3. ना॥050फमव्णश॑ ०ण१ए९७॥0०७छ प्राए्दएबीएरते ॥ फरता3, छा 9995 उ%०णीशा९ 
८5९ 7 धर छाए! 
+ सिक्स 25४0४ क 7॥/080777 रा (/शाडा|क्रत॑ध5 
4. "छाजरप्ाछएत) ता #09$णएॉपाट १5 छाए95एएप जाते ऐंटपिफाटोए एचजणाएफ5९ए0 णि भाट शशि 
चर. धार एंडाणएए णा वैघाशा पछफ्शीाड गा भार अिीवधाताएगादत 
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बॉल था! धा08९ एछ गरता9, छए पाइएएसए घीटाए व्ाथा9 पडा 30 एलाणियट0 
भाव ्याएी ग्रावच्ट आए 3 ए0ग्रावड एणय गीए कटडणओी वा वाली विए सिक्षफुएशा 
हुएगर5 ॥985 507एवग९5५ 500700 ऐक्ध एट द्वाएट ८जातागगाएएं [0 फ़ैलाएे गए ]2९ 
8000 6 एग0४09॥9 0 6 ८४५।. 
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इफ्था: 7 पाए प्रा ग00व ठीवकटवच्यररोज छीोताए छी पाए तठणाकेाए उप्ता - विलय? 
शांत ९९७९ ज्ञात एशश 7९309 0 96 स्थतग्रएपांगाल्ते," 


शॉप 3 द्वाएचॉरए 


प्राकिफे: है जश्न 4 /7ा । 


परमशान्ति नहीं आ सकती। इसलिये यहाँ मूलभूत प्रश्न पैदा होता है कि हम परमसत्य 
अर्थात आत्मवोध अथवा तत्त्ववोध कैसे प्राप्त करें जिससे उपनिषद् अथवा गीता की अमृतवाणी 
हमारे अनुभव से प्रमाणित हो? इसके लिए तीव्र वैशग्य एवं प्रवल जिज्ञासा के साथ ही थ्रोत्रिय 
व्रह्मनिष्ठ सदगुर की शरण परमावश्यक है। 

तद्िज्ञानार्थ स॒ गसुस्मेवाश्निगच्छेत समित्पाणिः श्रोत्रियं 
तबह्यनसिष्ठ्म्‌ | (सुण्डक० ३४/०२/१२१२) 
तदिद्धि प्रणिपातेल परिप्रश्लेन सेवया। 

उपदेधक्ष्यन्ति ते ज्ञान ज्ञानिनस्तत्त्वदरशिनिः ॥ 


.. (अश्रीसद्रगीला ४/3४) 

पूज्य गुरदेव के मुखारिविन्द से उपनिषद की अमृतवाणी विभिन्‍न सम्मेलनों एवं 
शिविरों में पूरे वर्ष अविर्ल सर्प से प्रवाहित होती रहती है। शास्त्रों में कहा गया है कि गुरु 
शिष्य की पात्रता को विचार कर तत्त्वज्ञान का उपदेश करें। परन्तु गुरुदेव की कितनी अपार 
करुणा है कि हमारी पात्रता का बिना विचार किये ही शास्त्रों के रहस्य को और इतनी डँची 
विद्या को छोटे बच्चों की तरह पढ़ाते हैं। 

गतवर्ष २९ अक्टूबर से ४ नवम्बर १९९८ के दौरान हरिद्वार में आयोजित विशेष 
ध्यान-साधना शिविर में प्रतिदिन एक सत्र में पूज्य महाराज श्री द्वार मान्डुक्योपनिषद्‌ पर चर्चा 
की गई। इन सात प्रवचनों को लिपिवद् करके प्रस्तुत पस्तक में प्रस्तुत किया गया है। 
गुरुदेव के तात्तिक प्रवचनों को भाषा के रप में ज्यों के त्यों व्यक्त करना अत्यधिक कठिन है 
क्योंकि उस परम सत्य का वर्णन करने में भाषा अधूरी लगती है। पृज़्य गुरुदेव अपने प्रवचनों 
में बद्धिजीवियों की तह कोई शास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत नहीं करते अपितु साधकों को 
व्यवहारिक जीवन के उदाहरणों के माध्यम से सरल से सरल आम भाण में परम सत्य को 
जनाने का प्रयास करते हैं। उनकी इसी भावना के अनुस्प हमाग यहाँ प्रयास रहा है कि 
विषय को क्रमबह स्प से प्रस्तुत किया जाय तथा भाषा एवं व्याकरण सम्बंधी अशुद्धियाँ कम से 
कमर रहें। उन बिन्दुओं को प्रमुखता दी गयी है जो विषय को समझाने में सहायक हैं। 

प्रस्तुत पुस्तक की विषय सामग्री को ८ भ्रध्यायों. में संकलित किया गया है। 
प्रथम अध्याय में भूमिका के स्प में मान्डक्योपनिपद का संक्षिप्त परिचय कराया गया है। दूसरे 
अध्याय में दार्शनिक पृष्ठभुमि की चर्चा करते हुए मान्डुक्योंपनिषद का शाह्दिक अर्थ 
तथा आत्मा के तीन पादों - विश्व, तेजस तथा प्राज्ञ पर प्रकाश डाला गया है। चुँकि 


8) बिकने 


मान्डक्योपनिपद का प्रयोजन श्रात्मा के चतर्थ पाद की जनाना ही है, अ्रतः तीसरे एवं चौथु 
ध्याय में चतर्थ पाद की विस्तार से ब्यास्या की गई है। पाँव अध्याय में चतर्थ पाद अधथाति 
तीय को झम्रश्नन की प्रक्रिया को विस्तार से बताया गया है। तहपगन्त छटवें अछाव में 
तगीेव की महिमा तथा सातवों उ्रध्याव में थात्मा शरीर उसके यादों की श्लोंकार एवं उसको 
मात्राओं के साथ एकता स्पष्ट की गई है। उप्रसंहार के र्प में श्रठव प्रध्याव मं मंगलाचग्ण 
के साथ ही मान्दक्योपतियद के कष्ठ निहित सम्देशों उसे यज्मय जीवन, सत्य थे पंस्मसत्य का 
विश्लेषण, सार्वभीमिक धर्म के र्प में समातन (हिन्द) धर्म श्रादि को समाहित किया गया है। 
कई स्थानों पर पुनगव॒त्ति भी हुई है परन्तु एसा साधकों को समझाने एवं विपय को झाप्ट करने 
के प्रयोजन से ही हआ है। प्रतः इसे पनरुक्ति दोष के रप में नहीं लिया जाना चाहिय। 
एस्म गस्देव की थाज्ञा खीकार कर मैंने यह कार्य प्राम्भ किया। प्रस्तत प्रस्तक के 
सम्यादन एवं प्रस्ततीकर्ण के दीगन मंगल उ्नभव हआ कि सचमच में में कितना भाखशाली हूँ 
कि पत्य गग्देव ने मग्ये इस कार्य को करने का सम्रवसर प्रदान किया। मेग पर्ण विश्वास है 
कि वैगग्यवान एवं ज़िज्रास साधक एवं भकतंगण इस पुस्तक को पुन के बाद अग्रभावित हुए 
बिना नहीं रू सकते। 
इस ग्वसर पर मैं ग्राध्वी पैतन्य सिन्धज्ी के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता वक्त 
कसा हूँ जो संस्था के प्रकाशन समन्धी क्रार्यों में विविध रणों में अपना अम्ृल्य सहयोग प्रदान 
कंस्ती हैं। कैसेट्स में स्कार्डिंड प्रचनों को लिप्रिह करना अत्यधिक कठिन कार्य है। कृमारी 
भ्राग्ती धवन के सहयोग से यह कार्य सायन्न हआा। प्रकाशन विभाग उनका आधारी है। 


पुस्तक के प्रकाशन में भरी चमनलाल जी अपना सहयोग देते रहे हैं। उनके प्रति मैं धन्यवाद 
व्यक्त करा हूँ। 


डछा० नारायण प्रसाद 
ह्ल्ली 


१४/१॥/१९९०९ 





अवधूत; .परमछस, बालवब्रत्मचारा, तपापृत; सत्य का प्रतिमूर्ति; विरक्‍्तः ब्रह्मलीन- 
अनन्त श्री: विभूषित" स्वामी: अखण्डानन्दः जी: महाराजः जिनके: सानिध्यः एवं 
स्रक्षण: में! युगपुरुषः स्वामी: परमानन्दः जीः महाराज: नेः तत्त्वानुभूति चानुभूतिः प्राप्त: की । 








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एव प्रेम; की! प्रतिमूर्ति:  पूजयर गुरुदेव: के; शिष्य: स्वामी 


परम-जी:महाराज! जिनके: सीजज्यः सेः प्रस्तुत पुस्तकः प्रकाशितः हुई।। 


दु 
सान्डुक्योपनिषद्‌ : एक विहंगम दृष्टि 


2.१३ सास और सामी की अवधारणा 
किसी व्यक्ति या वस्तु की जानकारी एवं परिचय के लिए उसके नाम की आवश्यकता 

पड़ती हैं। अर्थाति नाम उसी को कहते हैं जिससे श्रमुक वस्त अथवा व्यक्ति का ज्ञान हो। 

व्यवहारिक जगत में नाम कई आधार पर रखे जाते हैं 

0). वस्तु के खस्प के श्धार पर :- जैसे दो पहिये वाले वाहन को टू-ब्हीलर, तीन 
एहिये वाले वाहन को ध्री-व्हीलर बोलते हैं। 

(४). गुण विशेष के आधार फू :- कई वार व्यक्तियों के गुण विशेष के आधार पर उनका 
माम रख दिया जाता है। जैसे भगवान बढ़ का नाम उनके स्वभाव/निप्ठा के अनुस्प 
है 
कछ नाम ऐसे भी होते हैं जिनसे उनका अर्थ भी निकलता है। कई वार नाम प्यार 

में यँ ही रख दिया जाता है। उस नाम का उस व्यक्ति के गुण एवं प्रकृति से कोई संबंध नहीं 
होता। जैसे किसी लड़की का नाम यूँ ही शान्ति देवी रख दिया जाब। अब शान्ति उसका गुण 
खभाव नहीं है, पर नाम रख दिया। कहने का आशय है कि लौकिक जगत में नाम से 
व्यक्ति के स्वभाव का ठीक से परिचय हो - ऐसा आवश्यक नहीं है। फिर भी नाम होने पर 
लोग उसी नाम से पुकारते हैं। उसी प्रकार किसी ने अपने घर का नाम शान्तिनिकंतन रख 
दिया हो परन्‍त घर में ढदख ही दुख रहता हो तो क्या करेगा? फिर भी घर को शान्ति भवन के 
नाम से पकारा जायेगा। नाम रखने का हेत उस व्यक्ति का पर्चिय करना होता है। जिसका 
नाम रखा जाता है वह नामी होता है और जिस शब्द (संज्ञा) से व्यक्ति विशेष का परिचय 
हाता है वह नाम कहलाता है। 


2.० परमसात्मा के नाम सथा गुण 


मिन्‍न-मिन्‍न अवतार होने से भगवान के बहुत से नाम हुए। यद्यपि इन नामों को 
हम तर्क एवं व्याकग्ण से सिद्ठ भी कर लेते हैं, परन्तु उन नार्मा से पस्मात्मा के सब गुण प्रकट 


मान्डक्योर्यनिपद 
नहीं होते। उठाहन्ण के लिए 'संच्चिदानन्द' भगवान का बहुत अ्रच्छा नाम है। इससे यह 
पता चलता है कि भगवान कैसे हैं? सन चित तथा पआनन्द। सबच्चिदानन्द' से ब्रह्म के 
ग़तिर्क्ति थन्य भ्र्थ नहीं निकलेगा 
नाम के दो पन्ष - एन्मात्मा के कुछ नाम स्वव्य वाची होते हुए व्यक्ति वाची भी हैं। 
जैसे - गम। गम व्यक्ति के साथ भी जुड़ा है और सम ब्रह्म के लिए भी है। परन्तु हम 
सामान्वतया जब गम कहते हैं तो प्रचलित भ्र्थ में उसका संकेत दशन्थ पुत्र गम की तस्फ 
ही जाता है। “व्यापक ब्रह्म सबके भन्तःकर्ण में हैं! - ऐसा स्थाल में नहीं आता! ब्रह्म के 
व्यापक होने से वे गम में भी थे। इसीलिए 'गम' शब्द के उच्चाण्ण में व्रह्मता भी है और 
व्यक्ति भी हैं। वैसे तो सभी व्यक्ति व्यक्त भी हैं श्रीर उनमें ब्रह्म भी है, फ़िर हम सबके 
नामों को ब्रह्म क्यों नहीं मानते? इस तर्क के आधार पर कि गम की तरह आप भी व्यक्ति 
एवं ब्रह्म दोनों ही हैं, श्रापक्रे नाम का जप सर्वत्र क्यों नहीं किया जाता? इसलिए कि आप 
सब इस बात से अनमभिन्ञ हैं कि 'ग्राप ब्रह्म हैं।”। ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति आपको 
व्ृह्म समझकर भ्रापक पास था भी जाय तो उसे केसे संतुष्ट कंगन? ऐसे सन्त, महात्मा तथा 
गुद् जो व्यक्ति होते हुए भी जिनको ब्रह्मता प्राप्त थी, वे ब्रह्म व्प ही थे। अत वे भी ब्रह्म 
नाम से विख्यात हो गये। इसी भ्र्थ में गुद को कहा गया: 
गुरुबहया गुरुविण्णुः गुरुदेवो महेछवरः। 
गुरझ्खक्षित॒ पन्ब्रह्म तस्मे श्री गरवे समसः।। 
(गुर ब्रह्मा हैं, गुर विश्णु हैं, गुझ शिव हैं। गुरु साक्षात ब्रह्म हैं, ऐसे गुर को मैं नमस्कार 
कर्ता हैँ।) 


२.3 ऊं परमसात्मा का पूर्ण एवं उचिल सामस 


ब्रह्म था एग्मात्मा का उचित नाम क्या है? संत्यनागवण के नाम में केवल 'सत्य 
गुण ही प्रतिविम्बित होता है। परन्तु सच्चिदानन्द' में सब कुछ झा जाता है। पग्मात्मा का 
ऊ नाम वेदों में है। इसलिए हर मन्त्र से पहले हम # लगाते हैं। बंद मंत्र, गावत्री मन्त्र, 
नागयण मन्त्र, शिव मन्त्र - सभी के नाम से पहले # लगाते हैं। हम लोगों का यह विश्वास 
है कि # लगाये बिना कोई मन्त्र पृग नहीं होता। असल में # में तीन अक्षर होते हैं - थ्, 
3, म। इन्हें मात्रा बोलते हैं। इन तीन अक्ष्ें के मिलने से $ वन जाता है। एस्न्‍्त मिल्रा 


मान्डक्योपनियद्‌ - एक विहंगम दृष्टि ३ 


देने से हमें समझ नहीं आता। जैसे कटी हुई मिश्रित ठढवा। कटी हई दवा के मिप्रण से पहले 
यह जानकारी रहती है कि श्रमुक पत्ती है, अमृक चीज़ है। पर जब दवा कटकर तथा पीसकर 
छान दी जाती है तो फिर क्या-क्या है? - वह पता नहीं लगता। इसी प्रकार $ भी आम 
लोगों को स्पष्ट नहीं होता। किसी भनजान व्यक्ति को बह पृछ्ठने पर कि '$ में कितने अक्षर 
होते हैं! कहेंगा कि $ एक अक्षर है। पर यथार्थ में उसमें तीन पनक्षर हैं - ञ, उ तथा मे। 
: ग्रदि आप व्याकरण नहीं भी जानते हो तो इतना तो समझ ही सकते हों कि गण संन्धि के 
निवमानसार अर + उ मिलकर ओ हो जाता है। जैसे गंगा+उदक के मिल्राने से गंगोदक हो 
जाता है। तो # के अ + उ मिलकर ओ और म्‌ आधा होने से कं बना। इस प्रकार ऊँ 
में अ, 3 तथा म्‌ तीन अक्षर सीधे हैं। अब प्रश्न उठेया कि इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त ऊ 
में चीथा क्या है? क्या व्याकरण वाला यह बता सकता है कि इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त 
चौथा क्‍या है अथवा कहाँ है? यह बात ऐसे ही है जैसे हम पूछें कि प्रयाग में गंगा तथा यमुना 
सबको मिलीं पर सरस्वती किसी को नहीं मिल्री। यदि हमें जनता को अध्यात्म की ओर ले 
जाना है तो समझाने के लिए सरखती को स्वीकार्ना ही होगा। इसी प्रकार उपनिषद में अर, 

तथा म्‌ तीन मात्राओं के साथ एक अमात्र भी है। कोई-कोई इसे अर्धमात्र भी कहते हैं। 
पर उपनिषद्‌ में अर्धमात्र कोई शब्द नहीं है अतः यह अम्ात्र ही है। मात्रा हैं आ, उ तथा मं 
और कमात्र है #। ॥ 

3 भी दो तरह का है - एक मात्रा वाला तथा दुसग बिना मात्रा घाला। जैसे 
नदियाँ भी दो तरह की हैं - दिखने वाली - (गंगा और यमुना) और न दिखने वाली - 
(सरस्वती)। अब प्रश्न उठेगा कि आत्मा या ब्रह्म का नाम ऊ क्‍यों रखा गया? क्योंकि ब्रह्म 
के भी तीन पाद नजर शआते हैं - विश्व (जाग्रत), तेजस (स्वप्न) तथा प्राज्ञ (सुपृष्ति)) इन 
तीनों अवर|ओं के भ्रतिरिक्‍त ब्रह्म किसी को नहीं मिला। यदि ज़ाग्रत की तरह सहज ही ब्रह्म 
कहीं मित्र गया होता तो फिर ब्रह्म या आत्मा की खोज के लिए गुझ की, बढ़ की, उपनिषद्‌ 
की आवश्यकता नहीं होती। 

अ, उ तथा म्‌ ये तीन मात्रायें प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति को समझ भआयेंगी। यदि इन 
मात्राओं को विना मिलाये अठम, अउम बोलें तो $ जैसा निकलने लगेगा। जैसे मरा 
मरा शब्द को तीव्र गति से बिना गैप छोड़े बोलने पर राम ग़म हो जाता है। इसी प्रकार 
शठम में गैप करने से $ वन गया जबकि अक्षर तीन ही हैं। एक को भी हटाया नहीं। तीनों 
अक्षरों के मिलाकर उच्चाग्ण करने पर भी सबसे पहले भ्र, इसके वाद उ तथा भअ्रन्त मेंम आ 


॥ मान्दक्योयनियंद 


ही जाता है। इस्ीलि! $ एग्मात्मा का ठीक नाम है। यदि सीध जीवन को देखें तो हमारी 
हिन्दगी गीर $ विल्कल एक ही है। 

यदि दो प्रस्तकों की लम्बाई चौड़ाई एक बगवर हो अर्थात एक ही आकार की हों 
भीर उन्हें एक्र दुसरे के उपर रख दिया जाब तो दोनों अलग-ग्रल्नग दिखाई नहीं दंगी। इसी 
कार यदि दो समवाह (जिसकी तीनों भज़ाएँ बगबर होती है) प्िभज्रों को एक दुलरे के उपर 
रख दिया जाये तो भी द्वोनों अल्नग-अलग दिखाई नहीं देंगे। वे द्वोनों एक ही त्िभन्न दिखेंगे। 
ठीक उसी प्रकार वि परमात्मा के # नाम को श्त्मा के साथ मिल्रा दिया जाये तो थे दोनों 
अलग-अलग नहीं ज़गेंगे। नाम ऐसा लगेगा कि यह मेगा ही नाम है। # नाम एवं हमाग 
खग्प विलकल एक दिखेगा। इसलिए # नाम पर्मात्मा का सबसे उपयुक्त नाम है। यह 
उनके स्वग्य से पुग मेल खाता है। दुनिया में इससे अधिक उपप॒क्त कोई दूसरा नाम नहीं है। 

एल्तु यहाँ प्रान उठ सकता है कि फिर प्रस्मात्मा को 'कझणा सागर, "जान 
ख्प', 'शक्तिमान' इत्यादि विविध नामों से क्यों पएकास्ते हैं? क्या सन्‍्तों का यह कथन 
कि भगवान के अनंत नाम हैं? - गल्नत है? नहीं। भगवान के एक-एक गृण के आधार पर 
अनेक नाम सख दिये गये। जिनको जिस-जिस गुण की आवश्यकता थी उन्होंने उत्ती आधार पर 
नाम रख ठिये। इसलिये परमात्मा का कोई भी नाम गल्लत नहीं हैं। 

जब सम्बन्ध बहत नजदीकी का एवं ज्गाह होता है तो हम नाम भी नहीं लेते। 
इसीलिए भक्तों ने परमात्मा का नाम ने लेकर किसी ने उन्हें अपनी माता, किसी ने अपना 
पिता, किसी ने भाई आदि कह दिया। उन्होंने उनका नाम लेकर पकारना उचित नहीं समझा। 
अत फर्मात्मा एक है। उन्हें किसी एक नाम से या बिना नाम के अपने शिले से भी पकार 
सकते हैं। 

इसी सांस्कृतिक पृष्ठभतृमि को ध्यान में रखते हुए व्यवहार में पत्र अपने माता पिता 
को, पत्नी अपने पति को नाम लेकर नहीं वलातीं। नाम तो दुससें के लिए होता है। अतः 
पलियों का अपने प्रति का नाम लेने की क्या आवश्यकता है? अब कई तथाकथित वदिशीरी 
व्यक्ति तक करेंगे कि ये बाबा लोग प्गनी छद्रवादिता एवं अन्धविश्वास की ही बात कस्ते हैं। 

व आप चाहे जो तक कर सक्रत हो, परन्तु इन सभी बातों के पीऐ ऋषियों एवं शास्त्रों सो क्री 

जो सोच है, जो हेतु है, मैंने वही बताया है। असल में आप इन झार्थी राजनेताओं से 
प्रभावित होते हो। संतों एवं उपनिषदों की वाणी का अनयर्ण नहीं करते। अन्यथा नाम लेने 
की क्या आवश्यकता? नीलोखेड़ी में एक ज़गह सत्यंग में सचना करते समय मेरी सारी बातें 


4० ५०४४६ ५ ८ हैं 
मान्डक्योपनियद - एक विहगम दृष्टि ध्‌ 


कहकर नाम नहीं लिया। यह कह दिया कि हम स्वामीज़ी का क्या नाम लबें? भाज़् भी 
सामने नाम लेना अच्छा नहीं लगता। फिर भी आजकल के सम्य लोग सब कुछ करने लगे हैं। 

संक्षेप में कहने का आशव यह है कि हम परमात्मा का नाम लिये बिना भी उन्हें 
एकार सकते हैं। पिता, माता, पति, स्वामी, मालिक, संखा, मित्र, आदि कहकर उन्हें 
पुकास जा सकता है। आपका परमात्मा से जो रिश्ता है आप वहीं कहकर पुकार सकते हो। 
परन्तु रिश्ता सच्चा होना चाहिए। तभी पुकार भी सच्ची होगी। ., 

अब मैं आपसे पूछता हैँ कि भगवान आपके क्या लगते हैं? कई कहेंगे कि “हमारे 
तो अभी कुछ भी नहीं लगते। अभी तो हमारा भगवान से कोई रिश्ता ही नहीं है।” 
“आपके क्‍या लगते हें?” “अभी न पिता लगते हैं, न पति लगते हैं न भाई लगते हैं और न 
हमारे धन लगते हैं।” यदि परमात्मा मेरे धन होते तो उनको पाकर मैं धनी हो ज़ाता। 
इसलिये वे आपके धन भी नहीं हैं। यदि वे पिता होते तो उनकी योद में बैठता खेलता। तब 
निष्कर्ष यह निकला कि परमात्मा से अभी तक हमारा कोई रिश्ता ही नहीं बना है। इसलिए 
उनके विभिन्‍न नामों में सन्देह पैदा होता है। अपने सम्प्रदाय वाले नाम को छोड़कर दूसरा 
नाम पसन्द नहीं आता। इसलिए नाम को लेकर झगड़ा करने लगते हो। अतः वेद को 
मानने वाले महर्षि दयानन्दज़ी ने भ्रम एवं झगड़ों को मिटाने के लिए परमात्मा के सौ नाम मान 
लिये। इसके अतिरिक्त भी अन्य धर्मों, सन्तों, एवं सनातनियों ने अनेक नाम स्वीकार कर 
लिये। जो भी सन्त हुआ उसने प्यार से अपने पिता का नाम रख लिया। उन्होनें (सनन्‍्तों की) 
यह परवाह नहीं की कि यह नाम वेद में है कि नहीं? प्रचलित है कि नहीं? उन्होंनें प्रेम से 
एस्मात्मा का नाम रखा और उसी नाम से पकारा। उसी नाम से याद किया। कई लोगों ने 
अपने शिते के आधार पर नाम रखा ७ ७क्‍७्उअऋ्ऋउ 

नाम लेने में भ्रद्दा अधिक महत्वपूर्ण है। कोई भी नाम प्यार से लेने में 
भगवान को बुरा नहीं लगता। 

कई लोगों ने प्यार के अतिरेक में भगवान कृण के “काला” “कलुआ” आदि नाप 
भी रख दिये! परन्तु भगवान को ये बुरे नहीं लगते। 

कई लोग मंच पर बड़ी सम्यता में मुझे 'युगपुरुष स्वामी परमानन्द' कह द्वेते हैं 
और मेरे पीछे मुझे गाली भी देते हैं। उनके 'युगएुरुप' कहने पर मुझे अपमान लगता है। 


हमारे गुरुदेव मुझे "ए पएरमा' कहकर वुलाते थे, तो मुझे बहुत अच्छा लगता था। 





+ 


६, म्रान्इक्यापनिएद 


प्रह्य से लिया गया नाम फर्मात्मा को भी बहते अ्र्छा लगता है। श्राप पमपर्वक 

एस्मात्मा का नाम ते। पर्मात्मा से कोई सरिता बनायें। ग्यनायन एम्मात्मा से होना चाहिय। 

वह सम कि एर्मात्मा मेंग गणना आया है। फममात्मा मेंग "मै है। सच तो यह है कि 
प्रेम” भी कहीं है शत्त मेंस भी “मैं” ही है। भगवान कण कहते हैं. 


ज्ञानी ल आत्मैेव में मनम। 
फ्मात्मा को ज्ञानी खद “मं” लगते हैं। वे जानियों को कहते है “थे तो में ही 
१)” भगवान कृणण ने अजञन से कहां 
वृष्णीनां वासुदेबोइस्मि पाण्डवानां धनज्जयः। 
मुनीनामप्यहं॑ व्यास: कवीनामुशना कविः।।॥0-37 
(वृण्णियों में बासुदव अर्थात मैं खयं वेग सखा, पास्इवों में धनजब अर्थात ते, 
मुनियों में वेहब्यास पर कवियों में शुक्राचार्य कंत्रि भी मैं ही हूँ। 
थति कण ने अ्र्जन से कहा कि अर्तन भी में ही हैं। प्रईन मेंगे विभति है, मेंस 
खर्प है। जबकि अर्ग़न ख् यह नहीं समझा कि में भगवान ही हूँ। जानियों को तो कह 
दिवा, “ज्ञानी तो याक्षात मेंग ही खग्प है। ब्रह्म ही हैं।” ज्ञानी भी कही ही मानते हैं कि 
ब्रह्म तो मेग अपना आपा ही है। इतनी नजदीकी है। मेर पिता हैं? - ये भी नजदीकी है। 
मेर भाई हैं! - ये भी नजदीकी है। 'मेरे पति हैं” - थे भी नजदीकी है। 'वे मेरे धन हैं 
उनके बिना में मफली की तग्ह तह़पता हूँ - यह बहुत बड़ी नजदीकी है। 
दिखने वाले धन के छिन जाने से हृदय फेल हो जाता है। धन से प्यार होना कोई 
बुरी वात नहीं है। पर 'छिन जाता है? - यही कमी है। यदि दिखने वाला स्थूल् धन 
नहीं छिनता होता तो यह मेग परम धन हो जाता। इसी प्रकार दिखने वाले पति एवं 
पतली का अभाव हो जाता है, इसलिये अपना बनाकर भी सेना पड़ता है। इसलिये परमात्मा 
को गपना पति मान लो। फरन्‍न भ्रव शंका पैदा हो सकती है कि दिखता तो है नहीं, केवल 
मान लेने से क्या होगा? दिखने वाले को देख पाने की अक्ल तो जानवर के पास भी है। 
ने दिखने वाले पति या पिता को जो देखे अर्थात खवीकारे, वही तो भक्त है। दिखने वाली 
नदियाँ तो मुर्स को भी दिखती हैं। न दिखने वाली नी में भी जो स्नान कर श्राये हैं, वही 
तो भक्त है, विश्वासी हैं। स्थृल्न दृष्टि से न दिखने वाले एस्मात्मा का विश्वास भक्ति का 


पान्डक्योर्पनपद एक विहंगम दृष्टि | 


लक्षण है। स्थल जगत के अस्तित्व को कोई अस्वीकार नहीं करता। व्यवहारिक जगत की 
सत्ता को नास्तिक भी इन्कार नहीं कर पा रहा। वे स्थूल दृष्टि से न दिखने वाले को ही 
इन्कार करते हैं। भ्रव मैं पृछना चाहँगा कि क्‍या इस न दिखने वाल के बिना अपने आप कोई 
खड़ा हआ है? क्या इस दिखाई देने वाले स्थल जगत की व्यवस्था किसी नियम एवं संचालन 
के बिना चल सकती है? डाक्टर, इंजीनियर, एवं वैज्ञानिक ज़ब इस सृष्टि को एवं पंचभूत 
निर्मित शरीर को देखते हैं तो यह स्वीकार करते हैं कि यह बिना किसी व्यवस्था के नहीं चल 
सकता। इस सृष्टि का निर्माण आकस्मिकता से नहीं हआ। 'इधर से कागज उड़ा,. उधर से 
उड़ा और कुछ अपने डिज़ाइन का बन गया? यह दुनिया इस प्रकार नहीं बनी। 


२.७४ परपमात्मा से जनित सृष्टि परमात्मा होते 
हुए भी परमात्मा से विलक्षण ही होगी 


ऊपर यह बताया गया कि ऊ पस्मात्मा का नाम है। इसमें अ,ठ तथा म्‌ तीन 
मात्रायें हैं। एक और भी है जिसे हम मात्रा नहीं कहते क्‍योंकि मात्रा तो केवल मात्रा की 
सहयोगी हो सकती है। अलग-अलम मात्राओं के गुण भिन्‍न होते हैं। अ को हम उ नहीं कह 
सकते तथा उ को » नहीं कह सकते क्योंकि उसके उच्चारण एवं लक्षण भिन्‍न हैं। इंस प्रकार 
तीन मात्राओं वाले $ को सब लोग जानते हैं। उसका परिचय देने में कोई बड़ी कठिनाई 
नहीं है। # में तीन मात्राओं के अतिरिक्त एक मात्र भी है। बिना अमात्रा के किसी 
मात्रा का जन्म नहीं हो सकता क्योंकि जो वस्तु नहीं है उसका आप उच्चारण नहीं कर 
सकते। कहने का आशय है कि जो अक्षर या मात्रा वर्णमाला में नहीं है उसका उच्चारण नहीं 
किया ज्ञा सकता। उदाहरणखस्प, यदि मैं कहूँ कि पाँच कर्मन्द्रियों तथा पाँच ज्ञानन्द्रियों के 
अतिरिक्त कोई एक नई इन्द्रिय बनाइये। तो आप बना पायेंगे? नहीं। तो जो चीज़ है, वही 
प्रकट हुई है। इसी प्रकार जो श्रमात्र ऊं॑ धा, वही प्रकट हुआ। असल में ऊ अमात्र था। ऊँ 
की काई मात्रा नहीं थी। परन्तु यदि # प्रकट होगा तो वह मात्रा बन ही जाएगा। उदाहन्ण 
के लिए आप यह जानते हैं कि मिट्टी आएन नहीं बनाई। परन्त मिट्टी से जा भी श्राप 
बनाओगे वह सदेव एक जैसा नहीं रह सक्रता। कई ताकिक लोग तर्क कस्ते हैं कि जो चीज़ 
ब्रह्म से पैदा हुई उसे ब्रह्म उसी ही होना चाहिये। अर्थात अविनाशी से जो हो, वह 
भी अविनाणी ही होना चाहिय। इस पर हम कहना चाहेंगे कि आप मिट्टी से जो बनाओ उसे 


| मान्इक्योपनियद 


पट्टी के सम तक रहना चाहिये क्योंकि वह मिट्टी से हशा है। इसी प्रकार सोने से निर्मित 
भ्राभषण सोने की तरह संदेव नहीं झता। इसी प्रकार मात्र से जो पैदा होगा वह मात्रा हो 
जाबेगा। जो विभु से पैदा होगा वह परगिछिन्न हो जावेगा। जो ग्रकालएख्य से पैदा होगा वह 
काल वाला हो उबेगा। इसलिए एग्माम्मा थे पैदा हुई ब्रष्टि प्मात्मा से विसद होगी। 
(परमात्मा अतिनाशी है जबकि सृष्टि होगी नाशी) ह-वह परमात्मा की तरह नहीं होगी फरम्तु 
होगी फमात्मा ही। क्योंकि और कृठ्ठ है ही नहीं। फर्तु जनसामान्य को वह (सृष्टि 
परमात्मा नहीं दिखेगी। उन्हें तो जो कृठ बना हुआ है, वह नाशवान ही दिखेगा। उ् मैं 
आपसे पृछता हूँ कि मिट्टी से निर्मित घडा रहने वाला है था न रहने वाला? ने हमे वाला! 
हम सतत शब्दों में कह सकते हैं कि रने वात्नी में (मिल्टी में) न हने वाला (पड़ा) दिखने 
लगा। फिर आप घड़े के टूटने के बाद कहेंगे कि ग्रव नहीं रहा। यदि आप ईमानदारी से 
देखों तो यह जानोंगे कि जो (घड़ा) है वह मिट्टी ही तो है। अ्रव घड़े का रहना और ने 
हना ये आपकी दृष्टि की ही तो वात है। ठीक इसी एकार $ प्रकट होने से 
अकोर, उक्कार, तथा मकार तीन मात्राओं वाला हो गया। असल में $ तो अमान ही है। # में कोई 
मात्रा थी ही नीं। प्रकट होने से ही उसमे अकार, उकार तथा मकर तीन माजों हो ग्ीं। 


९.४ ऊं की तीन माजत्रायें एवं अमात्र 
का पारस्परिक सम्बन्ध 


अब आप प््न करोगे कि ये तीनों मात़ायें प्रकट ही क्यों हुई? यदि ये मात्रायें प्रकट 
न होतीं तो अमान का पता ही ने चलता। कौन यह खीकार करता कि $ है। इसीलिये 
वह $ सृष्टि एवं ब्रह्म दोनों का परिचय कर देता है। ह 
शब्द से ही जात, खान, सपनि, विश्व, तेजस, प्रा, तुरीय 
अप्तात्र और ब्रह्म-साक्षी आदि का पता चलता है। 
यदि इन जाग्त, खप्म एवं सुप्रप्ति वनों का हटा दे थो क्यो ब्रह्म के विषय में का 
बता पाओगे उधवा समझ पाओगे? जिसमे ज्ञान बाहर की और है, जगह की ओर है वह है 
बहिग्रज्ञ अर्थति जाग्त। ज्ञान जिम्ममें शन्दर-अन्दर है वह अन्लग्रज्ञ (खान) है। जिसमें जान 
प्रनीभृत है, वह सुपष्ति है। प्री आय जब ब्रह्म की चर्चा सुनने बैठे है इन तीनों पदों 
जाग्रत, खान तथा सापष्ति) में वा बिना इन तीनों पादों के? इन तीनों पाद में, कार की 







मान्ड्क्योपनिएद्‌ : एक विहंगम दृष्टि | 


चार मात्रायें हैं। तीन मात्रा तथा एक अमात्र है। अकार, उकार, मकार तथा एक अमात्र। 
व्यक्तियों को अकार, उकार, तथा मकार तो द्विखता है परन्तु चौथा अमात्र बेकार लगता है। 
तीन हैं साकार और एक है निराकार। यह मात्र अर्थात्‌ निगकार लोगों को बेकार लगता है, 
जबकि अमात्र को समझना ही लक्ष्य होना चाहिये। 

संगीत के सातों खबरों “सारेग, रमम, गण, पधनि, धनिसा” के उच्चारण की तरह 
अ, उ, म के अलग-अलग बोलने पर भी इनमें एकता है और जब “$' एक चैतन्य 
अन्तःकरण में प्रकट हुआ तो एक () जाग्रत, दूसरा (3) स्वप्न तथा तीसरा (म) सुपरुप्ति बन 
गई। साक्षी न ज़ाग्रत है, न स्वप्न और न सुपुप्ति। इसलिए आत्मा के लक्षण एवं ऊ की 
मात्रायें एक हैं। ऊ के अमात्र के विषय में पूछने पर स्थूल तक ही समझ रखने वाले लोग 
(फिर चाहे वे डाक्टर, वकील, प्रोफेसर, बढ्धिज़ीवी, कोई भी हों) कहेंगे कि अमात्र तो मात्र 
वकवास है। परन्तु हम इस पर कहना चाहेंगे कि यदि अमात्र न हों तो $ बकवास है। 
अर्थात अकार, उकार एवं मकार तीनों ही बकवास हैं। सत्य तो यह है कि अकार, उकार एवं 
मकार के दिखने के कारण ही अमात्र का ख्याल आया। ऐसे ही जाग्रत, स्वप्न तथा सपृष्ति, 
विश्व, तैजस एवं प्राज्ञ के कारण ही आत्मा का पता चला। इनके कारण ही आत्मा को 
खोजने की जररत पड़ी। इनके अभाव (जाग्रत, स्वप्न तथा सुप्रष्ति के बिना) में आत्मा, ब्रह्म, 
अविनाशी, अकालएरुप को कौन दूँढता? यदि ये काल वाले (मानव शरीर) न होते तो 
अकाल का पता ही न चलता। और यदि अकाल (परमात्मा) नहीं होता तो काल वाले अर्थात 
विविध योनियों वाले जीव नहीं ज़न्मते। अकाल (परमात्मा) के कारण काल वाले (जीव) आये 
और काल वालों के कारण अकाल का पता चला। इनका बड़ा गहरा संबंध है। इसलिए इनमें 
से कोई भी व्यर्थ नहीं है। ये काल वाले (मनुष्य) अकाल को जानने के लिए बहुत जरशी हैं। 

ये आत्मा के तीन पाद (जाग्रत, स्वप्न एवं सुपुप्ति) ज़ग्री हैं। बिना इन तीन के 
चौथे का ज्ञान नहीं हो सकता। असल में चौथा ही सत्य है। तीन मात्रा के बिना जो $ है 
वही सच्चा ऊ है। परन्तु वह बोला नहीं जां सकता। बोले जाते ही तीन मात्रायें बनती हैं। 
इन तीन - जाग्रत, स्वप्न, सुप्रष्ति, विश्व, तेजस एवं प्राज्ञ के बिना उसका (आत्मा) पता नहीं 
चलेगा। दूसरे, उसके बिना ये तीन भी हो नहीं सकते। उसके कारण ये (जाग्रत, स्वप्न एवं 
सुपष्ति) हैं और इनके कारण उसकी (आत्मा की) महिमा बढ़ गई। ये उसकी महिमा हैं। 
इनके कारण उसका पता चलता है। परस्मात्मा ने अपना बोध कराने के लिए ही इन्हें प्रकट कर 


१] परालक्योपनियद 


रखा है। इसलिए यह जन्म ब्यर्ध नहीं है। पर्मात्मा को जानने के लिए देह का होना जर्गी 
है। 

मालइक्योपनिषद हमारे जीवन की कथा है। यह हमारे जीवन का सत्य है। $ वैसे 
तो भगवान का नाम है। फन्‍तु समझने पर पता चलेगा कि यह तो मेग ही नाम है। # के 
एक-एक अक्षर की हम तुलना करेंगे। जाग्रत ज़गत को जो प्रकाशित करता है उसका नाम 
विश्व है। जो खा्नों को प्रकाशित कसा है वह तैज़स और सुपुषप्ति का आध्वार है प्राज्न। 
विश्व का ही नाम बहिण्यज्न है! जिसका ज्ञान स्थल जगत की ओर विखग है, वहीं वहिफात् 
है। जो भीकर-भीतर इस झल्ल शगिर एवं वाह्य जगत को ने जाने तथा मेने के उन्दर एक 
दसतरी दनियाँ खड़ी करे शर उसको देखे उसे पन्तगप्रज कहते हैं। जब ने तो हंस बाह्य जगत 
को देखे और न स्तप्मों को ग्र्धाव दोनों दृश्यों को न ठेखे और भ्रज्ञानता में ल्लीन हो जाते तब 
इस भ्ज्ञान का जो शम्रव रहता है उसे प्राज्ञ बोलते हैं। 

भाषा में किसी भी व्यंजन को अ' के सहारे बोला जाता है अर्थात्‌ सम्पूर्ण शब्द 
जाल अ के सहारे ही प्रकट हुआ। उद्ी प्रकार सम्मूर्ण ज़ाग्रत जगत की तुलना '#' के अ! 
से की जाती है। इसलिए '$' का '्र' मर जाग्रत का नाम है। $ का 3 मेरे खनन का 
नाम है। # का म समझो कि मेरी स॒पुप्ति का नाम है। जैसे में में अ तथा 3 दोनों समा 
जाते हैं उसी प्रकार नींद में आपके जाग्रत एवं खान समा जाते हैं। जाग्रत जगत वाली आपकी 
शिक्षा एवं ज्ञान कितने ही महत्वपूर्ण हों परन्त नींद में सब विल्लय हो जाता है। इस तरह थे 
तीनों पादों का क्रम है। जैसे आ, 3 तथा मे का क्रम है उसी प्रकार जाग्रत, खान, सं्पष्ति 
विश्व, तेजस एवं प्राज्ञ का क्रम है। 

यदि हम आपके साथ ऊं को जोड़ें तो जाग्रत का नाम क्‍या होगा? 'अः। ख्न 
के तेजस का नाम? '3'। जहाँ सृष्टि का ज्ञान लग हो जाता है उस संपत्ति का नाम? 

म'। मे के उच्चारण में $ की मात्रा परी हो जाती है अर्धाति $ पगे हो जाता है। इस 
$ की फ्री अवस्था संप्ध्ति में लम हो जाती है। संपत्ति में थे स्व लव हो जाते हैं। 

इसलिए मेरे तीन पराढ (जाग्रत, ख्म एवं सध्ति) जो में? अनमव्र में आये हैं विलकत् $ से 
प्रत्त खात हैं। 


मान्डक्योपनिदद * एक विहंगम दुष्टि ११ 


२.६ छहम्मारा जीवन ही ऊ डछे 


जिस प्रकार $ के उच्चारण की हम पुनरावृत्ति करते रहते हैं उसी प्रकार जाग्रत, 
स्व्न एवं सुप॒प्ति की पुनरावृत्ति होती रहती है। जाग्रत, उसके बाद स्वप्न और फिर 
सुपप्ति। जाग्रत, फिर खप्न, फिर सुपरप्तित। 'ञआ, उ, म!। इस प्रकार पुरे 24 घन्टे में 
जाग्रत, स्वप्न एवं सुपुप्ति के जप में $ का जाप चलता रहता है। इस आधार पर आपका 
जीवन ही $ है। सृष्टि ही $ है। इसलिए मैं अब पृछता हूँ कि इस ऊ को ढूँदने आप कहाँ 
जाते हो? परन्तु इस ऊ के जाप में ज्ञानी, साधकों एवं संन्यासियों का ही अधिकार है। 
इसमें नासमझों का नहीं है। इसीलिए भगवान शंकराचार्य ने कहा कि जो दुनिया में विरक्‍त 
हैं, ऐसे संन्यासियों को 5 जपना चाहिये। 

कुछ ने कहा ऊँ को ज़पने का केवल ब्राह्मणों का अधिकार होना चाहिये। कुछ ने 
कहा कि स्त्रियों को ऊं॑ नहीं जपना चाहिये। परन्तु भगवान ने कहा - अमुक-अमुक को जप 
लेना चाहिये। परन्तु हम कहते हैं कि जो हिम्मत जुटाये उन सबका अधिकार है। अब यदि 
तुम्हीं हिम्मत न जुटाओं तो हम क्‍या कर सकते हैं? 

इस # मंत्र की उपासना करने वाला व्यक्ति मुक्त हो जाता है। उसके लिए कुछ 
कर्त्त्य शेष नहीं रहता। एक-एक अक्षर के महत्व को समझकर उपासना करने पर हम यह 
समझ सकते हैं कि सम्पूर्ण जाग्रत ज़गत हमारी एक चेतना के अन्दर है। सारा स्वप्न तेजस के 
अन्दर है और सुपृप्ति में ये (दोनों) सब लय हो जाते हैं। आप इन तीनों मात्राओं से ऊपर 
अमात्र भी हो। तुम इनके सहित भी हो, और इनसे रहेत भी हो। ये बारी-बारी से खोते 
रहते हैं। पर हम खोते नहीं हैं। हम तो आत्मा हैं। खोते (धे) तो वे हैं जिन्हें सिर्फ खोने 
(जाग्रत, स्वप्न एवं सुपुप्ति के जाने का) का ही पता है। अर्थात्‌ जाग्रत, स्वप्न एवं सुपुष्ति के 
खोने का जिन्हें डर है वही तो खोते हैं। इसलिये जानकार ने कहा, “हम खोते नहीं हैं हमारा 
स्वप्न खोता है। हमारी सुप्र॒प्ति खोती है। हमारा जाग्रत खोता है। ये ही खोते हैं।”” विश्व 
नहीं रहता, तेजस नहीं रहता, प्राज्ञ नहीं रहता। इनका न रहना हमने जाना है। इनके 
आने एवं जाने से हम आते-जाते नहीं हैं। परन्तु अज्ञानवश हम इन तीनों पाढों के आने-जाने 
को ही समझ पा रहे हैं। 

हमारी आत्मा इनसे उपर है। ये (जाग्रत, स्वप्न एवं सुषप्ति) निम्न हैं। ये 
प्रतीत होते हैं परन्तु हैं बहुत जररी। उतने ही जब्री जितना कि वाणी से ऊँ का 


2) लीडव3५१५५ 


खच्चाग्ण ज़णी है। विश्व, तेजस, प्राज्ञ के बिना आत्मा अद्यास्येय थी। इनके विना 
वह (गत्मा) अनिर्शेश्य तथा बिना लक्षण वाला था। इनके बिना आत्मा की कोई 
चर्चा नहीं की शा सकती थी। ऐसा समग्ो कि ज़ाग्त, खान एवं सुपप्ति आत्मा की 
व्याख्या हैं। इनके बिना ग्ात्मा का पता नहीं चल्र सकता था। 
में ह्ाहण दाग पनः स्पष्ट कना चाहुगा। बिना ढर्ण! के ग्रायकों अपनी भक्ृतियों 
पं मेंह का पता महीं च्नता। गत्र मान लो भीणे में आपने गया मुँह देखा। गे अन्चेरा 
होने पर मैंने उम्थेर देखा और मंह का अभाव हो गया। हम सह में जो दिखने में आता है 
ज्सी की देखते हैं। हमें वह ज्ञान धीरे-धीरे होना चाहिये कि “मैं कोन हूँ।” इसलिये कबीर 
साहित ने यह गीत लिखा है - 
“सतगुर ने अलख लखाया है।” 
वे तो लख है जो लेख रहा है। हमने जाग्रत लेख लिया, खन लख लिया, सुपर 
लख ली। हम आये, हम गये - थे तो सब लखते हैं। जो इनसे परे शूह खग्प है वह लखने 
में नहीं आ रहा है, उसी को लखना है। गुठ् का काम उ्ी को लखाना है। ये स्थूल् जीव 
एवं दृश्य वो आपको खुद ही दिख रहे हैं। इसलिए इस आत्मा के अनुसस्धान के लिये ही यह 
सत्यंग है। 
वे लोग सबमच में भागशात्री हैं जिन्हें मान्इक्योपनियद सनने एवं चिन्तन करने का 
अवसर मिलता है। इस उपनिद्र में ।2 मूत्र मच हैं। इन ॥2 मस्रों की खाया में अन्य 
ऋषियों ने विशेषय्प से भ्री गौड़गादाचार्यजी ने कुछ कारिकायें लिखी हैं। आगे के अध्यायों में 
हम एक-एक करके इन सभी मन्चों की व्याझ्ष्या एवं चिन्तन करेगे। 


ब्शे 


आत्मा के तीन पाद 


२-६ व्यार्शनिक पृष्ठभूमि 


सृष्टि के क्रमिक विकास के सन्दर्भ में दो विचारधारावें प्रचलित हैं। एक, भारतीय 
या पूर्व की विचारधारा तथा दूसरी, यूरोपीय अथवा पश्चिमी विचारधारा। ये दोनों विचारधारायें 
क्रमशः पूर्व की संस्कृति एवं पश्चिमी संस्कृति के नाम से भी पुकारी जाती हैं। 

भारतीय दर्शन का मत है कि सृष्टि का प्रारम्भ सतथुग से होता है। तदुपरान्त 
त्रेता, द्ापर तथा सबसे बाद में कलयुग। अधि धीरें-धीर पतन होता है। दूसरी ओर 
पाश्चात्य सोच यह है कि सृष्टि का धीरे-धीरे उत्थान होता है। उनका मानना है कि प्रारम्भ 
में बहुत री अथति असभ्य लोग थे। धीरे-धीरे वे महान बनते ने। कहने का आशय है 
कि वे विकासवादी हैं और विकासवाद के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं। हम लोग 
विकासवाद के सिद्दांत को नहीं मानते। हम लोगों का यह मानना है कि परमात्मा द्वारा 
रचित सृष्टि के प्रारम्भ में अच्छे लोग धस्ती पर आये। महर्षि आये, ब्राह्मण आबे। तब सभी 
लोग विशुद्ध थे। इस समय शासन की कोई आवश्यकता नहीं थी। धीरे-धीरे पततन होता गया 
और शास्त्रों की आवश्यकता हुई। जब पतन हुआ तो शासन तंत्र की आवश्यकता अनुभव हुई 
और मन को राजा बनाना पड़ा। उनसे पहले कोई राजा नहीं था। व्यक्ति खयं धर्म के 
अनुसार चलते थे। तब पुलिस एवं शासन तंत्र की आवश्यकता नहीं थी। जब समाज विगड़ने 
लगा तो राजा बनाना पड़ा और एक कानून बनाया गया जिसे हम 'मनुस्मृति! के रप में 
जानते हैं। जब लोग मनुस्मृति को भी खीकार न करें तो हम समझें कि यह पतन की 
पराकाष्ठा है। 

आजकल मनुस्मृति को गाली देना शुर हो गया -है। मनुवाद को बुरा कहा जाने 
लगा है। इसका यह अभिप्नाय निकलता है कि हम इस हद तक बदमाश हो गये कि नियम 
एवं कानूनों को भी ताक पर रखना पड़ रहा है। मैं यह नहीं कहता कि मनु के सिद्धांतों का 
दुरुपयोग नहीं हुआ। पतन होगा तो दुरूपयोग भी होगा ही। इस प्रकार धर्म छटने पर शासन 


न प्रानइक्योप्रनिएद 


की श्रावश्यकता पढी। शासन की अवहेलना करने पर कानून बनाने पड़े। फिर कानूनों को 
भी तोड़ने लगे शरीर पतन होता चला गया। 

शध्यात्मिक दृष्टि से भी जिनकी सोच पहले बहुत ऊँची थी, वे भी धीरे-धीरे गिरते 
गये। थाज् आध्यात्मिक सोच के लोग कम रह गये हैं। श्राज्न तो सरकार, गजनीतित्ञ एवं इस 
देश के मागरिक यह भी नहीं सोचते कि बच्चों को क्या सिखाना चाहिये? उन्हें कैसा साहित्य 
एहवायें? टेलीविजन भ्ादि पर क्या दिखायें जिससे उनका मानसिक एवं दीद्धिक विकास सही 
दिशा में हो। यह सत्र पतनवाद की प्रक्रिया को दिखाता है। 5 

बंद विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। यह बात विदेशी भी स्वीकार करते हैं। इस 
भधार पर मैं कहना चाहँगा कि प्राचीनतम होने के कारण ते (वेद) बहुत भ्रच्छे थे। इसलिये 
उन ग्रन्थों में कमी कमर है, भ्रच्छाई अधिक है। वाद के ग्रन्थ परिस्थिति को देखते हुए लिखे 
गये या यूँ कहें कि लिखने पढ़े। इसलिए बाद के ग्रन्थ उतने महत्व के नहीं हैं। 

परिस्थिति के अनुस्प लिखें गये बाद के ग्रन्थ आवश्यक हैं - यह एक अलग विषय 
है। आवश्यकता तो राजा की पड़ी तो बनाना पड़ा। राजा बनाना पड़ा - यह पतन है, और 
'राज़ा बनाना ज़स्री है! - यह एक अच्छाई है। 'राज़ा बनाना नहीं चाहिये” . यह हम नहीं 
कहते। पर न बनाना पड़ता, तो बहुत अच्छा होता। परन्तु यदि बनाने की परिस्थिति आ 
जाये और न बनायें तो बहुत बुरा है। आवश्यकता पड़ने पर बनाना ही पड़ेगा 

इसी प्रकार जैसे-जैसे अपराधी एवं पापी बहते गये, साधुओं को शिष्य बनाने में 
अनुशासन, नियम, दि में छूट देनी पड़ी। छूट देना मज़बरी है। परन्तु छूट देनी पड़ती है, 
यह पतन है। यदि गहराई से अध्ययन करें तो यह पतन की प्रक्रिया विभिन्न क्षेत्रों में दिखाई 
देगी। आजकल कई लोग अनुशासन एवं नियमों की अनदेखी करके आश्रमों में रहते हैं। ऐसे 
लोगों को तो आश्रम में प्रवेश नहीं मिलना चाहिये। परन्तु फिर भी रहते हैं। क्या करेंगे? 
एहले सामान्य लोगों का आचरण एवं व्यवहार जितना अच्छा होता था, आज भल्ले लोग भी 
उतने अच्छे नहीं हैं। आजादी के समय प्रत्येक राजनीतिक दल के नेता आज़ के सभी दल्लों के 
नेताओं से अच्छे थे। आज़ पार्टी कोई भी है तुलना में बरे लोग हैं। यहाँ किसी पार्टी विशेष 
का विषय नहीं है। हमारे कहने का भाव यह है कि पत्तन होता है। 

वेद एवं उपनिषद्‌ सबसे पहले लिखे गये। इसलिये हम वेद एवं उपनिषदों को सबसे 
अधिक प्रामाणिक ग्रन्थ मानते हैं। सर्वप्रथम उपनिषदों ने ही परमात्मा की चर्चा की। 'मोक्ष' 
आदि का वर्णन वेदों ने किया। मानव जीवन कैसे जिया जाव जिससे यह प्रृथ्वी स्वर्ग हो - 


आत्मा के तीन पाद श्पु 


इसका सुन्दर माँडल्न हमारे वेदों ने वबनाया। इसलिय भाग्त का अतीत अत्यधिक गौखपूर्ण रहा। 
यहाँ पर घरों में ताले नहीं लगते थे। परन्तु अब घर ताले लगाकर भी नहीं बच पाते। क्‍या 
यह उत्थान है? नहीं। आप इसे उत्थान कह सकते हो क्योंकि भौतिक वस्तुओं में वृद्धि हो 
जाने को आप उत्थान समझते हो। मैं तो इंसे पतन ही कहूँगा क्योंकि वस्तुओं के बढ़ जाने से 
कोई व्यक्ति धर्मात्मा नहीं हो जाता। 

ऋषियों ने परमाणुओं के तोइने का खण्डन किया। परन्तु वैज्ञानिक नहीं माने। 
भारत के ऋषियों ने मना किया था, उसे भी परसमाण विस्फोट करना पड़ा। प्रमाण विस्फोट 
भारत को प्रिय नहीं, परन्तु मज़बगीवश करना पड़ा। दुसरे देशों की सामरिक शक्ति को ध्यान 
में रखते हुए अपनी सुस्क्षा के वशीभुत हमें यह करना पड़ा। जिन लोगों ने नाभिकीय परीक्षणों 
का विशेध किया या तो उन्होंने परी स्थिति को समझा नहीं अथवा स्वार्धवश विरोध किया। 

यदि कोई आज़ के समय में कहे कि पुलिस एवं प्रशासन तंत्र की आवश्यकता नहीं 
तो ऐसा करने से अराज़कता ही फैलेगी। चोरी, लृटपाठ की घटनायें बढ़ेंगी। इतना शासन 
तंत्र एवं पुलिस के बाद भी तीन-तीन वर्ष की कन्याओं के साथ बलात्कार की घटनावें सुनकर 
दिल दहल जाता है। क्या आप इसे उत्थान कहेंगे? नहीं। क्‍या यह विकासवाद है? यदि 
विकास हुआ है तो भौतिक वस्तुओं का हुआ है, विज्ञान का हुआ है। धर्म का तो हास ही 
हुआ हैं। हमारी गीता यह मानती है कि एक वार धर्म का प्रचार एवं प्रसार होता है, कृछ 
संधार होता है और पनः आदमी गिर जाता है। 

प्रवचन सनते समय मन जितना अच्छा होता है, बाद में वैसा नहीं रहता। सभा से 
उठते ही मन बदलने लगता है। आर्य समाज यह मानता है कि समाधि प्राप्त पुछूप 36 कल्प 
तक मुक्त रहता है। तदुपरान्त जन्म लेता है और वह उसका अच्छा जन्म होता है क्योंकि 
बहुत समय बाद पृथ्वी पर आया। उस मुक्ति का प्रभाव उसके जन्म में रहता है। इसके बाद 
धीर-धीर मक्ति का अनभव भूलता जाता है और सामान्य व्यक्ति की तरह हो जाता है। फिर 
दुखी होता है और सख के लिए समाधि लगाता है। इस प्रकार यह सृष्टि एक चक्र की तस्ह 
चलती है। सतयग, ज्रेता, द्वापर, कलियंग क्रमशः आते हैं और पुनः फिर सतयुग आता है। 
सृष्टि का यह चक्र क्रम से चलता रहता है। परन्तु अच्छे से बुरे होते-होते चलता है। 

इस प्रकार समाज के विकास के सन्दर्भ में पाश्चात्य लोगों का कहना है कि पहले 
हम बहत अ्समभ्य थे। वैज्ञानिक बन गये। बहुत प्रकार के अनुसन्धान कर लिये - ऐसी उनकी 
सोच है। परन्त हमार कहना है कि पहले हम बहत अच्छे थे। धीरे-धीरे हमारा पतन हआ। 


१६ प्रान्इक्योपनिषद 


उनके अनुसार हम पहले बहुत बुर थे और धीर-धींर अच्छे बने। हम पतनवाद को मानते हैं और 
वे विकासवाद को। 

पतनवाद के सिद्वांत की पृष्ठभूमि में अर्थात भारतीय दर्शन एवं चिन्तन की दृष्टि से 
उपनिषद के समान दूसेग कोई प्रवित्र ग्रन्थ नहीं है। तदपरन्त उससे कम, उसके बाद उससे 
भी कम प्रामाणिक ग्रन्थ लिखत-लिखते श्राज्ञ समाचाग्यत्र तक प्रामाणिक माने जाने लगे हैं 
समाचार्पत्रों में जो कुछ छप जाये सही अथवा गल्लत-सामान्य व्यक्ति द्वात सब प्रामाणिक 
स्वीकार कर लिया जाता है। 


2.९  मसाण्डुक्योपनिषद्‌ का शाब्दिक अर्थ 


गुण सन्धि के नियमानुसार माण्डुक्य + उपनिषद्‌ मिलकर माण्डक्योपनिएद्‌ बनता है। 
आपने कृप-मण्डक शब्द सुना होगा जिसका अभिप्राय होता है - कृएँ का मेंढक। मण्डुक शब्द 
से माण्डक्य बना है। जैसे किसी संकट था समस्या के आने पर मेंहक छल्लाँग लगाकर चारों 
ऐरों से पानी में कद जाता है, उसी प्रकार जगत से ब्रह्म में कदने का नाम माण्डक्य है। 
बन्धन से मुक्ति में, जगत से ज़गदीण मं, दृश्य से द्रप्टा में और प्रकृति से 
परमेश्वर में कृद जाने का नाम ही माण्डक्योपनिपद है। 





२-३ माण्डुक्योपनिषद्‌ की सहिसा 


इस उपनिषद्‌ को यदि हम ध्यान से सुनेंगे तो मुक्त हो जायेंगे। यह मुक्ति प्रदान 
करने वाला उपनिषद्‌ है। इसमें ऐरे-गेरे की लिखी कहानियाँ एवं किस्से नहीं हैं। इसमें किसी 
व्यक्ति विशेष की कथा नहीं है। इसमें गज़ा, रानी, गम, कृण, देवी, देवता, श्दि किसी 
का नाम नहीं है। 

विभिन्‍न धर्मों के अनुयायी अपने धार्मिक ग्रन्थों की महानता बताते समय किसी 
ऐगम्बर या व्यक्ति विशेष का नाम्र उसके साथ सम्बठ् करते हैं। जितने भी महज़ब हैं वे किसी 
व्यक्ति के नाम से जुड़े हैं। बौद धर्म गौतम बढ़ के नाम से तथा जैन धर्म महावीर स्वामी 
के नाम से जुड़ा है। हमाग हिन्दू धर्म किसी नाम से नहीं जुड़ा। राम और कृष्ण के नाम 
से वह नहीं जुडा। एर्मानन्द अथवा अमुकानन्दर से भी नहीं जुड़ा। जुड़ने से यहाँ अभिप्नाव 
है कि हिन्दू धर्म को किसी व्यक्ति, पैगम्बर, तीर्थंकर, देवी अथवा देवता ने नहीं चलाया। 


आत्मा के त्तीन णाद १७ 


किसी व्यक्ति से इस धर्म की चर्चा शुर नहीं हुई। उपनिषदों ने परमात्मा का सबसे पहला नाम 
'$' रखखा। इसी $' की व्याख्या माण्डक्योपनिपद्‌ में की गई है। 
हम घैर्यपर्वकत इस उपनिषद्‌ का प्रास्म्भ करेंग! आपको मण्डूक की तरह छलाँग 
लगानी होगी। वैसे कएँ के मेंढक का नाम सुनने में अच्छा नहीं लगता। कंत्ते को हम बरा 
समझते हैं। परन्तु हमारे गुरुओं ने कृत्ता बहुत अच्छा माना है। आज़ भी कृत्ते को स्वामीभक्त 
मानते हैं। हमारे गुरुओं, सन्तों एवं भक्तों ने तो यहाँ तक कह दिया, 
“में हूँ कुत्ता रास का, स॒तिया सेरा सलास।” 
(में तो राम का कत्ता हूँ। उसके हाथ में मेरी रस्सी है। जिधर को दीली करता है, जाता 
हूँ। रोक लेता है, रुक जाता हूँ। मेरे हाथ में कुछ नहीं है।) 
इस प्रकार जहाँ कृत्ता कहना बुरा लगता है, वहीं संत अपने आपको भगवान का 
कृत्ता कहते हैं। तो हम मेंढक की तरह छलाँग लगायें। सीधे लक्ष्य में कद जायें। 
माण्डक्योपनिषद्‌ की महिमा इसलिए भी बहुत अधिक है कि इस उपनिषद्‌ का प्रारम्भ सीधे 
परमात्मा के नाम और हमारे जीवन से जुड़ा है। यह उपनिषद सीधे हमारे जीवन की कथा का 
वर्णन करता है। 


२-४ ऊ ही सब कुछ हछि। 


ओमित्येतदक्षरमिदँ सर्व तस्योपव्यार्यानं भूतं 
भवज्तूविष्यदिति सर्वमोक्लार एव। यच्चान्यत 
निकंलालीतं सलट्प्योड्रार एव।।2।॥॥। 
(5 यह अक्षर ही सब कुछ है। यह भूत, भविष्यत॒ और वर्तमान जो कृछ है, उसी की 
व्याख्या है, इसलियें यह ऑकार ही है। इसके अतिरिक्त जो अन्य त्रिकालातीत वस्तु है वह 
भी ओंकार ही है।) ; 

“छुदं सर्वे ओम इति एतल” का अभिप्राय है कि यह सब 'ऊ 
? हैं। अथति जो कुछ दिखाई, सुनाई देता है और जो कुछ जानने में आता है वह सब 
? ही है। 

“अूतंभवन्‍द्विष्यति छइति सर्व ओड्लार एव” का 
अभिप्राय है कि जो भतकाल में था, जो अभी है (अर्थात्‌ वर्तमान), तथा जो अ्रभी नहीं है, 


_्ट प्राहइक्योपनिदद 


जाग होगा (भविष्य) थे सब्र ऑकार ही है। एम ही है। प्रस्मात्मा ही है। थे स (भूत, 
वर्तमान एवं भविष्य) भगवान ही हैं। एन बता दे - ज्रो उ्र नहीं है अर्थात मूत्र में था, जो 
श्र है, तथा जो अब नहीं है, आगे जायेगा (भविष्यत) - थे सत्र प्रोंकार है। 

'यच्च अन्धचल तजिकालानतीनं तन अधि ओक्लार 
एव" प्रधति इसके प्रत्नावा जो तीनों काल से प्रतीत है वह भी श्रोड्भार ही है। प्रथति 
जिसका कभी भुत नहीं होता, ने भविष्य होता है ग्रे जो होकर वर्तमान नहीं होता (अर्थात 


जो सा वर्तमान है। वह प्रोड्ठाग ही है। "जो होकर वर्तमान नहीं हुश' का प्राण यह है 
कि परस्मात्मा या सत्य उत्पन्न होकर वर्तमान नहीं हशा। वह तो सद्धा वर्तमान ही है। 


संदेव वर्तमान ऋझनवाले को क्या आय जानने हो? क्या श्रापक्ी निगाह में कोई 
सदा वर्तमान है? जवानी ब्राज् वर्तमान है कि सदा वर्तमान थी? क्या जाग्त सदा वर्तमान 
रहता है? ग्रीर खप्न? सुपप्ति? सदा वर्तमान तो एक ही है शरीर वह पस्मात्मा दिखाई नहीं 
पड़ुता। इसलिये जो दिखाई पड़ा वह भूत हो गया। प्रो दिखाई पद महा है, वह भूत होगा। 
जो अमी वर्तमान नहीं है, और भूत भी नहीं, भविष्य में होगा - थे सत्र शोंकार है। 

एर्न्तु इसके अलावा जो ज्िकालातीत है, वीनों कोल (भूत, वर्नमान एवं भविष्यत) 
के ऐग है वह भी # ही है। प्रथति जो तीनों काल की सीमा में नहीं है, काल के परे है 
वह भी ऑकार है। इस प्रकार (॥) जो भुत, वर्तमान एवं भविष्य की सीमा में शव होकर 
दिखता है तथा (॥) जो सम्रय की सीमा से फ है वह सब श्कार ही है। 

'तस्य उपब्यासख्यान' जो कह श्रोंकार हमें दिख रहा है, यह उसका 
ग्रव्यास्यान है। । अर्थात्‌ इस सृष्टि के लिये, परमात्मा के लिये '$* व्यास्यान है। हम 
किसी वाक्य, उपदेश अदवा नाम से किसी वस्तु को फचानते हैं। फ्रमात्मा को सीधे एवं 
समीपता से कहने में यदि कोई शब्द सक्षम है वो वह प्रकार है। भगवान की बात सीधे 
(07०८) कहने से शीघ्र समझ में श्रावेगी। वैसे वो ग्रौर भी बहत शब्द हैं। जैसे - 
"परमात्मा निशकार है।” एम्नतु यहाँ प्रान उठेगा कि हम निरकार को कैसे मान लें कि वह 
है? कैसे स्वीकार करें? 

. __ इसलिये यह ऑकार उस अज्ञात को, अ््ट को, जो जानने में नहीं आता, जनाने 
के लिए बहुत समर्थ है। प्रारम्भ में फ ' 


22520 कै कहे हुए मंत्र को एक बार फिर ढुहस लें। 
अगमित्यतदक्षरमिद सर्व तस्योपव्याख्यान ः 


ब्रन्मा के तीन णाद ११ 


भरतंभव,ठविष्यदिसि सर्वमोहझ्लार एव। 
यच्चान्यत्त्रिकातलालीनं नद्योह्लार एव।। 

सत्र श्रोंकार है। भुत, वर्तमान एवं भविष्य यह # का उपब्याख्यान है। यदि भूत, 
वर्तमान एवं भविष्य न होते तो हम उसका व्याख्यान न कर पाते। व्याख्यान के लिये थे तीनों 
जग्गी हैं। $ में तीन मात्रायं होती हैं। तीन अक्षर से मिलकर ऊँ बनता है। ये संप्टि भी 
: भुत, वर्तमान एवं भविष्य से ही बनी है। इन तीनों (भूत, वर्तमान एवं भविष्य) का हेतु काल 
है। काल के काग्ण भूत है, काल के ही कारण वर्तमान है श्रौर इसी के कारण भविष्य भी 
है। काल के विना ये तीनों सम्भव नहीं हैं। आप वैठ यहाँ प्रवचन सुनते हैं। बैठते हुए कछ 
समय हो गया। आपके बैठने का बचपन वीलने लगा। अब बैठने की जवानी आ जायेगी। 
फिर बैठने का बृह़ापा आयेगा। फ़िर बैठने से उकताहट होगी और छोड़ना पड़ेगा। आपको 
पसन्द हो या न हो पर उठना पड़ेगा। जाग्रत हआ। कछ देर रहा। फिर जानने से 
इकताहट आ सीमा में आवढ़ होकर दिखता है तथा (॥) जो समय की सीमा से परे है वह 
सव आकार ही है। 

फिर जागना जिस प्रयोजन से है, जागकर काम करें। वस। इस प्रकार सृष्टि काल 
वाली है। भृतवाली, वर्तमान वाली तथा भविष्य वाली। यह वहत जग्री है। यह तो पस्मात्मा 
का उपव्याख्यान है। अकार, उकार तथा मकार रपी > फरमात्मा की व्याख्या करने के लिये 
आवश्यक है। 

गरभी ऊपर यह बताया गया था कि भूत, वर्तमान एवं भविष्य इन तीनों के बिना 
पस्मात्मा की चर्चा, उनका वर्णन, उनका ज्ञान नहीं हो सकता। इस काल की उपयोगिता का 
जाग्रत, स्वप्न एवं सुपुष्ति इन तीनों उ्रवस्थाओं के सन्दर्भ में भी स्पप्ट किया जा सकता है। 

यदि सृप्टि में सभी जीवों के लिए जिसमें मनप्य, पेश, पक्षी, कीड़े, मकाड़ 
भामिल हैं कंबल सुप्रप्ति भ्रवस्धा हो जाये नो क्या पस्मात्मा का ज्ञान हो सकेगा? नहीं। तो 
सुप्रप्ति हमार लिये पर्याप्त नहीं है। इसी प्रकार स्वप्न भी हमारे लिये पर्याप्त नहीं हैं। खप्त मं 
विचारक्षमता नहीं होती। विचार करन की सामर्ध्य कंबल ज़ाग्रत में ही होती है। संपृष्ति में 
साचन की क्षमता नहीं है, यह किसकी गलती से हआ? क्या यह अवस्था हमारे प्रमाद से 
वनी? नहीं। परन्तु स॒पुप्ति की एक विषपता यह है कि बिना ज्ञान-ध्यान के दुखों से 
निवुनि हो जाती है। पस्न्‍्त इस निर्णय का व्याख्यान कि वहाँ दख नहीं रहते! कब करते हैं? 


0 माहइक्योपनियद 


जाग्रत में। यदि जागे ही ने होते तो यह सोचने का कि स्प॒प्ति में कोई दुःख नहीं होता। 
सपप्नि बहत अच्छी है।' उबसर ही नहीं मिलहा। इसलिये केबल स्रपरष्ति पर्याप्त नहीं है। 

प्र बंद खन एव नींद केवल ये ढो ग्रतस्थाय ही होतीं तो हम खा्म एवं सुप्रष्ति 
में कोई निर्णय न कर पाते क्योंकि एक सतत हुआ और नींद में चले गये और नींद से फ़िर 
खजण में। वहाँ हम कृछ भी सोच महीं पाते। 

जाग्रत ही एक ऐसी अवस्था है जिसके रहते हममें दिचार एवं चिन्तन की स्ाफ्ण 
होती है। यह अवस्था उसी सत्य ने खबं प्रकट को है। थे वीनों अवस्थायें - जाग्रत, खप्न 
एवं सुर्पुप्ति उसी सत्य (परमात्मा) ने प्रकट की हैं। इसलिये ये वन्धन नहीं हैं। थे तो उसकी 
महिमा है, ब्यात्या है। परम सत्य अधि पस्मात्मा को समझने का उबसर है। 

मान लो योग््न दाग यदि कोई योगी अपने को अग्नि में अनाल्ला दिखा दे तो 
प्रत्यक्षर्णी इस बात पर भगेसा कर लेंगे। एर्ल जिन्होंने ऐसे योगी को नहीं देखा हो भ्रीर 
उसके अग्नि में ने जलने के चमत्कार के विपय में कंबल सना हो, वह इस चमत्कार को गय्य 
समझेगा क्योंकि उसके सामने यह घटना घटित नहीं हुई। इसी प्रकार जाग्रत, ख़प्म एवं सापप्ति 
- ये तीनों अवस्थायें यदि सत्रकी न होतीं अथवा हमार जीवन में एकाध बार होकर उनकी से 
पुनगवृत्ति नहीं होती, वो आत्मा के अविनाशी होने का कोई प्रमाण ने रहता। इसलिये ये सब 

प्रत्येक व्यक्ति के बार-बार होती रहती हैं जिससे यह सिर किया जा सके कि ये अवखायें 

जाती है और हम (अर्थात साक्षी, सत्य या आत्मा) नहीं ज़ाते। इसलिए 


बंधक कट पका पाना काल ला ८4४44 आक ७ 








जगत को प्रत्ीति परमावश्यक है। इस प्रतीति के बिना ब्रह्म अब्यास्थेय रह 
जाता। इसलिये जन्म-मग्ण वाली सृष्टि एवं अवस्थात्व परमावश्यक हैं। 
अतः यह दिखने वाला उनते जञाग्रत, खत एवं संपष्ति के रप में उसकी ही महिमा गा रहा है। 


इसलिए यह जन्म-मरण वाल्ली सृष्टि $ ही है। यह वरह्म ही है। यह आवश्यक है। व्यर्थ नहीं 
है। 





. अब एन 76 सक्षता है कि विस प्र से निणांव ब्रह्म का ज्ञान होता है उसे 
प्रयच क्यों कहा जब? जिस रख (भस्म) से आपके सेग दूर हो जायें उसे रख ने कहकर 
व्वा क्यों न कहें? इसके विफीत जिस दवा से गेग ठीक ते हो उसे दवा क्यों कहें? रख 
क्यों न कहें? गख् तो के है जो कोई गहत ने ढे और जो लाभ एहुँचाये वह तो दवा है। 


आत्मा के तीन पाद बट 








यह जगत उनके लिए प्रप॑च है जो इसमें फैसे हैं। जिन्होंने इस प्रपंच (जगत) 
को देखकर मोक्ष पाया है, उनके लिये यह प्रपंच भी ब्रह्म ही है। 
इसलिय “आमित्येदक्षगमिद स्व ........ ः मंत्र के अनसार जो भूत, भविष्य एवं 
वर्तमान है वह सव ऊं है। 6) जिय सत्य को, गणातीत को, कालातीत तथा अवस्थाओं से 


अत्तीत को प्राप्त करना है वह तथा (॥) जो (जगत) ज्ञान में आ रहा है वह - ये सब ऑकार 
ही है। 


२प सब कछ ऊं ही है - कैसे? 


सर्व होतद ब्रह्मायसात्मा ब्रह्म सोड्यसात्मा 
चयतष्पात॥। ॥7२। । 
(यह सब ब्रह्म ही है। वह ग्रात्मा भी ब्रह्म ही है। वह यह आत्मा चार पादों वाला है।) 

पहले मंत्र में $ नाम बताकर अब कह दिया कि 'यह सब ब्रह्म ही है? अरथति यह 
सम्पूर्ण जगत ब्रह्म से मिन्‍न कुछ नहीं है। सब का सब ब्रह्म है। ये शब्द मेरे नहीं हैं। 

दुनियाँ में जब न कोई दर्शन था, न लेनिन, न मार्क्स, न ब्रिैले, न वर्कले, न 
आज़ के कोई ग्रन्थ थे, उस समय उपनियद्‌ ने कहा, “सर्व हि एतत ब्रह्म........” यह सब 
कृछ जो दिखता है - ब्रह्म ही है। इसी आधार पर हमारे गुरुओं ने कहा, 
“से जग हर का रुप हे, हर रुप सलजरिया आया।” 

अब कोर्ड कहे कि हम वेद एवं उपनिषदों को नहीं मानते, गुर्वाणी को मानते हैं 
तो मैं उनसे पुछठना चाहँगा, “गुरुओं ने कहाँ से जाना? हर शब्द कहाँ से आया? हर रण 
ब्रह्म, ब्रह्मज्ञानी - ये शब्द सबसे पहले किसने बोले थे?” उपनिषद्‌ ने। 


इसलिये विश्व की सभी संस्कृतियाँ वेद एवं उपनिषदों की कऋ्णी हैं। 
कोई यह स्वीकार करे अथवा ने करें। इससे पहले कोई धर्म नहीं था। 
कोई चिन्तन नहीं था। जो दिखता सुनता है - वह, जो दिखाई 
सुनाई नहीं पड़ता वह, जहाँ कुछ नहीं रहता वह, तथा शेष रूने 
वाला सब ब्रह्म ही है - इसकी घोषणा सर्वप्रथम उपनिषद्‌ ने ही की। 
इसलिये कहा गया: 















>८ प्रन्टक्यापानाद । नि [ 
दर ६4५ पद 


“ऊ> पूर्णमदः: पूर्णमिदं पर्णात पर्णमुठ्च्यते। 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमिवावशिष्यले॥ 

(यह सच्चिदानन्द घन पत्नह्म एरस्योत्तम सब्र प्रकार से सढा सर्वद्ा पत्यू्ण है। यह जगत भी 
उस ब्रह्म से पर्ग ही है क्योंकि यह पर्ण उस पूर्ण प्पात्तम से ही उत्पन्न हा है। इस प्रकार 
परम्रह्म की पर्णता से जगत पर्ण होने पर भी वह पर्नह्य पर्पि्ण है। उस पण में से पृर्ण को 
निकाल लेने पर भी वह पूर्ण ही बचा रहता है।) 

पूर्ण का कभी नुकसान नहीं होता। तुम्हें नुकसान इसलिये लगता है कि तुम 
उपनिषद से दूर हो। एक सन्त प्रवचन में कहते थः “तुम धर्म से, उपनिषद से, एस्मात्मा से 
जितने ज्यादा दर हो, उतने ही मज़बर हो।”” 
धर्म से, उ्निषद्‌ से दूर होना, विस्मृत होना ही सभी दुखों एवं 
मज़बस्थों का हंतु है। 
यदि अपने जीवन को धन्य बनाना चाहते हो तो इस उपनिषद का भ्रद्माएर्वक सनों। 
जैसे कोई गस्वाणी को सनता है। कहना तो यह चाहिये था कि गस्वाणी को ऐसे सनो जैसे 
कोई उपनिषद्‌ को सुनता है। पर्न्त दुर्भागवश उपनिषद्‌ के प्रति: लोगों में इतनी श्रद्मा नहीं 
गही। इसलिए हम कहते हैं कि मैये सिक्ख भाई बहन गुस्जाणी पर भ्रद्धा करते हैं, सिर भकाते 
हैं, उसी प्रकार उपनिषद के लिये सबका सिर झुकना चाहिये। वेसे दिल नहीं झुकता तो सझ्लिर 
ही भ्रुका दो। प्रायः देखने में आ्राया है कि वोट प्राप्त करने हेतु प्रद्धा न होने ए भी 
गजनीतिक नेता भी गुझदार, मन्दिर के सामने मत्या टेकते हैं। यहाँ तक कि कम्यनिस्ट तक 
मत्या टक देते हैं। जिस स्थान था प्रान्त में नतागण जाते हैं, वहीं की वेषभुषां भी पहन लेते 
हैं। यह सत्र इनकी व्यवहार कृशलता की ग्रोर इंगित करता है। 

वोट व्यवहार कुशलता से मिल सकते हैं एरन्‍्त पस्मात्मा इस प्रकार की व्यवहार 
कशलता से प्राप्त नहीं होता। वह तो सच्ची प्रा से प्राप्त होता है। इसलिये गझ्बाणी की 
तरह जो उपनिषद का प्रद्धाएवंक सनंग उन्हें ब्रह्म का ज्ञान होकर रेगा। इसलिय जितनी 
प्रह्म परमात्मा एर है, उतनी ही प्रद्ठा उयनिषद्ध पर होनी चाहिये। भल्ले ही आपको उपनिषद 
याद न रह हां, परन्तु भगवान का भरम्मा तो श्राथकों करता ही पडता है। एस्ा क्यों? 
क्योंकि तुम जो चाहत हो, वह नहीं होता। इसलिय विवरशता में गंध को ठादा कहना पड़ 
हां है। अ्रद्र काई श्रापन्ति कर सकता है कि मैंन भगवान को गधा कह दिया। अ्रसल्न में 






ग्रात्मा के तीन पाद ह २३ 


आप उसे गधा ही समझते हो। अभी उसे भगवान नहीं समझते। मजबूरी में उसे दादा कहना 
एड़ रहा है। अभी आप उसे पिता नहीं समझते हों। _ 
में चाहता हूँ कि परमात्मा के लिये आपका हृदय झुके। जब जान जाओगे 
तो अनुभव से हृदय झुकेगा। बिना जाने भी भ्रद्वा करो। 

अभी आप भगवान को कहाँ जानते हो? जब किसी समस्या में फैसे होते हो, तो 
मन्दिर चले जाते हो। मन्दिर में रखी जो प्रतिमायें पत्थर लगती हैं, वे ही परीक्षा के दिनों में 
भगवान लगने लगती हैं। जो पुजारी वर्षों से चढ़ौती के रुपयों की चोरी करता रहता है, वही 
अपने पुत्र-पुत्री की बीमारी में प्रार्थना करने लगता है कि, “'ैनें बहुत चोरी की है, मेरे लड़के 
को बचाओ।” जब चोरी करता रहा, तब समझ नहीं आया। तब प्रतिमायें भगवान नहीं 
लगीं। अन्यथा चोरी क्‍यों करता? तब अन्धा हो गया था। किसने अन्धा किया? कामना ने, 
लोभ ने, स्वार्थ ने अन्धा किया था। विपत्ति या संकट के समय पापी भी आँख वाले हो जाते 
हैं। परन्तु वह आँख थोड़ी देर तभी तक खुली रहती है जब तक कि वह विपत्ति दूर नहीं हो 
जाती। संकट दूर होते ही उचित- अनुचित का ज्ञान कराने वाली आँख (समझ) फिर बन्द हो 
जाती है। पाप करने का मतलब आँख पुनः बन्द हो गयी तथा भगवान मनाने अथवा उनकी 
शरण में जाने का मतलब आँख खुल गईझ।.__________॥औ३औऑ॥_॥_३ 
जब भगवान की परवाह न रहे और मनमानी करने का दिल करे तो समझ 
लो, इस समय मेरी आँख बन्द हो गयी। अन्धा हो गया, विवेक नहीं रहा। 
यदि जीवन में भला चाहते हो तो अन्धे नहीं होना। आँख वाले हो जाओ। 
शास्त्र आपकी आँख खोलना चाहते हैं। 

शास्त्र आपकी आँख खोल देगा तो आपका जीवन धन्य हो जायेगा। 
उपनिषद्‌ के दूसरे मंत्र को पुनः स्पष्ट कर दें। “सर्व होनद ब्रह्म” - यह सब जो 
दिख रहा है तथा जो ठेख रहा है वह ब्रह्म ही है। “अयमात्मा ब्रह्म” यह शभ्रात्मा ब्रह्म है। 
अर्थात्‌ यह जाग्रत, स्वप्न, सुपुप्ति, विश्व, तैज़स, प्राज्ञ तथा जाग्रत, स्वप्न एवं सुपुप्ति को 
देखने वाला आत्मा - यह सब ब्रह्म है। गहगई से विचार करें कि उसी मंत्र में एक बार कहा 
*ब्रह्म जो सर्वत्र है, सब में है।' फिर कह दिया कि वह जो ब्रह्म है, वह आत्मा चार पाद 
वाला है।! इन चार पादों का प्रारम्भिक परिचय अभी ढेंगे। फिर एक-एक पाढ की विस्तार 
से चर्चा आगे की जायेगी। 












ु मान्दृक्योपनिषद 


धभी प्रथम एबं दितीय मंत्रों में यह बताया गया था कि ग्रात्मा ब्रह्म है तथा ब्रह्म 

ग्रात्मा है। यहां ग्रात्मा बप्टवाचक है तथा ब्रह्म स्माप्टवाचक। इसी ग्राधार पर बाप 
गरत्मा) के चार पद की तरह समष्टि (हम) के भी चार पाद होंगे। जिस प्रकार गाव के 

चार पाद होते हैं तो बठड़ के भी चार पाद होते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म के भी चार पाद होते 
होंगे। परन्तु आत्मा के चार पाद गाय के चार पादों की तरह ने होकर खाये के चार आने की 
तरह हैं। 

हम कहेंगे चार आने (ज़ाग्रत) झूठे, चार आन (ख़न) झूठे, चार श्ाने (सुपष्ति) 
झूठे और एक चार आना (साक्षी या ग्रात्मा) सच्चा। फल्तु एक चार श्राना जिसे हमने सच्चा 
कहा वह चार आना नहीं अपितु सपया है। यदि पहले चार श्वाने (ज्ाग्रत), दुसरे चार आने 
(खनन), तथा तीसरे चांर आने (सुपष्ति) सच्चे होते तो थे चार आना (आत्मा) फिर झुपया 
ही न होता। 

चार आने (जाग्रत अवस्था) चले गये। फिर दूसरे चार आने (खान अवस्था) आ 
गये। इस प्रकार बागै-वारी से थे तीनों चार आने आते-जाते रहते हैं। और एक चार आना 
(साक्षी), वह तो पुरा झूमया है। कहते हैं चार आना, परन्तु है पुत्र झपया। अब आप कह 
सकते हैं कि इस प्रकार गिनती करने से (] झायया + चार आने + चार आगे + चार आने) 
से तो ये पीने दो रपये हो जाते हैं। होने वो चाहिये पीने दो रूपये परन्तु ऋषि कहते हैं. कि 
यह एक ही झपया है। फ़िर तर्क उठंगा कि यदि एक ही झुपया है तो इन तीन चार आनों को 
बताने की क्या आवश्यकता थी। सीधे रुपया ही कह देते। इस पर हमारा कहना है कि इन 
तीन (जाग्रत, खन एवं सुप्ृष्ति) के बिना झायया (साक्षी या आत्मा) दिख ही नहीं सकता। 
स्पये (साक्षी) का अहसास ही नहीं होगा। 

श्त्र हम श्ात्मा के चार पादों का वर्णन श्रागे करंगे। 


२-६ आत्मा का प्रथम पाद-विश्व(बहिप्प्रज्ञ) 


जागरितस्थानो बहिप्प्रज्ञ: सप्ताड़ एकोनविंशतिमख्र: 
स्थलभग्वेश्वानर:ः प्रथमः पाद:।॥3।। 


आत्मा के तीन पाद थ्प 


(जाग्रत अवस्था जिसकी अभिव्यक्ति का स्थान है, जो वहिप्पज्ञ (वाहय विषयों को प्रकाशित 
करने वाला) सात अंगों वाला, उन्‍नीस मुखों वाला और स्थूल विषयों का भोकता है, वह 
वैश्वानर पहला पाद है) 

उपरोक्त मंत्र में आत्मा के प्रधम पाद, जिसको वैश्वानर कहते हैं, की विशेषतायें एवं 

लक्षण इस प्रकार बताये गये हैं ह 

() . ज़ाग्रत अवस्था इसके रहने का स्थान है अधथति वह ज़ाग्रत में रहता है। 

(४). जिसकी अपने से भिन्‍न विपयों में प्रज्ञा है अथति स्थल की ओर जिसका ज्ञान है 
उसे बहिण्मज्ञ कहते हैं। यह प्रथम पाद यानी वैश्वानर भौतिक अति स्थूल जगत 
को जानता है। इसकी अविद्याकृत वृहि बाहय विषयों से सम्बह-सी भासती है। 

(9) इसके सात (शिर, नेत्र, मुख, प्राण, मध्यस्थान (देह), मूत्रस्थान, चरण) अंग है। 
“इस वैश्वानर आत्मा का चुल्लोक शिर है, सूर्य नेत्र हैं, वायु प्राण है, आकाश 
मध्यस्थान (देह) है, अन्न (अन्न का कारणरप जल) ही मूत्र स्थान है और प्रृथ्वी ही 
चरण है”!। (छा. 3. ४/१८/२) 
आत्मा की दृष्टि से अर्थात्‌ व्यष्टि के दृष्टिकोण से जाग्रत के अभिमानी को हम 

विश्व कहते हैं। उसी को समष्टि की दृष्टि से या ब्रह्म की दृष्टि से वेश्वानर वोलतें हैं। 

यहाँ पर आत्मा के पाद बताते समय वैश्वानर शब्द का प्रयोग इसलिये किया है क्योंकि इससे 
पहले वाले मंत्र में आत्मा को ब्रह्म कहा धा। इसलिये आत्मा के पाद बताते हुए वैश्वानर 
शब्द द्वारा आत्मा को ब्रह्म से जोड़ दिया। 

पुलोक, सर्य, आकाश, वाय आदि सात परमात्मा के अंग हैं। वैसे तो ये सात 
अंग आत्मा के अंग हैं, विश्व के अंग हैं, परन्तु ये मुझे अपने लगते हैं और अभी ब्रह्मांड अपना 
नहीं लगता, इसलिये आत्मा भी ब्रह्म नहीं लगती। अभी तो केवल ढेह ही अपनी लगती है। 
व्यष्टि के पादों का वर्णन करते हुए इन्हें समष्टि के पादों के साथ जोड़ा है जिससे यह 
स्पष्ट हो सके कि भात्मा ब्रह्म है। आत्मा अलग-अलग नहीं है। 

(१४) इस वैश्वानर आत्मा के )9 मुख (पाँच ज्ञानेन्द्ियाँ - नेत्र, कान, 
नासिका, जिहा, लचा, पाँच कर्मेन्द्रियाँ - हस्त, पाद, मुख, उपस्थ, 
गुदा, पाँच प्राण - प्राण, अपरान, समान, व्यान तथा उदान, मन, 
ब॒ढ्िं, अहंकार एवं चित्त) हैं। इन 9 मुखों के द्वाग यह विषयों का भोग करता 


ही .. प्राडक्यायनिद 


है। इनके दाग ही सख-दःख का प्रनभव करता है। इनमें से जो मेखर नहीं 
होगा, वह वाला आनन्द चला जायेगा। इसलिय यह (वैश्वानग)।9 मख बाला है। 
(७) बह झ्थु् विषयों का भोक्ता है। स्थृल्न विष्यों के बिना यह तल नहीं होता। 
जागृत में सवाल की पतली से काम नहीं चल्नेगा। प़ंग्नत में स्थाल के वेट से 
सन्तोष नहीं होगा। जाग्रत में स्थाल की गेटियों से भुख नहीं मिटरेगी। इसी प्रकार 
जाग्रत में सवाल की कर्सी से चैन नहीं मिलेगा। यही कारण है कि कई बार जाग्रत 
अवस्था में लोग कहते हैं कि भगवान दिखना घाहिये। हमार यह कहने पर कि 
“धान सम्राधि के दास करे” तो कहते हैं, “नहीं दिखना चाहिये”। ख्याल के 
गछ्मी से गज़ाग नहीं होता। हम यदि कहें कि “हमें सामने से कंबल ख्याल से 
प्रणाम करो”, तो यह झमग्कर कि मैं श्रापके सामने बैठा हैँ, आपको झ्माल से 
प्रणाम करने में ज्यादा ग्रापत्ति नहीं होती। एस्न्तु मेगे अनुपस्िति में मुझे स्थान से 
प्रणाम करने के लिए कहने पर लोग कहते हैं, “मजा नहीं आता”। यद्पि स्थाल से 
प्रणाम करने की वात बहुत उँची है। परन्तु वह तभी हो पायेगा ज़ब श्राप छ्यूल को 
भूल जाओ। स्थृत्र को भूल जाने एर स्थाल वाला ही सत्य हो जाता है। इसलिये 
ध्यान की स्थिति में ज़ब देह का विस्मग्ण होता है तो ध्यान में जो प्रत्मनक्ष होता है 
वह सक्षात वैसे ही लगता है जैस प्रत्यक्ष होता है। इस प्रकार जाग्त प्रवस्था में 
स्थूल्न भोग होते हैं। 
भव प्र्न यह उठ सकता है कि वेश्वानर को गात्मा का प्रथम पाद क्यों कहा? आप जहां 
से चलना प्राग्म्भ कगेगे, पहला मील वहीं होगा। आपने यह व्रह्मज्ञाग की कथा सनना 
क्रोमसी अवस्था में शर किया? खप्म में? नहीं। संपध्ति में? नहीं। ज़ाग्रत में। चंकि 
जाग्नत में शुर किया, इसलिए जाग्रत की चर्चा पहल्ल की जाती है। वैसे तो संपाप्ति पहले होती 
है। अचतन अवस्था पहले थी। चेतना में बाद में श्राय। पएरन्त कथा सनना एवं समाना 
जाग्नत में ही होता है! इसलिये पाग्रत विश्व श्रात्मा का पल्ला पाद है। जाग में ही श्रात्मा 
के विभिन्‍न पादों की गिनती कर सकते हैं। 
इस प्रकार जाग्रत जगत का अभिमानी जिसे स्ोप्टि या ग्रात्मा की दृष्टि से विश्व 
तथा व्रह्म अधवा समष्टि को दृष्टि से वैष्वानर कहते हैं भ्रात्मा का प्रथम परठ है। यह 
वहिण्त़ है। इसके सात अंग तथा उन्नीस मख है और ख्त्न विषयों का भोक्ला है। 


श्रात्मा के तीन पाद २७ 


२० आत्मा का दितीय .पाद - लेजस (अन्तःप्रज्ञ) 


स्वप्नस्थानोछनतः प्रज्ञ: सप्ताडञ् एकोनविंशतिसरतः 
प्रविविक्‍तभुक्‍कलेजसो दितीयः पाद: ४४॥ 

(स्व्न जिसका स्थान है, जो अन्तग्रज्ञ है, सात अंगों वाला तथा उन्‍नीस मुख वाला है और 
सक््म विषयों का भोक्‍ता है, वह तैञ्स इसका दूसरा पाद है) 

आत्मा के दूसरे पाद का नाम व्यष्टि की दृष्टि से तेजस है। समष्टि की दृष्टि से 

वहीं हिरण्यगर्भ कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि उपर के मंत्र में हिरण्यगर्भ शब्द का उल्लेख 
नहीं हुआ है। परन्तु तीसरे मंत्र में ज़िस प्रकार आत्मा के प्रथम पाद को हमने व्यष्टि की 
दृष्टि से विश्व तथा सर्माष्ट की दृष्टि से वैश्वानर बताया था। उसी प्रकार दूसरे पाद को 
व्यष्टि की दृष्टि से तैनस तथा समष्टि की दृष्टि से हिरण्यगर्भ कहते हैं। 

स्वप्न इस तेजस का स्थान है। जाग्रत की तरह यह स्वप्न में भी जीने, मरने, शांदी होने 
लड़का होने आदि का सुख-दुःख भोगता है। मैं पुछता हूँ कि क्‍या स्वप्न की मृत्य तुम्हें स्वप्न 
के दौरान झूठी लगती हैं? स्वप्न का नुकसान क्या तुम्हें झठा लगता है? स्वप्न में चुनाव की 
विजय? यदि विवाह हो जाये और नींद न खुले तो कोई कमी है? विलकूल नहीं। परन्तु जब 
जग जाते हैं तो लगता है विलकुल बेकार। इस प्रकार ख॒प्न भी कम नहीं हैं। परन्तु स्वप्न की 
महत्ता उसी समय तक रहती है जब तक कि हम नहीं जागते अधति स्वप्न में हैं। इसलिये 
"स्वप्नसस्थानोछन्तः प्रज्ञ:ः का अभिप्राय है कि इस तैज़स का स्वप्न स्थान है 
और अन्दर की ओर इसकी प्रज्ञा (वृद्धि) होती है। अपनी वृद्धि तथा वासना से उत्पन्न हुए 
दृश्यों को देखता है और उन्हीं का आनन्द लेता है। वहाँ अक्‍्ल का मामला नहीं है। यदि 
स्प्न में साधु की भी जेब कट जाये तो वहाँ वेदान्त काम नहीं आता। ख्ष्न अवस्था 
बिलकुल जाग्रत की तरह सत्य लगती है। परन्तु गड़बड़ क्या है? प्रथम पाद अर्थात्‌ जाग्रत में 
आते ही सब झूठ लगने लगता है। दूसरे पाद में (स्वप्नावस्था में) तो इसकी (स्वप्न) जाग्रत 
से तुलना भी नहीं कर सकते। प्रथम पाद (जाग्रतावस्था) में आकर ही पहले एवं दूसरे की 
तुलना करते हो। यदि खण्नावस्था में भी जाग्रत एवं ख्वप्न की तुलना कर पाते तो स्वप्न का 
महत्व भी जाग्रत के समान ही हो जाता। फिर वह भी (खप्नावस्था) ज्ञान के लिए प्रथम 
अवस्था (जाग्रत) की तरह महत्व की होती। परन्तु वहाँ सोचने, तुलना करने, याद करने 
का कोई अवसर नहीं होता। जो देख रहे हैं, देख रहे हैं। यदि स्वप्न में चिड़िया बनकर उड़ 


प्राहक्योपनियद 


जायें तो यह लगेगा ही नहीं कि झठ हैं। यहाँ (जाम्नत में) जो चीज़ हमारे मन की ने हो 
तो लगेगा कि बठ है। परत सख्त में मुठ नहीं लगता। इसलिये खणावस्था में अन्तः प्रज्ञा | 
होती है। वहां भी सात उंग है, उन्नीस ही मस हैं परन्तु भोग सक्षम होते हैं। सूक्ष्म में हो 
वहाँ तृप्ति हो जाती है। उन खन में हमें स्पये मिल जाते हैं तो थोड़ा भी एसा नहीं लगता 
कि ये स्व बेकार हैं। सवप्म में भी तम पाश हो जागो तो क्या बठा लगता है? वैसा ही 
सच्चा ह्ृगता है, वैसा ही ग्ानन्द आता है। वैसी ही हानि का दुःख होता है। थोड़ा भी 
कमर नहीं। परन्‍्त मक्षति के लिए जो चिन्तन हम यहाँ (जाग्रत में) कर सकते हैं, वह वहाँ 
(खनन में) नहीं किया जा सकता। इसलिये तैज़स में वैध्नावर की तरह एक को छोड़कर सभी 
लक्षण समान हैं। वैश्वानर बाहर की ओर और स्थूल है जबकि तैज्रस अन्दर की ओर और 
सक्ष् है। सुख-दुःख, अंग, मुख, आदि सब दोनों में ही समान हैं। परन्तु ख में “ज़ाग्रत 
क्या है?, स॒पप्ति क्या है?, द्रह्म क्या है?,” - ये नहीं सोच सकते। 

एक वार में ऋषिकेश में कोवल घाटी में अपने गुझ्देव के अखण्डाप्रम में सका था। 
वहाँ पर खप्न में एक हाथी आबा। उसने क्पने एक पैर को मेरी एक जंधा पर रखा और मेरे 
दुसरे पैर को सेठ से पकड़कर मेगे जंथा फाड़ दी। अब आप झम्म्न सकते हो कि मुझ्न पर 
क्या बीती होगी। एक वार तो मु्ने बहत धक्का लगा। परन्तु तुरन्त ही गुझदेव का ज्ञान 
एहुँच गया। यह सोचने लगा, “यह हाथी में देख रहा हूँ। यह फटा हुआ शरीर मैं देख रहा 
हूँ। यह तो सब देख रहा हूँ। मेरे मृत्यु कहाँ हुई है?” यह जानकर कि 'मैं बच गया', 
बहुत प्रसन्‍न हुआ। अब यह सोच कि 'ख़न्न में में बच गया” गुरुदेव द्वारा बताई गई जाग्रत 
की सोच की देन थी। 

ख्याल का दुख होता है था सचमुच? सुख भी ख्याल का ही है अथवा वहाँ कुछ 
है? स्थल के भी सुख-दुःख ख्याल के ही रण हैं। पदार्थ स्थ॒ल्न हैं, पर भोग तो वहाँ भी 
सूक्ष्म-ही हैं। धनी होने का सुख मानसिक है अथवा भौतिक? एद का सुख? मानसिक। 
असल में सभी सुख अथवा दुख चाहे स्थूल हों अथवा सक्षम सर मन में ही हैं। परन्त फिर 
भी आप ख्याल के सुख को महत्व न देंगे। यदि ख्याल में आपको संत मिल्न जायें, स्थात् में 


गंगा स्नान कर लें, ख्यात्र में भगवान को प्रणाम करें और ख्याल को जोग्नत से ज्यादा सच्चा 
कर लें तो समझ लो कि आप स्थल से सक्ष्म में प्रवेश कर गये। 


हा एएथाभाणणाणांभाभाणणणाांभाभागायाााा आय अप इमली 


स्थत्न से सक्षम में चल्ले जाना ही ध्यानावस्था होती है। 





श्रात्मा के तीन पाद 5 


सूक्ष्म में गुर के मिलने या प्रकाश होने घर उतने ही आनन्दित होना जितने कि 
सच्चे गुरु के मिलने या प्रकाश होने पर होते हो। हम ध्यानावस्था में भी सक्ष्म में जा सकते 
हैं। परन्तु जाग्रत में ध्यान में इतना सज़्चा हो जाना और इस जगत को भूल जाना बड़ा 
कठिन है। जबकि ख़प्न में बिना किसी अभ्यास (938०४०८) के जगत को भूल जाते हैं और 
स्वप्नों में प्रवेश कर जाते हैं। परन्तु ध्यान में गुद् जो बताते हैं वह सत्य नहीं दिख पाता। 
प्रकाश नहीं दिखता, आनन्द नहीं होता। हम कहते हैं कि “तुम ब्रह्म हो, तुम महान हो। ये 
जगतवाले मूर्ख तुम्हें ब्रह्म मानें या न मानें, तुम्हें इससे क्या?” आप कहते हैं, “ये जाग्रत 
वाले मुझे ब्रह्म समगझ्रें। ये प्रमाणपत्र दें कि मैं महान हूँ!” कहने का भाव यह कि अभी 
हम अपने मानसिक जगत में इतने परिपक्व नहीं हैं कि गुद्ध की बतावी बात को सत्य स्वीकार 
लें। स्थूल जगत में जो सुख-दुःख होता है उसका हेतू मन ही तो है। भीतर की ओर मन ही 
तो होता है, तन की तो वहाँ ज़ररत ही नहीं। वहाँ (रूप्न में) तो मन स्वयं तन बन जाता 
है। ज़ाग्रत का बीमार व्यक्ति खप्म में खवस्थ है, दौड़ने लग जाता है, खेलने लगा, पढ़ने 
लगा। जाग्रत में बीमार होते हुए भी स्वप्न में उसे आनन्द आने लगा। परन्तु स्थूल को 
भुलाने के लिए बहुत बड़े अभ्यास की आवश्यकता है। 


पक मन पर मत७ नाक या "कह तय ज-मननक न - 5 परम 5० «मम ५ पक» 33-55 334० अपन लनवन्‍ञ_फम या पक» न + न नस रकम ५ सन भनयक५ ५» मन + पेन ३ ंरतारथत 3.3४ .-२४८७०५० ५ >> जार तनमन ८+-- पालक अमल वथ २-०० >#लम 


स्थल को बिना भुलाये सुक्ष्म का आनन्द, स्थूल और सूक्ष्म दोनों को छोड़े 
बिना निद्रा और समाधि का आनन्द और समाधि को भी बाधित किये बिना 
खरप के आनन्दे का अनुभव नहीं होता। 


समाधि के सुख की बात जाने बिना ब्रह्म के सुख का अनुभव नहीं होता। 
इसलिये यहाँ क्रम से चलना है - जाग्रत से खवप्न में, स्वप्न से सुपप्ति में, जाग्रत से ध्यान 
में, ध्यान से समाधि में। तत्यश्चात ख्वस्प में। परन्तु मान्डक्योपनिषद में ऋषि कहते हैं कि 
चौथे में तो छल्लाँग लगाना है। खिसकना नहीं अपितु जाग्रत से सीधे ब्रह्म में। कोई स्वप्न, 
सुप्रप्ति, अथवा समाधि नहीं। इस उपनिषद्‌ में समाधि की भी गुंजाइश नहीं है। इसमें 
समाधि मना है। इसमें जाग्रत से ब्रह्म में सीधी छलाँग लगानी है। 











के प्रान्द्यापनिषद 


एक अ्र्धव्यास बना देता हूँ। 


जायव्रत 


जन 


उपरोक्त चित्र में तीन रेखावें हैं। केन्द्र में कहाँ से जा सकते हो? पुनः समझो। जाग्रत, 
स्वप्न एवं सुपुप्ति - ये तीन रेखायें हैं। सुप्रष्ति की रेखा से तुम्हें पता न चलेगा। वाकी तो 
तुम हो ही वहाँ। तीसरी रेखा वाल्ा तो जगत से छूट चुका है। जगत क्र्थात वृत 
(आा०णा97०८) वहाँ है ही नहीं। तीसरे वाला तो है ही केन्द्र में। परन्‍्त पत्ता नहीं 
है। दूसरे वाला (स्व) बहुत सृक्ष्म है। सूक्ष्म से तुरन्त सत्य में जाया जा सकता है। ख्याल 
छोड़े कि निर्विकित्य हो गया। वहाँ ख्यात्न छोड़ना है क्योंकि वहाँ ख्यालों का ही जगत है। 
यदि स्थाल्रों का ज़गत चल्ला जाये तो सत्य लाना नहीं है। सत्य तो वहाँ है ही। परन्तु 
ख्याल छोड़ने में बड़ी मेहनत है। स्याल्रों को छोड़ना बढ़ा कठिन है। अन्यथा ख्प्मों से 
स्वस्प में जाना आसान है। सुप्रष्ति में तो चला ही गया था। पर जाने का ज्ञान नहीं था। 
जाग्रत वाला सीधा साक्षी हो सकता है। जाग्रत में दूसरी प्रक्रिया है: ध्यान के 
द्वारा साक्षी में ज़ुाना। पहले ध्यान लगाना फिर ख्याल के प्रकाश में, ख्याल के भगवान में 
जाना। फिर वहाँ से ध्यान लगाकर निर्विकल्य होना। निर्विकल्य होकर आत्मा में जाना - ये 
ध्यान की प्रक्रिया के अंग हैं। परन्तु मान्डृक्योपनिषद्‌ में क्र कहते हैं कि देह को परे छोड़ 
ख्यालों को छोड़ दे और अभी त्‌ क्या है? अभी ऐसे ही झटके से त आत्मस्थ हो जायेगा। 


श्रान्मा के तीन पाठ 3१ 


२-८ आत्मा का लृतीय पाद - प्राज्ञ (प्रज्ञानघन) 


यत्र स॒प्तो ला ऋंचन काम कासयले न कंचन 
स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तमा सुष॒प्तस्थान एकीशूतः 
प्रज्ञानघन एवानन्दमसयो ह्यानन्दर्शुक्येतोमसुस्त्रः 
प्राज़्स्तृुतीय: पाद: । ।ए।। 


(जिस अवस्था में सोया हुआ पुरुष किसी भोग की इच्छा नहीं करता और न कोई स्वप्न ही 
देखता है उसे सुपुप्ति कहते हैं। वह सुपुष्ति जिसका स्थान है तथा जो एकीमृत प्रकृष्ट 
ज्ञानस्वस्थ होता हुआ ही आनन्दमब, आनन्द का भोकता और चेतनारप मुख वाला है वह प्राज्ञ 
ही तीसरा पाद है। ) 

प्राज्ञ आत्मा का तीसरा पाद है। आत्मा के प्रथम एवं द्तीय पाद को व्यष्टि की 
दृष्टि से क्रमशः विश्व एवं तैजस बताया। समष्टि की दृष्टि से इन्हीं दो पादों को क्रमशः 
वैज्वानर एवं हिरण्यगर्भ कहा गवा। उसी प्रकार आत्मा के तीसरे पाद को ब्यप्टि की दृष्टि से 
प्राज्ञ तथा सर्माष्टि की दृष्टि से ईश्वर कहते हैं। 

ज़ब व्यक्ति म॑ं कृछ स्पष्ट न हो तो उसे प्राज्ञ और सम्पूर्ण सृष्टि में कुछ प्रकट न हो 
तो उसे ईश्वर कहते हैं। अब हम पूछें कि “सुप्टि कहाँ से आई?” “ईश्वर से””। “तुम्हारा 
जागना कहाँ से निकला”, “'प्राज्ञ से, सुष्ुप्ति से।” इसलिये सुपुप्ति जिसका स्थान है, प्रज्ञान 
जिसका घनीभूत हो गया है अथति सिमट गया है, आनन्दमय है वहाँ कोई दुःख नहीं है, 
आनन्द ही उसका भोग है, चेतना ही केवल भुक है वहाँ और कृछ नहीं, आँख, कान से 
नहीं, नाक से नहीं, करके नहीं, छुकर नहीं, देखकर नहीं, चखकर नहीं, पाकर नहीं, सब 
खोकर, सबको भुलाकर जो आनन्दमय है वह आत्मा का तीसरा पाद प्राज्ञ है। 

“गत्र सुप्तो न कंचन काम कामयते” - जहाँ सोया हुआ यह जीव कुछ भी नहीं 
देखता। न कोई इच्छा करता है। क्‍या गहरी नींद में विवाह की कोई इच्छा होती हैं? धन 
पाने की? जीने की? नहीं। वहाँ न धन पाने की, न जीने की कोई इच्छा होती है। 
सुषप्ति में मृत्य का भी कोई दुःख अनुभव नहीं होता। इस प्रकार सुपृप्ति में वह “न कंचन 
स्वप्न पश्यति”” कोई स्वप्न नहीं देखता और न कोई कामना करता है। अन्य को नहीं देखता 


है प्रानक्रागनित 


श्र ने उन्य की कोई कह्यना कसा है। गर्म का कोई ख्थात्न भी नहीं झता। यहाँ तक 

कि आने विषय में भी क्या हैँ", “क्या कहीं हूँ” - एसा कृछ नहीं सोजता। वहाँ 
ज़िजाता तक नहीं होती। यह भी जिजास को ही सोचना पड़ता है। 

जानने की इंच भी एक बीमारी है। तकल्लीए है। यह हीक है कि ग्रापप्ति में 
उसकी कोई कामना नहीं री, परन्‍्त वहाँ वह कठ्ठ समझ नहीं सका। समणा हल नहीं हुई। 
जाग में समस्या हम् करे सकता है। उसे संपत्ति में भगाने में कछ नहीं चाहता इसी 
प्रकार यदि जाग्नत में समझकर कछ ने चाहे तो समझो कि समझा हल हो रई। 

ज्र नींद में खोकर वहाँ कोई तकतीए़ नहीं थी तो मृद्य क्या केगी? काल क्या 
का? सबको सोगगा अथवा ते (अखिल) खोगेगी? तो मो आज तक खतोता रहा है 
(दृश्य) वही (दृश्य ही) तो खोबेगा। जो जाता रहा है वही तो जागेगा। जो कभी नहीं जाता 
(अर्थात्‌ अल्तिल) उसका नींद में भी स्थाल नहीं आवा। केवल सो जाने वालों का ख्याल तो 
ग्रा। परत जो (अखिल) नित्य है उसकी स्मृति नहीं री। इसलिये सप्ति ग़ानावत्था 
है। वह शागरातरी म्द्था नहीं है। इसलिये नींद में मोक्ष तो नहीं होता ए मोप्त की घिन्ता 
भी नहीं रती। सु्त भक्ति को मोत्त की एवाह नहीं होती। वह कहाँ आनन्द में रहता है। 


डे 


आत्मा का चतुर्थ पाद-7 


गत अध्याबों में हमने यह अध्ययन किया कि जो भूत में था, वर्तमान में है और 
भविष्य में होगा वह, तथा जो तिकालातीत है वह सब ऊ ही है। इस प्रकार # के दो रप 
हो गये - क्षर तथा अक्षरा क्षर अथति जो काल बाधित है। जाग्रत, स्वप्न, सुप्रष्ति, सम्पूर्ण 
सृष्टि - ये सब काल वाधित हैं क्योंकि काल द्वारा समाप्त कर दिये जाते हैं। अक्षर 
ब्रिकालातीत है। उसको जानना ही जीवन का लक्ष्य है। दूसरे मंत्र में यह स्पष्ट किया गया 
कि जो कुछ भी सुनाई तथा दिखाई देता है अर्थात्‌ मालूम पड़ता है वह तथा जिससे देखा 
जाता है वह सब द्रह्म ही है। 

तीसरे मंत्र में यह बताया गया कि यह आत्मा चार चरण वाली है अर्थात्‌ चार स्पों 
में इसका वर्णन हो सकता है। जाग्रत अवस्था इसका प्रथम पाद है। ज़ाग्रत अवस्था के लक्षण 
बताते समय उपनिषद्‌ ने वही बातें बतायीं जो हमें जाग्रत में प्रत्यक्षतः अनुभव होती हैं। इसी 
प्रकार चौथे एवं पाँचवे मंत्र में क्रमशः स्वप्म एवं सुपुप्ति अवस्थाओं का हृबहू वैसा ही वर्णन 
किया जैसी हमें अनुभव होती हैं। 


3.९ आत्मा के तीन पाद - जायम्रत, स्वप्न 
एवं सृषुप्लि का प्रनरावलोकन. 


जहाँ से गिनना प्रारम्भ होता है वहीं से पहले गिनती शुर करते हैं। चूँकि जाग्रत, 
स्वप्न एवं सुपुप्ति का ज्ञान जाग्रत में ही होता है, अतः जाग्रत को आत्मा का प्रथम पाद 
अथवा पहली अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में स्थूल देह तथा इससे सम्बन्धित जगत 
एवं इसके रिश्ते आंदि का पता चलता है। इस अवस्था में आत्मा स्थूल से जुड़कर 9 मुखों 
के द्वारा काम करती है। आत्मा के इस प्रथम पाद अधथति जाग्रत के अभिमानी को च्यष्टि 
की दृष्टि से विश्व एवं समष्टि की दृष्टि से वैश्वानर कहते हैं। 

खप्नावस्था के अभिमानी आत्मा का: दूसरा पाद है। () स्वप्न जिसका स्थान 
है, (7) अन्दर की ओर जिसका ज्ञान है, इस जगत (जाग्रत) को बिलकूल नहीं जानता, 


३४ प्रादक्यार्यनिदद 


यार वह बदितन्ध तथा संस्कार जल्य सद््म जगत को देखता है, (॥॥) सोया नहीं है, ॥% 
जो ब्रात्मा स्थत्न को जानता है, वही खावस्था में सक्षम ख्मों को जानता है। (७) स्थूल 
की तरह उम्चके भी 7 उंग एवं ॥9 मल्ल है - ये सभी आत्मा के दूसरे पाद अधि तेजस को 
विशषताय हैं। 

प्राज्ञ शत्मा का तीसेत पद है। साप्ति हाँ इसका जाने सिमट जाता है 
इसका स्थान है। जगत में इसका (गात्मा) जान बाहर की ओर था, खण में इसका (आत्म 
का) ज्ञान भीतर की और था। पर्नत सपरप्ति में इसका ज्ञान ने बाहर की जोर होता है न 
भीतर की औओर। इस अड्था में जान कहीं आता-जाता नहीं है। फरन्तु झुता है। उदाहरण 
की सहावता से समझने का प्यास करें। पर्म के प्रकाश में छत फेर देखने से बहत दर तक 
पत्र दिखाई देता है। गत्नि में बल्ल के प्रकाश में यदि देखें तो अक्षाकत कम क्षेत्र दिखाई 
देगा। परन्तु बंदि बल्ल को मिटटी से हक दें तो कृठठ भी दिखाई नहीं देगा। मिट्टी से ग्रावृत् 
वाल के प्रकाश में कठ न दिखने से यह निष्कर्ष नहीं निकाला ज्ञा सकता कि बल्ल बच्चन गया 
या बल्व की रोशनी चली गई। अच्चकार में ग्रदि हमें कठ दिखाई नहीं देता तो इसका अर्थ 
यह नहीं कि मेरे मेत्रों में कोई फक नहीं पड़ा। इसका इतना ही अर्थ निकाला जाना चाहिये 
कि मेरे नेत्रों की किएों का प्रकाश बाहर नहीं हो प्रा रहा और इसलिये वस्तुएँ या दृश्य 
दिखाई महीं दे रहे। प्रकाश के अभाव में इन्धकार का दिखाई देना यह सिंह करता है कि 
नेत्रों को दिख रहा है अर्थात नेग्रों को दिखने का ज्ञान है। 

सुपक्ति में ज्ञान एकीमूत हो जाता है। अर्थात प्रज्ञानधन हो जाता है। इस अवस्था 
में वह आनन्द होता है। आनन्द ही भोगता है। वहाँ वह स्थल पदार्थ, सक्षम दुख आदि 
नहीं भोगता, केबल आनन्द भोगता है। 
“उषोहस्थ परम आनन्दः।” व्‌ ३ ४/॥/३९) 
(यह इसका एरम आनन्द है।) 

दस अवस्था में केवल एक मुख चेतना है। जहाँ केवल चेतना हो और इन्दरियाँ न 
हों, वहाँ वह आनन्द ही भोग सकता है। उन्य कठ भोग नहीं सकता क्योंकि और कषठ 
भोगने के लिये मुख चाहिये। स॒पप्ति में हम देख नहीं भोगते। 

ज़ाग्रत में यदि सुख भोगते हैं तो इसके साथ दुख भी भोगते हैं। यद्वि केवल सख 
ही सुख भोगते होते वो फ़िर बात अल्नग होती। जाग्नते में सख-दःख हामि-ल्लाभ, ज़ब- 
प्रगगय, छोटा-बड़ा, उंच-नीच, थे सब दन्द हैं। जाग्रत की तरह खज्न में भी ढन्द हैं। हमे 


आत्मा का चतुर्थ पाद-) 3९ 
दोनों ही भ्रवस्थाओं में अपने अतिरिक्त अन्य को देखते हैं, दृश्य को देखते हैं, स्वप्म को 
द्खत है। दिन जाक स्तर हित 
जो अपने अलावा देखा जाये, वह सब स्वप्न कहलाता है। 

स्वप्न की इस परिभाषा के अनुसार यदि अपने से अनिरिक्त कृठछठ दिखता है अथवा 
देखा ज्ञाता है तो वह सव खप्म होता है। चूँकि सुपुप्ति में अन्य कुछ दिखाई नहीं देता 
इसलिए उसमें आनन्द भोगता है। इसका नाम प्राज्ञ है और यही आत्मा का तीसरा पाद है। 
इस तीसरे पाद अर्थात सर्पाप्ति की पहचान बतावी नयी है 
'धयत्र सप्लो ना कंचल कासं कासयते नल कंचन स्वप्न्य 
पश्यतलि सतल्सफपप्तमस॥ 

स्वप्न की स्थिति में सोबे हुए मनुष्य को देखकर कई कह सकते हैं कि वहाँ तो 
वह देखता है। अतः कह दिया कि जिस अवस्था में सोया हुआ पुरुष किसी भोग की इच्छा 
नहीं करता और न ही कोई स्वप्म देखता है वह सुपप्ति है। 

वैसे तो मनप्य जाग्रत, स्वप्न एवं सपप्ति तीनों ही अवस्था में सोबा हुआ है परन्तु 
आम लोग सप्रष्ति एवं स्वप्न ढो को ही नींद मानते हैं। 'जाग्नत में भी सोया है' ऐसा 
स्वीकार नहीं करते। इसका कारण यह है कि हम जगत देखने को जगना मानते हैं। जगत 
न दिखने को हम ख्प्न मानते हैं। चैंकि खप्म में ये (स्थल वाला जगत) वाला जो आपकी 
दृष्टि में असली है अयली नहीं दिखता। इसलिये आप अपने को सोया मानते हो। ख्प्न में 
आप ज़गत की दृष्टि से सोये हो ग्रथवा देखने की दुष्टि से सोबे हो। आप जगत न दिखने 
के कारण सोया कहते हो पर स्वप्न तो आपने ही देखा था। आप ही जाग्रत में देख रहे हो 
तो आपको सोया हुआ कैसे कहें? 

सोयी हई अवस्था में आत्मा किसी चीज़ की इच्छा नहीं करता। क्योंकि वहाँ वह 
कछ देखता ही नहीं तो क्या चाहगा?ः यदि कछ दिखे तो चाहेगा। यहाँ दो बातें हैं - वहाँ 
(सुप्तावस्था) दिखता भी कुछ नहीं। दूसरे चाहता भी कुछ नहीं। कृछ न दिखना एवं कृछ 
ने चाहना दो अलग-अलग बातें हैं। योथी हुई अवस्था में आत्मा को न तो कुछ दिखता है 
और न कछ चाहता ही है। 

न कंचन स्वप्न पश्चति” यहाँ खप्न का भ्र्थ कंबल गत वाला ही खप्न नहीं है। 
जाग्रत भी खप्न है। इसलिये कहा है कि *सोकह सिसस्‍्पाँ सब स्तोवनिह्ञारा।” 





३६ प्रान्डुस्वोएनिएद 


यदि लोग यह कहें कि “इसे (जाग्रत) खत क्यों कहते है?” तो हम कहँगे कि उपनिषंद इसे 
खप कहता है, “जिस अवस्था में सोया हुआ जीव कोई सन नहीं देखता।' 
श्राप प्ठ सकते हैं कि “जाग्रत में सोगा हा कहाँ है?” ज़ाग्त में सोवा हआा 
नहीं है, इसलिये इसको (जाग्रत की) खान नहीं माना। जहाँ खान भी नहीं देखता, जगत 
भी नहीं देखता, तथा अन्य किसी को भी नहीं देखता पर उहाँ नींद होती है - यह आत्मा 
वीयरे चग्ण - सर्पप्ति का लक्षण है। आत्मा वहाँ भी उपस्यित रहती है पर जगत को ने 
ठेखती है श्रौग ने चाहती है। यहाँ भी ग्रत्मा मैसी होती है वैसी ही होती है। केवल्न दफ्ता 
में बैठने का अन्तर पढ़ जाता है। जाग्त के दफ्तर में बैठती है तो जाग्त वाले कार्य, खन 
वाले दफ्तर में बैठती है तो ख्म वाले कार्य। युप्प्ति में बिना किसी कार्य के मस्त। इसी 
क्रो प्राज्ञ अर्थात तृतीय पाद बालत है। 


3.2 तृतीय पाद की महिमा - प्राज्ञ का 
सर्वकारणत्व 


एप सर्वेश्वर एप सर्वज्ञ: एपोषन्तयम्यिष योनिः सर्वस्य 
प्रभवाप्ययी हि भुतानाम ॥६॥४ 
(यह सबका ईश्वर है, यह सर्वत्ञ है, यह अन्तयमी है और समस्त जीवों की 
उत्पत्ति तथा लय का स्थान होने के कारण यह सबका कारण भी है) 
आत्मा का तीस पाद अर्थात प्राज़् ही सर्वेश्वः है। यहीं सबका - प़ांग्रत एवं 
खण का - ईण्वर है। संपप्ति में तो ख़ं रूता ही है। जहाँ ज्ञान समेटकर रहता है और 
पनः वहीं से फैला दता है यह वहीं ईश्वर है। यह सर्वज्ञ है। यह सर्वज्ञ है' - यह जल्दी 
समझ में नहीं आता। सब ज्ञान यहीं से उत्पन्न होते हैं। यह अन्वाभी है। यह परदार्धवामी 
नहीं है। वह ख़प्न के ही जानने वाला नहीं है अपित संपष्ति का भी साक्षी, अन्तर्यामी है। 
इसके बिना कोई ज्ञान दनिवा में नहीं होता। जता में भी जो बेतन झता है अर्थात जड़ता 
में भी जिसका ज्ञान रहता है, प्रो सपुप्ति में झता है, वही ईश्वर पेड़ में, पहाद में, पृथ्वी 
मं, मुर्दे में, सवर्मं रहता है। वह ईश्वर ही सबका मालिक है। सबका नियमन करता है। 
सका समेट लेता है। सबको फिर, ऐ्रा देता है। चँँकि आपको करते नज़र नहीं आते 
इसलिय आपको समश्न नहीं आता। परस्नन संपष्ति से जाग्नत में आने के लिये क्या आपको 
पर्रिम कला पा? फरमात्मा का एसा दिव्य विधान है कि वह तीकी ख़बस्था में 


भात्मा का चतुर्थ पाद-] ३७ 


सब॒कों समेट लेता है। नींद में चिकित्सा, वकालत, इन्जीनियरिंग, आदि सभी प्रकार की 
शिक्षा-दीक्षा लुप्त हो जाती है। ज़ागने पर प्रत्येक व्यक्ति में उसकी शिक्षा-दीक्षा, आदि सभी 
ज्यों की त्यों प्रकट हो जाती है। यदि नींद में किसी दिन अपनी शिक्षा, अर्जित-तकनीक 
आदि को भूल जाते तो पता चलता। परन्तु ईश्वर के दिव्य विधान से ज्यों का त्यों- सब 
समेट लिया जाता है और फिर फैला दिया जाता है। जिस प्रकार मकड़ी जाला निकालती है 
और फिर निगल जाती है उसी प्रकार प्राज्ञ सबको विखेर देता है और फिर समेट लेता है। 
यह कार्य रोज़ होता रहता है। रोजाना यह कार्य होते हए ऐसा लगता है जैसे उसकी सत्ता 
मात्र से हो रहा हो। इसलिये यह सबका ईश्वर, सर्वज्ञ तथा अन्तर्यामी है। 

एप योनि:” - जिससे पश, पक्षी, मनप्य, आदि पैदा होते हैं उसे योनि कहते हैं। 
सुपृुष्ति का अभिमानी यह प्राज्ञ योनि है। यहीं से सब निकलता है। चाहे सुपुप्ति हो, मृत्य 
हो अधवा महाप्रलव ही क्यों न हो, सव यहीं से निकलता है। अंप्रकट होता है, फिर प्रकट 
हो जाता है। 
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। 
अव्यक्तनिध्चवसान्येव सत्र का परिदेवना॥२/२८- 

([ 48% 28487 6 40802 

(हे अर्जुन, सम्पूर्ण प्राणी ज़न्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो 
जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना?) 

मृत्य के बाद फिर से पैदा हो जाते हैं। सोने के बाद फिर जग जाते हैं। फिर 
वैसा का ही वेसा सब निकल आता है। इसलिये यह “'सर्वस्थ योनि?” अति सबकी योनि 
है। इसलिये साफ कह दिया “प्रभवाप्ययी हिभूतानाम”” कि यह प्राणियों का प्रकट और लय 
होने का स्थान है। कौन? यह सप्प्ति का अभिमानी प्राज्ञ आत्मा। 


प्राज्ञ (प्रज्ञाईधघन) आत्मा, विश्वात्मा, तेजस आत्मा आदि 
सबका लबस्थान और प्रकटस्थान है। 

ज़ाग्रत, स्वप्न एवं सुपरष्ति इन तीनों की महिमा अलग-अल्लग है। जाग्रत की खूबी 
यह है कि यह समझने में समर्थ है। स्वप्न की विशेषता यह है कि यह सव कछ झूठा खड़ा 
कर लेता है और उसे साफ-साफ देख लेता है। सपप्ति सबको दःख एवं चिन्ता से मकत कर 
दती है। फिर चाहे कोई व्यक्ति पण्यात्मा हो अथवा पापी या गृहस्थ। उतनी दर (नींद के 
दौगन) कोई कप्ट उसे नहीं सताता। 





3८ मा्झयोपतियद 


ये तीन उतस्थाव किसकी नहीं होती? सबकी होती हैं। चौथा जिसको (आत्मा) 
चर्चा थाम की जायेगी भी सबके पास होता है। जिन्होंने जाना है तथा मिन्‍्होंने नहीं जाना है 
उन सबके पास स्रान्मा होती है। अन्तर मात्र इतना ही है कि जिन्होंने जाना है वे सत्र ससी 
हैं भर जिम्होंन नहीं जाना है वे सत्र ठखी है। ऐसा नहीं है कि अनजान लोगों के पास 
नात्मा नहीं होती। हाँ उनको उसका (आत्मा) पता नहीं होता परन्‍त होती उन सत्र पाल 
भी है। इसलिये उसको (श्रात्मा को) जानना है। तीन अर्थात जाग, खम एवं सुपुप्ति को 
तो आप जानते हैं। हो सकता है कि इन तीनों के नाम ठीक-ठीक ने जानने हों एर थे 
तीन होते हैं - थे सभी जानते है। चौथा भी है एसन्‍्ल उसके होने का भरेसा अथवा ज्ञान 
भी नहीं है। उसके होने के लाभ अभी प्राप्त नहीं है। उससे चौथ को प्राण करने की 
कथा श्रागे होगी। 





3.3 आत्मा के चतर्थ पाद का विश्लेषण 


सानतः प्रज्ञ न वहिप्प्रज्ञ सोभयत: प्रज्ञ॑ं ना प्रज्ञानधनं नस 
प्रज्ञ॑ नाप्रज़्म। अदृप्ट्मव्यवहारयमग्राह्मम लक्षणम- 
चिन्त्थमब्यपदेश्यसेकात्मप्रत्ययसारं प्रयंचोपशमं शान्‍न्तं 
शिवमद्ैल चतर्थमन्यन्ते सा आत्मा स्॒ विज्ञेयः ॥५७॥ 
(तेगेय को ऐसा मानते है कि वह ने अन्तप्रज्ञ है, ने वहिष्यज्ञ है, ने उभयतः प्रज्ञ है, ने 
प्रश्ञानधन है, न प्रज्ञ है और ने श्राप है। बल्कि अदप्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अत्नक्षण, 
अविन्तय, अल्यपरदेश्य, एकात्मप्रत्ययबार, प्रबंध का उपशम, शान्त, शिव श्र अद्वैतग्य है। वही 
ग़त्मा और वहीं साक्षात जानने योग्य है) 

शी तक ्रत्मा का प्रथम पाठ, दितीय पराद तथा नतीय पाद हआ। अब उद्ी 
ब्रात्मा के चतर्थ पद का विश्लेषण कस्ये। तीन पदों को तो इस प्रकार बता दिया कि 
बहाँ एसा होता है”, “वहाँ वह कठ नहीं चाहता”, गआ्रादि-आदि। थे चौथा ऊँसा होता 
है? उ्रनिषद ने इसका सीधा बताना भर नहीं क्रिया। क्योंकि उपनियद कहता है 

“यलो वाचो सिवलन्सि अप्राप्प सनसा सह।” 
(नैतिगैयोपनिप्रद नवम उनुवाक) 
यह वाणी से बताया नहीं जञवा। हम किससे बता रहे हैं? ब्राणी से। “चबाणी 
से नहीं बताया जाता” का अभिप्नाव यह नहीं है कि वह बताया नहीं जायगा। इसका इतना 


भ्रात्मा का चर्तर्थ पाद-] 3९ 


ही अर्थ है कि वाणी से उसका सीधा कथन नहीं होगा। वाणी से निषेध द्वारा बतायेंगे। वह 
तुगीब अर्थात्‌ चतुर्थ पाद क्या है? “न अन्तः प्रज्ञं” जो अन्तः प्रज्ञ है, वह (चतुर्थ पाद) नहीं 
है। “न बहिप्प्ज्ञ" - वह चौथा वहिप्नज्ञ अर्थात प्रथम पाद नहीं है। वह चौथा प्रथम पाद 
तथा दितीय पाद दोनों ही नहीं है। वह तैजस भी नहीं है, प्राज्ञ भी नहीं है। 

किसी के विषय में बताने के ढो तरीके होते हैं। एक विधि में उंगली के संकेत 
द्वारा सीधा बताया जाता है कि अमृुक वह व्यक्ति है। दूसरी विधि निषेध की होंती है, 
जिसमें भ्रमात्र वाले गुणों को व्यक्त करने के लिए उससे निषेध का उपयोग करते हैं। एक 
उदाहरण द्वारा समझने का प्रयास करें। 

मान लो स्नानघर से किसी व्यक्त ने आपकी घड़ी चुरा ली हो और आप उसका 
नाम इत्यादि परिचय जानते हैं। परन्त हर आदि के कारण या व्यवहारिकता के कारण आप 
अपनी ज़वान से उसका नाम न लेना चाहते हों परन्‍त फिर भी बिना नाम लिये उसके विषय में 
बताना चाहते हों तो उसकी क्या विधि है? उपनिषद्‌ इसको बताने की विधि बताता है। 
जितने व्यक्ति उपस्थित हैं उनमें से एक-एक पर हाथ रखकर बताओ कि अमुक के पास घड़ी 
नहीं है। सब पर हाथ रख देना। मात्र एक पर ने रखना। समझ में आ जायेगा कि वहीं 
चोर है। ह 

उपनिपद्‌ कहता है कि हम ब्रह्म को सीधा नहीं बताते। समचरितमानस में उल्लेख 
आता है कि वनवास जाते समय लोगों ने सीताज़ी से राम तथा लक्ष्मण के विषय में पूछा। 
सीताजी ने घँघट खोलकर भौंहे टेट्ी करके इशार से बता दिया। तो बताने का यह भी 
तरीका होता है। उपनिषद आत्मा को निषेध के तरीके से इस प्रकार व्यक्त करता है, 
“शत्मा ऐसी नहीं है” “आत्मा ऐसी नहीं है””। जिस चौथे अर्थात तुरीय को जानना है 
उसके विषय में बताता हैं कि वह तरीय भरात्मा जाग्रत के लक्षणों वाला नहीं है। ख्प्न के 
लक्षणों वाला नहीं है। स॒प॒प्ति के लक्षणों वाला भी वह नहीं है। 

“मे अन्तः प्रज्ञ न वहिप्यज्ञ नोमयतः प्रज्ञं ने प्रज्ञानधनं न प्रज्ञं न अप्रज्ञम''। बाहर की 
ओर जो ज्ञान जा रहा है, जो मन में ज्ञान है, जो सुपृष्ति में अज्ञान है वह तुरीय या चतुर्थ 
पाद नहीं है क्योंकि वह न भ्ज्ञ है, न प्रज्ञ है। जानने की विधि है कि पहले वीन अर्थात्‌ 
वहिप्पज्ञष, अन्तः प्रज्ञ तथा प्रज्ञानथन को जानें। फिर ध्यान कस्ते-करते न ज़गत को जानें, न 
सखप्न की कल्पना को जानें अधति जानने का प्रयास न करें और ने भीतर किसी अ्ज्ञान को। 
केवल ज्ञान रहे।' ज़ब केवल ज्ञान रहे तो वह प्रज्ञ। ज्ञान रहते-रते कुछ न रहे, केवल ज्ञान 


९) मानदक्योनियद 


है। फिर थादी देर के बाद मदता ग्रथात भज्ञान भा जाथ। पत्र यहाँ जो ग्रज्ान गाया वह 
पदार्थ का गज्जान नहीं था। अभी थराप्र ब्याज में श्ज्ञान को मानते हीं। जाग्त में जन्नत 
नहीं है! ऐसा मानते हो। उत्र थोडा समझने का प्रयास करं। आपका जाग्नत में जगत को 


ज्ञान जग हो गया। श्यना ज्ञान नहीं हआा। सर्पाप्म में उज्जान भी जगत को हगा। सुपर 
में गत्मा का गज्ञान नहीं हआ। ग्रात्मा का ज्ञान तो फल से हो था। था एस कह कि 
ग्रात्मा का ज्ञान फल्न ही नहीं था। पहले जगत का ज्ञान था, झस्प्मों का जान था। ती 
मींद में किसका भ्रज्ञान हृश्रा? जगत का। मिस प्रगत छा जाने जाग्त में था उसी का 
ज्ञान नींद में हआय। ग्रात्मा का प्रज्गान नींद में नहीं हशा। क्या जाप ब्ात्मा को फल से 
जानते ? नहीं। चकि जाग्रत में भी हम केवल जगत को ही जानते थे। अत्त. मींद्र में भी 
जगत का ही भ्ज्ञान हुत़ा। आत्मा से ग्रपरिचित, आत्मा से अनभिन्न, उसकी महिमा 

परिचित हम एहल्ले से ही थे। जब जग न थे क्र भी, खत में भी तथा ग्रपप्ति में भी। 
इसलिये ख़्म एवं सर्पाप्ति में केवल्न जाग्रत जगत के ज्ञान में अन्तर पड़ा। आय नींद में सोय 
किससे? गात्मा की और से अबवा जगत की ओर से। जगत की और से सोगे होने पर 
आपका खप्म हआ। भाव यह है कि जाग्रत में जगत देखते थे, जगत को देखना बन्द हो 
गया तो सप्न देखने लग। जब खान देखना भी बन्द हो गया तो नींद में आ गये। ये 
तीनों जिन्हें आप ज्ञानावस्था कहते हो, थे ज़नत की ज्ञानावस्था हैं। जिसे आप खपत कहते 
हो वह भी स्तन की जानावस्था है। जिसको अज्ञानावस्था कहते हो वह भी जगत की 
ग्रज्ानावस्था- है। 


+०२३०७>-+कनल-2 ह छू ७एणणथा आ 






अनादिमायया यदा जीव: प्रवध्यते। 
अजमनिद्धमस्वप्नमदैतल॑ बध्यते लतदा॥ 


(जिस समय प्नादि माया थे सोया हआ जीव जागता है अर्थात्‌ तत्वज्ञान लाभ 
करता है उसी समय उस्च श्रत्ञ अनिद्र और ख्नरगहेत उदैत ग्रात्मतत्त का बोध प्राप्त होता 
है।) 

आत्मा का अल्ान तो सदा से है। आत्मा से हम कभी प्ररिषित हुए ही नहीं। 
आत्मा का ज्ञान नींद में नहीं हआ। नींद में भ्ज्ञान तो हआ परन्‍त जगत का। खप में 


भी केवल इस स्थल जगत का अज्ञान हआ। खज्नों का ज्ञान वहाँ रहा। जगत के नाते हीं 
हम खतज्ां को सोम हुए कहते हैं। अन्यथा ज्ञान तो वहाँ भी है। 


आत्मा का चतुर्थ पाद-] ष्र 


शयालकइा जब कद पडप छू पानआाप काल: कप उचा ८ पदक 5 अत गबदक स्लकर तक आकार पक! 


जब सन्त जाग्रत में व्यक्ति को सोबा कहते हैं तो आत्मा के अज्ञान के नाते 
कहते हैं। ज़गत को तो वह देख ही रहा है। 

इसी प्रकार सुपृष्ति में सोया कहने को पूरा सोया हुआ इसलिये कहते हैं कि आत्मा के प्रति 
तो वह पहले ही नहीं समझता था और जो जगत को देखता था वह भी दिखायी नहीं देता। 
इसलिए एक सोना (आत्मा के प्रति अनभिज्ञ) तो अनादि था और एक अभी नींदवाला है। 
2 इसे अच्छी तरह सोया कहते हैं। स्वप्न वाला ज़गत भर से सोया है, वाकी खूब देख 
रहा है। 






आप खप्न में देखते हो अथवा नहीं? सुनते हो अधवा नहीं? दुखी होते हो 
अथवा नहीं? दुखी होने का मतलब तुम थे कि नहीं? खप्न में पड़ौसी दुखी था या तुम? 
पड़ौसी ने स्वप्न देखे थे कि तुमने? फिर सोबा कैसे कहते हो? स्वप्न में सोकर हम स्वप्न 
देखते हैं तो सोना वहाँ इसी अर्थ में है कि जगत को भूल गये थे। यदि देखने के अर्थ में 
कहें तो स्वप्न वाला भी ज़ाग रहा है, देख रहा है। जिस अर्थ में स्वप्न में देख रहे थे उसी 
अर्थ में आप अभी भी जागे हो। 

जाग्रत में देख रहे हो, इलाज कर रहे हो, इन्जीनियर हो, डाक्टर हो, शादी कर 
रहे हो, दुकान कर रहे हो, नौकरी कर रहे हो। जगत देख रहे हो वस इसी अर्थ में जागे 
हो। पर केवल जगत देखने को हम जागना नहीं कहते। 


अलन-रीफ नन न पन्ने पनीर सवा +- न कप अनता--पता कक न नाप मनन“ नननान “सनम नमन - नमन न नमक» ५ पनननननतनन पक पर - न अप न तनमन नरम +नक कनाक पनाननपक -+ वन न कप न तन पन्ना न 


जगत देखना और अपने को न पहचानना इसको क्रपि खप्न कहते हैं। 

जब न जगत देखें और न अपने को पहिचान उसे सपष्ति कहते हैं। इस प्रकार न 
तो हम प्रज्ञ हैं और न अप्रज्ञा यहाँ चतुर्थ पाद बताते समय तीन तो लक्षण बता दिये तथा 
यह बता दिया कि वह (आत्मा) प्रन्ञ भी नहीं है, अप्रज्ञ भी नहीं है। अथति चौथे पाद में 
जानना भी नहीं है और न जानना .भी नहीं है। ऐसा क्यों? क्योंकि उसमें (चतुर्थ पाद में) 
न जानना सुष्रप्ति की तरह है और जानना ज़ाग्रत की तरह है। मान लो ज़ाग्रत जानना बन्द 
कर दे, स्वप्न भी जानना बन्द कर दे तो केवल जानना वचेगा और जानना भी न बचे तो न 
जानना वचेगा और न जानना जाये तो जानना बचे। परन्तु जानना और न जानना एक ही के 
पास रहते हैं। वह एक कौन है? वह स्थाई सप से जानना है कि ना जानना है? तो 
जानना और न जानना भी वह चौथा (तुरीय) नहीं है। चौथा तो जानने एवं न जानने से 
विलक्षण है। जिस दिन आप आत्मा को जानने के लिये जानने और न जानने दोनों का हीं 








पाग्टस्मागाचयट लव्ण्का जी 


फू 4 [€£ ३]५ 4५ 


निपंध ऋर ढो तो तम जानने भर ने जानने ढोनों के श्रान्नय निल्यचित मर्थति निस्य निर्विकार 
में ब्थित पाग्रोने। 

विकार का ग्रनुभव रे में था। विकार का उनमत्र वन में था। ध्यान में कभी 
जाने, कंधी /ज्ञान, कभी सज़गता खेती थी। जब गन की कह्यममा ने हे तब भी कभी 
थाय जाग ऋते हो, कभी सो जाते हो। मेंस एक निन्नी उनभव है। एक बार लह-लट़ छान 
किया। भर श्रादि की कल्यना चली गयी। में बन्दर जाग हां था। जागनत-जागत में जगत 
की कह्यना से रहित हो गया। तदगंगन्‍्ल जगत की कत्यना चल्नी गई श्र फिर होने की 
कह्यना भी चली गयी। होने की कत्यना जाने के बाद बेखबी सी शा गई। बेखबगी के 
भी चले जाने के बाद प्ले श्पने होनेका स्याल आयबा। तह मुत्ने गनमव हआा कि होने का 
सवाल रहना शरैर होने का स्थाल ने हना थे दोनों ही मेरे खग्य में कत्यित हैं। 


3४७४ अख्लतिल्व को समझने में चिन्तन की प्रक्रिया 


श्रापको भी देह होने का स्याल, एस्य था स्त्री भ्रादि होने का सवाल अपने होने के 
ख्याल के बाद हा होंगा। परनत वह पकड़ में नहीं शराघा। भूल से पहले देह होने का 
ख्याल वि में बैठ गया। उतर में आपसे ही प्रछठता हैँ कि होने के स्थाल के बाद पहले दृह 
होना श्गिगा या केवल होने को स्थान? पहले होने का ख्यान्न हथ्ा होगा। एनः पष्ठता हूँ कि 
पहले दीपक के जलने पर घर प्रकाशित होगा या अंधिर में प्रकाशित होगा। फरन्‍्त उ्यनी 
नासमत्री के काग्ण दीपक के जलने पर उसको कमगे दिखा, उसको अपने जलन का त्वाल 
ही नहीं हा। तो जब आत्मा में जगना हुआ तो आत्मा में प्क्ता त्रा मई और जानना बआया। 
जानना शत ही जगत ढेखा। इसके था जगत जानना बन्द हो गया! फिर स्व्न आरथा। 
परत खजत्न भी बचा नहीं। तो पहले जानना बचायें। जब जानना भी चल्ना जावे और फिर 
जानना जाये तो विचार करें कि “आप कीन हो"? आपके रहते जानना आया भर जानना 
चत्ना गया। में कभी-कभी साफ्ती (एक बल्म जिसे प्रा सिर के उफ कानों 
लपेटा जाता है) के उदाहरण दाग सम्रप्नाता हं। 


यह समझो कि साफ़ी का जान जानना है। सारी के ज्ञान का अभियात | 


ने अख्तिल को जानना। साफ़ के जान को. में फ्रीर का जानना नहीं कहेँगा। 
साफी (अस्तिज) का जाने जाग नहीं है क्योंकि यदि यह ज़ाग्रत होता तो देह ज़ानता। यह 


हीता हओआ 


ज्ात्मा का बतर्थ पाद-] ४३ 


(अस्त का प्रतीक साफी) स्वप्न होता तो वह सक्षम को जानता। यदि वह भींद होता तो 
कुछ न जानता। भर मैंने जाग्रत एवं सखवप्म दोनों ही सपने हटा दिये। सिर्फ ज़गा। केवल 
जानना है। क्या जानना? “हूँ” कंवल इतना जानना। अब इसको केवल “हूँ” का ज्ञान 
है। बाह्य ज़गत का नहीं। इसके बाद “हूँ” का ज्ञान खिसक गया तो ज्ञान गवा और अज्ञान 
भशाया। इस प्रकार ज्ञान एवं अज्ञान दानों ही बारी-बारी से आये और चले गये। परनन्‍्त इन 
दोनों का साक्षी कभी नहीं आया और कभी नहीं गया। वह सदैव ज्यों का त्वों नहा। 

दनिया का जानना वहत मोटा है। स्वप्न देखना वहत मोटा है। दीपक सिर्फ़ कमरे 
में प्रकाश करे यह बहुत छोटी बात है। दीपक कब जला? कब व॒द्या? बल्व जलकर कमरे में 
रोशनी करता है। वल्व प्रकाशित होता है - यह एक अलग बात है। हमें रोशनी (मन) को 
यह समझना है कि तू कमरे के चक्कर को छोड़, बाहर देखना छोड़ा तू यह विचार कर कि 
त्‌ बिना दृश्य के जल रही है। बिना किसी के चमकाये आप जल रही है। थोड़ी देर बाद 
वह बच्चन गई। रोशनी वारी-बारी से बच्चन गई, जल गई। परन्त रोशनी के बब्नने और जलने 
को कौन जानेगा? विजली। विजली के रहते रोशनी हो गई और नहीं रही। 'रोशनी नहीं 
रही।' - इसको बिजली ही जान सकेगी। 

दुनिया की बिना कोई कल्पना किये यदि आप जगें और सोयें तो ये (जगना और 
सोना) किसको पता चलेंगे? मन को। इसका अर्थ यह निकला कि जगना और सोना मेरा 
स्वस्प नहीं है। इस पर धोड़ा और चिन्तन करें क्योंकि यह तर्क का विषय है और इस विपय 
में अभ्यास एवं तर्क दोनों ही उपयोगी होंग। 


3.प में जाव्ेत (जगना) क्‍यों नहीं हँ? 


मैं यह क्यों न मानूँ कि “ज़गना मेंग स्वस्प है?” दूसरे शब्दों में “जगना ही मैं 

हुँ” ऐसा क्यों न स्वीकार कर? ज़गना और मैं थे दोनों एक ही क्यों नहीं हैं? 
क्योंकि मेरे महते जगना नहीं रहा। यदि ज्गना और मैं एक होते तो जगने के ने रहने पर 
“में” भी न रहता। इसी प्रकार यदि सप्प्ति और मैं एक होते तो संप्प्ति के जाने पर मैं 
भी न रहता। यदि स्वप्न वाला “मैं" में होता तो स्वप्नों के गायव था लप्त हो जाने पर 
मैं” भी चला जाता। ये वारी-वारगी से चले गये। यद्नपरि ये मेरे से भिन्‍न भी नहीं हैं। 
ये मेरे से भिन्‍न होते, तो बिना मर होते? मेरे से स्वतन्त्र जगना कहीं होता? मेरे 

स्वतन्त्र ज़गना और सोना नहीं रहता इसलिये ये मेरे आधशित हैं। में इनका आश्रय हूँ। 


् प्रन्दक्वायनियद 


उसी मैं खबं को क्या समग्रता हैँ? यही कि “ज़सना मैं हँ"। यद्यपि ज़गना मैं हूँ 
गर ज़गना मत्से खतन्त्र नहीं है. फरन्‍्त ज़गना जिससे होता है उसे भूलकर श्राने-जान वाली 
जगत प्रवनस्था को ग्पना जाया मान ज्ेते हो, यहीं भ्रान्ति है। 

अभी में ग्राएगे पष्ठना चाहँगा। क्या गाँठ ही स्राफी है? (साएी में गाँठह लगाकर 
एन पृष्ठा है) हाँ। (साफी की गाँठ खोलकर एन प्रश्न पृछा यद्या है। झ्या अब गाँठ ही 
साफी है? यदि गाँठ ही साफी है और साएी ही गाँठ है तो गाँठ क्यों नहीं बची? और यदि 
गाँठ ही नहीं बची शरीर साफी एवं गाँठ एक हैं तो अत्र साऐी मेरी क्यों नहीं? तर्क की दाप्टि 
से यह कहा जा सकता है कि यदि साफी एवं इसमें लगी गी गाँठ एक ही हैं तो () साफी के 
झने पर गाँठ भी बनी रहनी चाहिए या (॥) फिर साँठ के ने रहने पर साफ़ी की भी मृत्यु हो 
जानी चाहिए। 

उगेक्त दुष्ट्रान्त में साफी अस्तिल का प्रतीक है ग्रीर साएी में त्गी गाते जाग्रत 
ख़ान एवं सपप्ति नामक तीन अवस्थाओं की प्रतीक हैं। जाग्रत के चल जाने पर तम्हारे मृत्य 
नहीं हईं। खप्म के चले जाने पर भी तम नहीं मरे। सापप्ति के जाने पर भी तम्र बचे रहे 
तब में फ़िर इनकी (जाग्त, खप्न एवं सुपुप्ति को) में (अलिल) कंसे कहँ? यदि इन्हें 
(जाग्रठ, ख एवं सुपुप्ति को) में (अस्तिय) कहूँ तो इनके मे झने से मुझ्ने न हना 
चाहिये। पर इनके ने रहने पर भी मैं रहता हूँ। इसका सच्चा सवृत आप खबं हैं। 
अदृष्टमन्यवहार्यमग्नाह्यमलक्षणमचिन्त्यमन्यपदेश्यमेकात्म 
प्रस्थयसार॑ प्रपंचोपशमं शान्तं शिवमद्ेत॑ चतर्थ मन्यन्ले 
सर आत्मा स विज्ञेय: ॥ 

उदृष्ट, अव्यवहाय, अग्राह्मय, अलक्षण, अधिन्य, अव्यादेश्य, एकात्मप्र्यययार 

पंच का ग्रशम, शान्त, शिव, अंद्देत, - ये किसके नाम हैं? चौथे ग्रात्मा के! कौन- 
कौन से नाम? 'प्रपन्योपशमम, शान्त्मं, शिवम॥' इसलिये हम लोग बोलते है - शिवो5हम। 
आत्मा जिव है। आत्मा शान है। 


भात्मा का चतर्थ पाद- | ५५ 


3.६ ब्रह्माकुमारियों का दुणष्प्रचार एवं 
अद्वेलवाद सलथा शिवोछहम। 


ब्रह्माकमारियाँ कहती हैं कि ये शिवो5हम कहने वाले मनप्य आत्माओं को भटकाते 
हैं। वे उपनिष्दों का खण्डन करती हैं क्योंकि उपनिपढों में “जशिवो5हम'' की घोषणा की गई 
है। ज्रात्मा शिव है तथा अंदेत है। वहाँ देत नहीं है, नानत्व नहीं है। यहाँ (व्यवहार में) 
एक दूसरे का विगेध है। परन्त वहाँ (अध्यात्म में) कोई विरोध नहीं है। उसी का नाम चौथा 
है। चौथे का माम शिव है। जिस प्रकार आत्मा के तीन पादों - प्राज्ञ, तेजस एवं वेश्वानर 
को बताया उसी प्रकार चौथे का नाम अदैत शिव प्रपंचोपशमम है। उसके लक्षण क्या हैं? 
अलक्षण, भअचिन्त्मय, आदि। स्वप्मों का ख्याल आयेगा, औरों का ख्याल आयेगा, आत्मा का 
क्या ख्याल आवगा? आत्मा में तो सारे ख्याल आते हैं। इसलिये वह अचिन्त्य है 
अव्यवपदेश्य है, एकात्म प्रत्ययसार है। वह एक, सब प्रत्यवों का सार है, सब प्रतीतियों का 
सार है। प्रतीति सार नहीं है। वह प्रतीतियों का सार है। 


है; 


आत्मा का चतर्थ पाद-ता 





७.९ तुरीय को जानने की आवश्यकता 


पिछले अध्याय में उस मन्त्र का प्राम्भ किया था जो जीवन का लक्ष्य है। भरत ही 
प्राय जाग्रत की व्याख्या और विश्लेषण ने कर सके किस्तु जाग्नत के जगत को सब्र कृछठ आपको 
पता चल्ल रहा है। जाग़त में बह भी निश्चित है कि एके पेन जोर एक जड़ है। जड़ 
गापका भाग्य है, आग अ्र्वाति बेनन उसके भोक्ता हैं। जाग्त के भोग स्थ॒त्र हैं परन्‍्त भोग 
शाप रहे हैं - ऐसा आपको स्वयं लगता है। भोक्ता नहीं हैं - यह नहीं लगता। 'भोगते है 
- यह लगता है और इसीलिए कल्याण की, मोक्ष को इच्छा है। यदि जाग्रत के खल् शरीर 
एवं खत पदार्थों का भ्रापकों सुख न मिल्ला होता तो इसमें बेंधते नहीं। यदि इससे कप ने 
मिलता होता तो इससे छुटने की इचछछा भी ने करते। संक्ष् अवस्था में बह उस खप्म को 
देखता है और स्वम के हानि-लाम, संख-दख का अनुभव भी करता है। और वहाँ भी 
(सन में) ग्गने अलावा और भी कछ होता है। ख्बं आप होते हैं। उनमें अपने-पगए भी 
होते हैं। सुद्च-दुःख होते है। कभी-कभी जब युद्ध वाले की नींद टूटती है तो जाग्त अबस्था 
का लाभ तो होता है, परन्‍त सख के ने रहने का हल्का-ञ्वा कप्ट भी क्गता है। लगता है 
कि और थोड़ी दर सोए रहते तो अच्छा रहता। किन्‍न यदि नकसान बाला बंग खनन चत्त 
रहा हो और नींद टूट जाये तो बहत गहत मिलती है। तो नींद खत्नने का सबसे ज्यादा सख्त 
उसको मिलता है जो खण में दुखी होता है। इसीलिए भगवान कृण ने कहा है 
“जन्म-समुृत्यजराव्याधि दुःखदोषा:नदर्शनम' 
पहल जगत के दुखों को देखा। जिसने जगत में अप्ती देख देखने शर नहीं किये है, वह 
मुक्ति कैसे चाहेगा? उसे जगना पस्नन्द नहीं आपगा। जगत से हटना उसे अच्छा नहीं 
लोेगा। दुःख के बिना मुक्ति सम्भव कैसे होगी० इसलिए स्वप्म से मक्त होने का आनन्‍्द 
उन्हें ही मित्रता है जो खा्न में मर हे थे। खनन में कियी की मत्य हो री. हो, कोई गएडे 


ग्रात्मा का चतर्थ पाद-॥] ड़ 


लूट रहे हों, शेर ने घेर लिया हो और कहीं ऐसे में नींद टूट जाबे तो गहत मिलती है क्योंकि 
उस खष्म से मुक्त होने के लिए जाग्रत का सत्य ही पर्वाप्म है। उस खप्न से छटने के लिए 
आत्मा का ज्ञान जस्री नहीं है। इसीलिए उस खप्न के दुःख से छटने के लिए उपनिषद की 
भी जरस्त नहीं है। गुर की भी जरसत नहीं है। इस जाग्रत जगत की प्राप्ति होते ही स्वप्न 
से छटकास हो जाता है। यो तो जाग्रत के ज़गत से छुटकारा खप्म में हो जाता है। परन्त 
उस समय जगत से छुटकाग हो गया है - एसा किसी को नहीं लगता क्योंकि वहाँ भी जगत 
ही होता है और ह-वह ऐसा ही होता है। इसलिए मैं 'जाग्रत से छुट जाता हूँ या, छूट यया 
हूँ', ऐसा खप्न वाला कमी भी नहीं मानता। जाग्रत वाला 'खप्न से छूट सवा! ऐसा तो 
मानता है परन्तु 'ज़गत से छूट गया हूँ! ये स्वप्न वाला नहीं मानता क्योंकि उसको लगता ही 
नहीं कि यह दूसरे वाला जगत है। यदि वहाँ (स्वप्न में) लगने लग जाता कि 'एक जाग्रत 
जगत था, उससे मैं छूट गया हैँ” तो इस जगत से भी छुट्टी हो जाती। यदि इस जगत से 
छुटटी स्वप्न में हो जाती, और स्वप्न वाले जगत से छुटटी जाग्रत में होती तो शुम्भ-निशुम्भ 
की तरह हमें दोनों ही अ्वस्थाओं से मुक्ति मिल जाती। शम्म और निशुम्भ दो सक्षस थे 
शरीर ढेवी ने इन दोनों को एक-दूसरे से मस्वा दिया। फिर भी एक बात और बताएँ। वैसे 
तो स्वप्न जाग्रत को मार देता है श्रीर जाग्रत में स्वप्न की मौत का लाभ मिलता है, परन्तु 
स्वप्न में जाग्रत की मौत का आनन्द नहीं मित्रता। इसलिए जाग्रत की मृत्यु हमने आनन्द से 
कभी नहीं देखी। परन्तु जगकर ख्याल करने पर ईमानदार जाग्रत यह मान लगा कि 'यहाँ में 
नहीं धा।। मान लो ख्प्न में नहीं समझ आया तो जागने पर बह समझ सकते हो कि 
“ख़ान में जगत नहीं है।” स्वप्न नहीं है! यह जागकर अनुभव कर रहे हैं। पम्न्‍्तु, 

'खप्म में जगत नहीं है? एसा हम स्वप्न में अनभव नहीं कर रहे हैं। तो जागकर तो ये 
अनुभव कर सकते हो कि खप्न में यह नहीं था। पर जाग्रत अवस्था और ज़ाग्रत में इसी को 
“नहीं था मानें” यह ज़ाग्रत वाले को स्वीकार नहीं है। जैसे मेरे लड़के की शगरत और 
दूसरे लड़के की शगरत अलग-अलग होती है। मेग लड़का कम शगस्ती है, मेरे लड़के ने तो 
धोखे में एसी बात की है। मर लड़के ने शगब भी पी ली, चोगे भी की, गलती भी की पर 
क्षमा करन के योग्य है। और दूयर का? दण्ड के लायक हाता है। तो चूँकि जाग्रत में 
सोचना शुरु करें तों यह लगेगा कि जाग्रत जगत का कुछ भी स्वप्त में नहीं था। खन्‍्न में 
यह नहीं समझा कि वहाँ जाग्रत जगत कुछ नहीं है क्योंकि वह जयत का ही उप था। यहाँ 


हे पाल्िक्यायतिद 


(जब्त में) उसको (खा) इठा जान हता है, पर प्रयन ज़ाब्रत की झठाई को नहीं जानता 
शरीर ने मानने को तथार है. जबकि खण्म में वे (जाग) नहीं था। जाग थार ऋण मं यह 
विशयता है। वहीं काग्ण है कि जाग्त जगत के दलों थे हटने में कठिनाई पढ़ रहीं है। 


जी 


इसलिः चौथ पाद को जानना प्रावश्यक्र है 


७.२ चतर्थ पाद की महिमा 


यम पाद (ज़ाग्रत) में दितीय घाढ को (खान) जानो। सुपप्नि में प्रथम एवं 
दिनीय पाद नहीं गहे। एरनत खान है! - ऐसा नहीं जाना। चतर्थ पाद की ही यह महिमा 
है कि सब्र केठ सखवन हो जाता है। खान भी खान, जाग्रत भी खण, सर्पप्नि भी खून 
ब्रयति मेरे खवग्य में तीनों स्व है - जिस समय यह जान लिया जाता है तो समझना चाहिए 
कि चतर्थ पाद में, प्रात्म पाद में खग्प में जान ग। उपनिदद का कहे मल कि “ 
उन्लप्रज्मम" यही बताता है। जाग्त में खप्म नहीं रता, स॒ुपुप्ति नहीं मती। संपृप्नि में 
स्वप्न गीर जाग्त नहीं रहते। इसी प्रकार खान में ये ज़ाग्रत और सुपष्ति नहीं हती। इनका 
ने झना वागै-वाने से देखा है एर तीनों का ने झना अभी तक हमने एक झाथ नहीं देखा। 
असल में एक नहीं रहता नो एक सत्य हो जाता है। जब सवप्म नहीं रहता तो ज़ाग्रत सत्य 
हो जाता है। ग्रीर जब सपष्ति रहती है तो थे ढानों नहीं दिखते। अम्नल्य हो जाते हैं - 
ऐसा तो नहीं कह सकते किनन्‍्त खते नहीं हैं। स्रपृष्ति में थे नहीं रहते - यह बात विल्कल 
सच है। ग्पप्नि वाले को थे दोनों कठ पस्शान नहीं करते। उसे हूगता है कि में नींद में 
जगत भूल गया था, इसलिए देख नहीं हम्ना। पर इसको यह नहीं लगता कि पर्णानी तो 
सचमुच मं क्र्ठ थी ही नहीं। ग्रंखें सलन के बाद स्वप्न वाला व्यक्ति यह मानता है कि 
खन कृठ है ही नहीं। वा ता ब्ृठ है। वहाँ दुख नाम की काई बात ही नहीं है वह यह 
नहीं मानता कि “में भूल्र गया हूँ, ग्रज्ञानी हो गया हूं, इस्रलिए छप्त का दख नहीं गा! 
ग्रधति 'मैं कोई गलतफहमी में है, इसलिए खप्मों करा दख नहीं हो रहा - ऐसा नहीं 
मानता। जगत फएर लगता है कि में जानता हैं, वह तो झूठ था इसलिए दुख नहीं है। इस 
पुकार नींद वाला ब्यक्ित जाग्रत जगत के देख से तो छूट गया। परग्म्स गलतफहमी से नहीं 
छूटा। नासमत्नी से, भ्ज्ञानता से उसका छटकाग नहीं हथ्जा। जैसे हम खप्म से छट गधे 
एस ही यदि ज्रानपूर्वक जाग्रत से भी छुट के हाते तो सर्पाप्त ही समाधि कहल्ाती। 


आत्मा का चतुर्थ पाद-।] -छ्छे ९९, 


७०.3 सुष॒प्ति एवं सम्राधि में अंतर 


पहले पाद (जाग्रत) में स्वप्न के जगत की असत्यता जानी गई। दुसरे पाद में 
जगत की असत्यता जानी नहीं गई। तीसरे पद में दोनों नहीं रहते लेकिन उस समय जानने 
की क्षमता ही नहीं रहती। सुपृप्ति वाला भी ज़गत झूठा है, “'जाग्रत खप्न है”, “ख्प्न 
स्वप्न है” - सुपुप्ति वाला कभी ऐसा निर्णय नहीं समझता। सुपुप्ति में इस निर्णय की कमी 
के कारण ही हम उसको समाधि नहीं कहते। वैसे सुप्र॒प्ति समाधि जैसी ही होती है। परन्तु 
इन दोनों में थोड़ा सा अंतर है। सुपुप्ति में जगत का थोड़ा भी दुःख नहीं रहता। वहाँ खप्मों 
का दुःख, मेर-तेरे का दुःख इत्यादि कुछ भी नहीं रहते। परन्तु यह कार्य समझ्दारीपूर्वक 
नहीं हुआ। नासमज्ली में हुआ। इसीलिए कोई भी सुपुप्त पुछष जगकर भी अपने को मुक्त 
नहीं समझता। आत्मज्ञ नहीं मानता। ज्ञानी नहीं मानता। पर समाधि वाला व्यक्ति अपने 
को मुक्त मान लेता है। 


७.७ चलुर्थ पाद में प्रविष्टि के लक्षण 


कोई भी साधक (व्यक्ति) चतुर्थ पाद (आत्मा) में जाग्रत कहलायेगा यदि समझदारी 
पूर्वक उसके ख्याल में न नींद हो, न ज़ाग्रत जगत हो और न ही स्वप्न हों अथति जाग्रत जगत 
भी स्वप्नवत लगने लगे। नींद के दौरान देखे जाने वाला स्वप्न जागने पर स्वप्न लगता है। 
परन्तु जब जाग्रत भी मुझे स्वप्म लगने लग जाए तब समझना चाहिए कि मैं चौथे में जाग 
गया। चतुर्थ पाद में जगने की यह सही पहिचान है। 





७. प्र सजग बोधावस्था का साम वास्तविक समाधि हे 


जिस सुपुप्ति (समाधि) में जगत को होशपूर्वक झूठा जान लिया जाये (जानकर 
सुपप्ति का शब्द बोल रहा हूँ) उसी का नाम समाधि है। समाधि उजेला दिखने का नाम 
नहीं है। समाधि कृण्डलिनी ज़गने का नाम नहीं है। समाधि भगवान दिख जाने का नाम 
नहीं है, समाधि किसी चमत्कार का नाम नहीं है 


गत छांम्टक्या उपर 
नहा 


कस जग्नित ठेगाो में 





इसीलाः तथाकथित समाधि वाल हम वेब्कान लगते है। बस बस करके ध्यान 
प्रकरांग दिखे नया। अर्खि डसते अन्‍क परकाग हीं गा। समझ के देशन हो मय, घ्थान में 
भगवान विखे गए, - ये उच्छी स्थितियां है। में इसकी निम्दा नहीं कस्ता। थे स्राथक्र वह 
भाग्यशाली है जिनको ध्वान में भगवान दिखते है, अझ्दर्णन होते है, प्रकाश होता है, नाद 
सनाई देता है। इसका कोई विश्ध्न नहीं है। परन्‍न क्या वह समाधि है? झ्म्माधि तो व 
स्थिति है जहाँ आत्मा की सत्ता के उनिख्िति सत्र कठ मिव्या है ऐसा बोध्यर्वक समझ्न में 
वाव। ढथ्रात्मा के अनिस्कित अन्य कठ भी सच्या नहीं | वही श्ात्म-वोध है। 
सन देखा है - यह मन याद है। खप्न हा है - थे भी मद बाद है। पन्ने फिर भी कोई 
दुख नहीं, कोई चिन्ता नहीं। श्राम श्राठ्मी दाग देखे गये खान की नम्ह ज्ञानी भी यही 
समझता हैं के उनते मत्न दिखा था, जगने मत्र दिखता है, उसने मंत्र हा ह्गी है शरीर 
पहल से में इसके दुख ्रीर बन्धन देखता रहा हैं। प्र (बोध के बाद) थराज्ञ मेंर लिए दुख 
ग्रर बन्धन नहीं ह। इसी वाधावस्था करा नाम यम्राध्रि है, इसी का नाम गात्मबोध है। 
इसी का नाम तरीय है। इसी का नाम चौथ पद की प्राप्लि है। 


की. 


| 


५७.६. ज्ञान समाधि 


ज़ाग्त में विश्व की प्राप्ति, खा में तेज्नस की प्राप्ति: सपप्ति में प्राक्ञ की प्राप्ति 
इन तीनों का खप्नवत ग्रभाव देखना ही जान समाधि की स्थिति है।.. छप्मबन का अभिव्राय 
है कि जैसे व्वनत वास्तविक नहीं हैं, उसी प्रकार बह सम्पर्ण सष्टि माया-मात्र है, सगात्मक 
है, मेंग अतिरिक्त कृछ भी वास्तविक नहीं है, प्रहाँ ऐसा जाना जाता है उसी का नाम जान- 
समाध्रि है। 


४.५० जगत की अप्रतीलि एवं मोक्ष 


0० 


नढि में ठखे हट जिन छणा का हम भूल जाते है क्या उन्हीं से छठी मिलती है था 
सभी वाल्ना थे भी छठ मिलती है। उनने की स्मृति शने पर भी यदि 


३ 


पात्मा का चह्थ पाद-।। ५२ 


मेरे अतिरिक्त कछ नहीं है! ऐसा भी ज्ञान हो जाए तो छड़ी मिल गई। ने दिखना काई 
पटरी नहीं है। यदि न दिखने से छुट्टी मिली होती तो नींढ को मुक्ति क्यों नहीं कहते? 
यदि न दिखने का नाम मोक्ष होता तो सुपुप्ति भी मक्ति कहलाती। एर सुपष्नि को जहाँ 
ज़गत का थ्रभाव हों जाता है, हम मुक्लावस्था, ब्रह्म की प्राप्तावस्था, साक्षी की वोधावस्था 
हक 8 
निष्कर्ष यह है कि जगत की अप्रतीति का नाम मोक्ष नहीं है। आत्मा की सत्यता की भ्नभूति 
का नाम मोक्ष है। अर्थात जगत में थ्रात्मा की भ्ननुभूति का नाम मोक्ष है। 





६०.८: भाग्यशाली कौन? 


वे लोग भाग्यशाली हैं जो इस आत्मा की सत्यता को स्वीकारने के लिए मेहनत 
कस्ते हैं। में आपके भाग्य की सराहना करता हूँ कि आप लोग घर छोड़कर इस ब्रह्म विद्या को 
सुनने आये हो। क्या सब आ सकते हैं? क्या यह कथा सुनना सबको भ्रच्छा लगता है? 
वह जीव कितना भाग्यशाली होगा जिसको परमात्मा ने यह विद्या सुनने का अवसर दिया है। 
ज़ब इसे ध्यानपूर्वक सुनोगे और समझोगे तो आप स्वयं शपने भाग्य की सगहना करेगे। अंथों 
में तो नर-तन की बड़ी महिमा गाई है। मन॒प्य को बड़ा भाव्यशाली कहा है। परन्तु 
उपनिपद्‌ में वर्णित ब्रह्म विद्या को समझने वाला व्यक्ति मानव तन की प्राप्ति को, सत्संग 
की प्राप्ति को, संतदर्शन को, तथा अपने को भाग्यशाली झमझेगा। तम अपने को अभागा 
समझते हो। पर में भाग्यगाली कह रहा है। सन्त तम्हें बताते हैं कि नर-तन बड़े भाग्य से 
मिला है। परन्‍्त फिर भी कई लोग कहते हैं कि, “न जाने कौन-सा पाप था जो हम लोग 
मनुष्य वन गए। ने जाने किस घाप से जन्म हो गया।” दुर्भाग्य से मनुष्य तन को पाकर भी 
अपने को भ्रभागा समझने वालों की संख्या अधिक है। ध्यान रह क्रि भान्यशाली वही है जो 
अपने भाग्य को समझ सका। अभी भी शायद आपको अपने भाग्यशाली होने का भरोसा ने 
हो रहा हो। इससे ज़्यादा दुर्भाग्य क्या होगा कि इतना अच्छा सुनने को मिले, उपनिषद 
सुनने को मिले, आपको अपनी कंधा सुनने को मिल फिर भी हमें अपने भाग्यशाली होने का 
अहसास न हो। जो यहाँ कथा में नहीं आए या जिन्हें यहाँ श्राना अच्छा नहीं लगता वे तो 
भागे हैं ही, व भी अभाग ही हैं जिन्हें यहाँ आकर भी यह कथा अच्छी नहीं लगती। यदि 
समझ में न आये परन्‍्त सनना भ्रच्छा लगे तो समझ लो कल्याण होगा। बह वात ठीक इसी 


हर मािक्योपनियद 


प्रकार है जैसे किसी लद॒क का विवाह ने होने छे भी उसे बबती की चर्चा चलने पर सुश्री 
होने लगती है। 
जिस प्रकार विदाह के बिना चर्चा भी प्रद्छी लगती है उसी प्रकार बोध ने होने 
एर भी बोध की चर्चा तो अच्छी लगनी ही चाहित। जिसको बोध की पर्चा अच्छी लगती है 
उसको वाध होकर ही रगा। और मैंने थे देखा है कि जिनकी भाठी लोग नहीं करते तो 
बम्धन तोड़कर प्रमविवाह ([005० शायर) केने लगने हैं। वो सत्र नीति-अनीति को 
ताक में रख देते हैं। इसीलिए “मे कितना पढ़ा हैं, पनयद हैँ, मंत्र बह तर्क नहीं आता" 
ये सत्र बातें जिजाब साधक के लिये कोई महल नहीं रसती। मैंने एक कथा सनी थीं कि 
एक लड़के ने विवाह कर लिया। लोगों ने उससे एठा, “वागत कब गई थी?” वह कहने 
लगा, “बागत नहीं आई थी”। फ़िर पृष्ठा गया, “बाज कितने के आए?” उससे उत्तः 
दिया “बाते भी नहीं आए थ”। इस एर व्यक्ति कहते लगे कि, “हम यह नहीं मानते कि 
पादी हुई है।” बह बोला, “तुम ने मानों। फ हमारी शादी तो हई है। ताहारे मानने से 
क्या होगा? हमारी शादी हुई है - इसका आनन्द हमें मिल रहा है। हमें बाज की क्‍या 
आवश्यकता? ये तो बेबकफ़ लोग बाज से शादी करते हैं। बारात श्रात्वी है - इसका शादी 
से क्या सबंध है?” 
उसी प्रकार आप आत्मा हैं, इसके लिए दससें से प्रमाण-पत्र की क्या आवश्यकता 
है? आप इस सबके सात्ती आत्मा हैं। आपके रहते थे जाग्रत, खन्‍्न एवं स॒प्प्ति में सब झठे 
हो गा हैं। फिर भी आप जाग्रत को सत्य मानकर बेबकी क्यों करते हो? क्या पराग्त 
गेत् झठा नहीं होता रहा है? क्या जगत कै-हातिर नहीं हुआ? क्या ख् कै-हारि नहीं 
हुए? जब खन गैर-हाजिर होने से झुठा स्वीकार हो जाता है तो जाग्रत गैर-हाक़ि होने से 
बठा क्यों नहीं है? खप्न की तरह जाग्रत भी मिथ्या ही है। इस्र विषय में थोडा भी अंक 
नहीं है। फन्तु चूँकि प्राम्भ से ही जगत को सत्य देखते चले आए हो, इसलिए मन जूदी 
भरोसा नहीं करता। 


हज ७७७०७७४७७७/७/७॥७४४७/एशआ शक गा" यााभााााााभाणाकाक 


इसलिए प्ात्मा के ग्रतिरिक्त न जाग्रत सत्य है, न खन सत्य है, ने सपप्ति सत्य 
है। सदा रहने वाला आत्मा अधति मैं ख़यं ही सत्य हूँ। 


इसात्रए सत्य-नागयण कौन है? में खय। फरन्त ३ जान नहीं कहना। जा 
शिव भक्त हैं वे बाद में (आत्मा के जानने के बाद) कहेंगे 'पिवोंडहम"। प्रो नागयण के 


भक्त हैं वे अंत में नर से नागयण हो जायेंगे। साधना में श्राय जिसके भक्त हो गात्मा को 





आत्मा का चहरर्थ पाद-]] ५३ 


जानने के वाद आप वहीं हो जाओगे। बदि सत्य-नागवण के भक्त हो तो ब्रह्मज्ञान के बाद 
क्या हो जाओगे? नारायण। जो शिवभक्त हैं वे शिवो5हम। आप जिस भगवान को मानते 
हो आप वहीं भगवान हो जाओगे। सो5हम्‌ मंत्र का यही अर्थ है। इसलिये शिवो5हम वाले, 
सत्यनाराबण वाले, राम के भक्त या ब्रह्म के उपासक सभी सो5हम कह सकते हैं। 
क्योंकि सो5हम्‌ का अर्थ है कि जो वह है वही मैं हं। शिव की प्रधानता से शिवो5हम्‌ 
नारायण की प्रमखता से “नाराबणी5हम” और ब्रह्म की प्रधानता से “अहम वब्रह्मास्मि!। 
तो सो5हम क्या है? सोठहम्‌ कहते हैं कोई वाला हो सो5हम। 

दुराचार से जिनको उपरामता नहीं हुई, जो अपने कृकृत्यों से उपराम नहीं हैं उनको 
उपनिषद ज्ञान की पात्रता नहीं है। उनकों यह उपनिषद्‌ विद्या सनने का कोई अधिकार नहीं. 
है। कई कातिल, हत्यारे सनने आँए्गे तो कहेंगे - सव भगवान की ही कृपा से होता है। 
हम भी तो भगवान की ही कृपा से इन कमों में लगे हैं। ये सनने के पात्र हैं? ये सनने के 
पात्र नहीं हैं, ये तो दण्ड के पात्र हैं। इनका इंतजाम सरकार के पास भी नहीं है। कानन 
तो कमज़ोरों के लिए बनाए जाते हैं। ताकतवर तो कानून तोड़ते हैं। जैसे मकड़ी का जाला 
छोटे कीडों को फँसा लेता है परन्त बड़े लोग तो ब्लाइकर जाले ही फेंक देते हैं। उसी प्रकार 
राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली लोगों से संरक्षण प्राप्त बड़े-बड़े अपराधी लोगों का 
कानन भी कछ नहीं विगाड पाता। ऐसे लोग कानून को ताक में रखकर लूट रहे हैं। इनके 
लिये जेल आदि मात्र दिखादा है। ७ उ_उ_॒_ 
विभिन्‍न अपराधों में लिप्त राजनेताओं एवं बड़े अपराधियों को बरी होता देखकर न्यायालय 
अनयायालव लगते हैं। मैं मानता हूँ कि न्यायालय की अवमानना नहीं करनी चाहिये। परन्तु 
कई जमीनों के झगड़े एवं आपराधिक मामले ले देकर छोड़ दिये जाते हैं। क्‍या ऐसे 
न्यायाधीशों के विरुद्ध गलत निर्णव देने पर उचित कार्यवाही होगी? 






यह जगत सत्य हैं। हम कहेंगे बह रहता ते न 
अपने विवेक से भी आप इस अनुभव को कि 'यह रहता नहीं है? स्वीकारते नहीं हो। क्यों? 
क्योंकि इसके पकड़ने का चस्का आपके मन में लगा है। हम जानते हैं कि चोरी नहीं करनी 
चाहिए। पर मन नहीं मानता। हम जानते हैं कि पर-स्त्रीममन पाप है, बलात्कार अच्छा 
नहीं है। परन्तु फिर भी तीन साल, पाँच साल, छः साल की बच्चियों के साथ बलात्कार के 
जधन्य अपराध हुए हैं। उनके अंग विगड़ गए, फट गए। खून निकल आया, मर गई, जीभ 
निकल आई, नाक से खून निकला। तीन-तीन वर्ष की कन्याओं की रीढ़ टूट गई। क्या ये 


प्र माहसाम्रानदद 


किसी आठमी के लक्षय है? मक्ढ़दमे यल्न रे है। फैसले हो रहे है। इसलिए जैसे वहाँ 
हम सोच नहीं पाने, ऐसे ही हम ऋषि वचन सनते समय भी सोध नहीं पाते। हमाग 
कामना, हमास प्रज्ञान, हमारी परवंधान्णा, पूर्व प्रतीति, पर्व-निम्धब बाधा बनते है। आप बह 
मानते हो कि हम वात ठीक कहते है। बल्लान्कारी, घोट, नेता आदि सभी मानत हैं कि जा 
वे कर रह हैं वह ठीक़े नहीं हैं। पर अपनी पार्टी के किसी बहमान को काई हटाएगा? 
बल्कि यदि अन्य कोई वईमानी के मामलों छो उठाता है तो पार्टी वाल उत्तका पन्न लत है। 
इसलिए बेईमानी, खार्थ, पजानता शोदि के कास्ण कह्याण में बाधा है। 
ध्र्थ्राप मंत्र के गान प्रजम के भाव को समग्नन का प्रयास करें। खन्‍्मावस्था में 

बाप था इसमें दो गय नहीं हैं। बाकी खमावस्था का सत्र कृछ झूठा था। वहाँ का ज्ञान 
भी, वहाँ के जब भी, वहाँ के दृश्य भी, वहाँ का द्रप्टा भी, वहाँ के जीव, घोड़, गधे, 
बच्चे, स्त्री, पति, थ्राठि की नाना आत्मा भी, सब्र कठ झठ था थे सर मिलते थे। पर 
उनमे सत्य कितने निकले? केबल आप। परन्‍त स्वप्न वाले वे आप भी नहीं। झ्वष्न वाला 
तो आप भी गया। और उस समय जो था वह अभी भी है। अवश्य कोई एक है। उसकी 
एहिचान भल्ने ही ग्रभी नहीं हो रहीं। पर्न्त वह है अथवा नहीं? जो खप्म में था वह अभी 
है? वह कया है? ऐसा। ऐसा भी नहीं है, वैसा भी नहीं है, लेकिन गढ़बड़ क्या है? अब 
ऐसा लगता है। उस समय आपका श्रत्मा वैद्या लगता धा और दुनिया लगती धी। इस 
समय उसी श्रात्मा को गब बह ऐसा लगता है शरीर यही लगता है। जब वह चला जाता है 
क्या लव आत्मा नहीं झती? वह कसी हती है? हख्वी, चौड़ी, पतली, माटी, 
दुखी, सुखी? पहा! वह आत्मा उबर भी रहती है। परन्तु आत्मा भैसी जाग्रत में लगती है 
वेसी नहीं है। जैसी खप्म में लगती है, वैसी भी नहीं है। नींद में में अज्ञानी हो या था। 
एरन्‍त आत्मा वैसी भी नहीं है। फिर भी नींद में आत्मा अज्ञानी लाती है। उपनिषद कहता 
है कि सपष्ति में (जिसे प्राज्ञ कहते है) एसा लगता है कि मग्मे ज्ञान नहीं रहता। स्वप्न उसे 

सत्य लगने लगता है। पर जाग्त में आने पर उस ख्म मठा लगाने लगता है। हमें यह 
स्वीकार करने में कोई आर्पनि नहीं है। हम यह क्यों कहें कि ऐसा नहीं होता है? इसलिए 
उ्रनिषद ऐसा क्ठछ शात्रह नहीं करता कि 'सपप्ति में ऐस्रा नहीं होना चाहिए. ख्म सच्चा 
नहीं लगना चाहिए, जागन पर ही झूठा लगे।' बह कहता है कि 'जागन पर झूठा झ़गत्ा है, 
खान सख्त में बुठा नहीं क्गता।' इस प्रकार जो लगता है उपनिषद्ध वही कहता है। 


आत्मा का चतुर्थ पाद-]] (५ 


५९.० ज़ायम्रत में ही आल्मा को समझना छिे 


अब आत्मवोध के लिए क्या उपाय करना है? आपने स्वप्न को स्वप्न जाना, परन्तु 
कब? जाग्रत में। इसी प्रकार सुपुष्ति में ज़गत का अभाव हुआ - यह ज्ञान कब हुआ? 
जाग्रत में। स्वप्न अथवा सुपुप्ति वाला यह नहीं कह सकता कि, “अब ज़गत नहीं है।” बाद 
में (जगने पर) याद करता है कि नींद में कोई दुःख नहीं था, सुख से सोया था, जगत नहीं 
दिखता था। सुपृप्ति की प्राज्ञावस्था का विशेष अनुभव, स्वप्न की तैजस अवस्था के अनुभव 
ज़ाग्रत में ही समझ में आते हैं। इसलिये जाग्रत की वास्तविकता को भी जाग्रत में ही 
समझना है। अधति आत्मा की वास्तविकता को भी ज़ाग्रत में ही समझना है, समाधि में 
नहीं समझना। असल में तो समझने को ही समाधि मानना है। इसलिए__ 
वेदान्त ध्यान समाधि का विरोधी है। वेद्ान्त किसी चमत्कार को 
देखकर उसके रस लेने का विरोधी है। वेदान्त तो इस सत्य की 
समझ को ही समाधि मानता है। 
इसलिये में प्रायः कहता हूँ कि भगवान कृष्ण ने ज्ञो समझ अर्जुन को दी उस समझ 
की समाधि यद्॒ में भी रहेगी, कार्य करते समय भी रहेगी। उनकी समाधि ध्यान वाली 
समाधि नहीं है। जो लोग ध्यान को समाधि मानते हैं वे शिकायत करते हैं कि वह रहती 
नहीं। परन्तु जो सत्य के निश्चय को ही समाधि मानते हैं उनका सत्य निश्चय सदा रहता 
है। उनमें सत्य की निष्ठा सदा रहती है। वे ऐसा कभी नहीं सोचते कि, “मैं दिगढ़ गया 
था।” उसी प्रकार ज्ञानी के ख्याल में कोई बरी कल्पना आ भी जाये तो कहेगा, “कल्पना 
थी। असल में कोई गड़बड़ नहीं है।”” 










था। फ स्वप्न था।' 





इस प्रकार तत्त्ववेत्ता उत्पन्न हुए विकार अथवा उत्पन्न हुई विषम परिस्थिति के विषय में पृछने 
पर कहेंगे, “हाँ, कल्पना में थोड़ी हुई थी।, पर यह कल्पना ही है। मेरे खरप में ये कृछ 
भी नहीं है” इसलिए आत्मवत्ता समाधि अथवा ध्यान के न रहने पर भी दुःख नहीं मानता। 
“समाधि वनी रहे” - इसकी पिन्‍ता वह नहीं करता। इसलिए आत्मवोध परम-समाधि है। 


(| माकपा 


शात्ञ आआत्मवोध पे किसी का जोर नहीं है। भात्र थ्थान करने बाले अधिकांश लोग 
आत्मबोध पर जोर नहीं देते, समाधि फ जोर देते है।यह उपनियद झम्माधि फ जोर नहीं 
देता, आत्मवाध पर जार देता है। प्रात्मवोध बक्‍्ति का निश्चित करता है, निदल्दु कसा है 
देत का बोध कगता है। इसलिः इस उपनिषद में नाम्तप््रमा द्वाग यह बताया गया है 
कि यह श्ात्मा मउन्तपत्ञ की कह नहीं है। व्योकि वह 'खमावस्था' चल्ली गई।। मात्र लो 
प्रिट्टी का गोला बनाया। इस पर हम कहँगे कि मिट्री गोत्र नहीं है क्योंकि गोलाई रहती 
नहीं, जबकि मिट्टो रहती है। इसी प्रकार मिट्टी की लाखाई रहती नहीं, जबकि मिट्टी रहती 
है। फिर हम लम्बाई को मिद्री क्यों कह? हम चौकोर को मिट्री क्यों कहें? छोटी को 
मिट्टी क्यों कहें?  प्रिद्टी छोटी नहीं होती। कं छोटा है। कण में मिट्टी तो वैसी ही है। 
पृथ्वी बड़ी है, ठेला छोटा है, कण और छोटा है। फिर कण में कितनी मिट्टी? 50 %? 
नहीं। देले में? और पत्ती में? सब्र मिट्ठी ही है। इसी प्रकार 50% आत्मा कहीं नहीं 
होती। होती तो सेंट-परस्मेंट है। पर अर लगने के कारण, पर्माण लगने के कारण कहीं 
छोटी लगती है, कहीं वही लगती है। मिट्टी कहीं छोटी और कहीं बढ़ी? वैसे छोटा सोना 
किस भाव होता है? बड़ा सोना किस भाव होता है? तो मैं भाव की बात कहता हूँ। 
एक किल्लो सोना, एक छताँक सोना, एक कुल्तल सोना किस भाव? एक ही भाव विका। 
एक कन्तल सोने की बिक्री से कोमत बहुत मिलेगी। पर रेट क्या था? स॒प्ति का जो 
प्राज्ञ है वैसी आत्मा नहीं है। वहाँ अज्ानता थी। उसे त्गता था कि मम्मे ज्ञान नहीं रहा। 
स्व में खप्न सच्चा लगता था। इसलिये घीधा ऐसा भी नहीं है। जाग्त में यह (खुल 
जगत) सच्चा लगता है, इसका भोक्ता है - आत्मा ऐसी भी नहीं है। धोड़ा अ्नमान ल़गाऐँ। 
अब एक-एक अवस्था छोड़कर एक-एक का गण लेते हैं। यदि तहना करनी हो 
तो हम कह सकते हैं कि वह आत्मा ऐसी है शैसे ख्म से छता हआ्ा जाग्रत। अर्थात जैसे 
जाग्रत व्यक्ति खन से छट जाता है। यहाँ, जाग्रत को परकइने वाल्ला हिस्सा नहीं लेगा। 
जगने वाले के लिए ख्म कैसा होता है? कितने प्रतिशत सत्य होता है? खम की 
कितनी चीज़ सच्ची होती है? थोड़ी भी नहीं। तम्हां? अतिरिक्त कछठ सच्चा नहीं है - 
लगभग आत्मा इसी प्रकार की होती है। इसी प्रकार जाग्रत जैसी भी वह नहीं है क्योंकि वहाँ 
भी ख् है। फिर आत्मा कैसा होता है? जैसे ल्लभग प्रात्ष वा सपात्ति वात्ना होता है। 


एर वहाँ भी थोड़ी कप्ती है, वहाँ आज्ञानता होती है। इसलिये तीनों अवस्थाओं के कठ्त-कंछठ 
गण लकर आम्मा को ग्मन्ना एवं झाप्ट किया जा सकता है। 


आत्मा का चतर्थ पाद-]] 


| कण] का कला है? 















जाग्रत जागने, स्वप्न एवं | जगत का सत्य | “जगत प्रतीति मात्र 
नींद तीनों की । लगना है। इसका अस्तित्व 

जानकारी एवं वर्णन नहीं है क्योंकि यह 

इसी अवस्था में टिकता नहीं है” यह 

किया जा सकता है। समझने से जाग्रत ही 

समाधि हो जायेगी। . 

ख्प्न जगत की प्रतीति | ख़प्न के दौरान | गाने पर जैसे खप्न 


















खप्न में द्वेखा 
गया जगत सत्य 
लगता है। 


अर्थात जागने पर 
स्वप्त का देखा हुआ 
जगत मिथध्या लगता है 


का जगत (दृश्य 
आदि) मिथ्या लगता है 
उसी प्रकार ॒आत्म- 
बोध द्वारा जगत के 
मिथ्यात्त को स्वीकार 
करना है। 





















जगत का अभाव 
जाने से वहाँ कोई 
कष्ट नहीं रहता। 
आनन्द का अनुभव 
करता है। 


अज्ञानता अर्थात 
वेहोशी वहाँ रहती 
है और साक्षी 
(आत्मा, का 
कोई बोध नहीं 
होता। 

प्रत्येक अवस्था में उसके गुण को बनाये रखना है और दुर्गग को छोड़कर अन्य 
अवस्था के गण को अपनाना है। उदाहरण स्वस्प ज़ाग्रत की भ्रच्छाई यह है कि इसमें होशपन 
रहता है। यहाँ तक कि नींद एवं सपनों तक के अनभव भी ज़गने पर ही बताये जाते हैं। 
परन्तु इसका ढुर्गुण यह है कि ज़गते ही जगत सत्य लगने लगता है। यहाँ की चिन्तायें, मान- 
अपमान, राग-देप, आदि विक्षेप पैदा करते रहते हैं। इसलिए जाग्रत में स्वप्न के इस गण को 
कि जगत प्रतीति मात्र है। यह टिकता नहीं है" को ग्रहण करना है। 







अचेतावस्था को छोड़ना 
है और ज़ाग्रत के 
होशपन से आत्मनिर्णव 
को स्वीकारना है। 









पद पलक्योर्गनाद 
! + 


खफावस्था में जो पंजानी, विकार, किन्तोयें थी, जानने कर उनसे सहत मिलती है 
क्योंकि उगने पर यह ज्ञान होता है कि स्वप्म का यह छत्र कठ बहा था। इस प्रकार जगन 
ए खण वाली समस्या का समाधान हो जाता है। ु 

जाग्त जगत में मनाथ नेक प्रकार की चिन्ताओं, ईर्खा, गग-देप, भय थश्रादि ले 
ग्रस्त रहता है। एरन्‍्त जाग्त के इन झ्र कंप्टों का निगकेस्ण नोंद में हो जाता है। सुप्ठन 
में कोई भी हमसे श्आशीर्वाद नहीं माँगता। वहाँ भगवान से ख्याल रखने की कोई प्रार्थना नहीं 
करता। फरम्त वहाँ भी एक कम्मी है कि सब कप्ट जानने पर ज्यों के त्यों निकान्न शत हैं। 
ये भेर-तेरा, ईर्ष्या, राग-दुष, बिन्ता श्रादि सब ज्यों के तो निकल प्रात हैं। ग्राज् में एक 
अश्ानता की ही कमी थी अन्यथा आत्मा वहीं मित्र जाती। 

जैसे खप्न से छटन पर था छानों के चले जाने फर जाम्त में खप्नों के कष्ट से 
मक्ति मित्र जाती है, यदि जाग्रत में ज़ाग्रत जगत के कष्ट नहीं लगते होते तो आय आग्रत मं 
भी मक्त हो गये होते। परना खनों के छुट जाने पर जात का स्थापा शुर हो जाता है। 

ठुसलिये यदि समाधि ने लगे तो एक के दर्गण का दुसरे के गण से समझौता 
कंराओ। जाग्रत में सर्पाप्त का गण ले लो श्र ज़ाग्रत का दुर्गग छोड दो। सुप्रष्ति का गृण है 
- जगत का अभाव अर्थाति जगत को ने होना। संपप्ति का दीप है - बहाश होना। जगत 
के गण 'होश खना' रख लो और संपष्ति का गण 'ज़गत कछ भी नहीं है' रख लो। एसा 
करने से जाग्रत ही समाधि हो जावेगी। 

सप्न की यह विशेषता है कि जागने पर इसका लेशमात्र भी नहीं बचता। अत 
“ख़ के झठेपन का गण” ले लो। स्वप्म का एक दर्गग भी है कि वह दिखते समव सत्य 
लगता है। परन्त जागने पर पता चलता है कि वह सत्य नहीं था। 

कठिनाई यह है कि व्यक्ति ख़प्न के विषय में तो यह मानने को तैयार है कि 
“वहाँ जगत प्रतीत होता था, पर वास्तविक नहीं था", परन्‍त, कहीं यहाँ भी एसाहीन 
हो - ऐसा नहीं स्ोचता। उसकी (खप्न) वहाँ प्रतीति ही नो थी। सब तो वह है कि 
इसकी (जाग्रत की भी) यहाँ प्रतीती ही तो हो रही है। वहाँ अनेक जीव थे। यहाँ भी हो 
ऐसा ही न हो कि केवल आत्मा ही सत्य हो और सब गण हो। मरने पर हमे लोग यह 


बोलते है कि “राम नाम सत्य है”, सत्य बोलो गल्य है। साथ में इतना और बोलना चाहिए 
कि “और सब गए्य है।! 


: ग्रात्मा का चतुर्थ पाद-॥] (५ 


७०.९० जगत के सफमिशथ्यात्व को समझने में 
स्वप्न की उपयोगिता 


भगवान ने स्वप्न अकारण यूँ ही नहीं बनाए। उस तुरीय में, चौथे में सब (स्वप्न) 
यूँ ही नहीं खड़ा किया। इसके पीछे भी हेतु है। तत्त्ववेत्ता खप्न के बिना सत्य को प्राप्त 
नहीं हो सकता था। वह यह भगेसा ही न करता कि असत्य भी दिखा करता है। असत्य 
की भी प्रतीति होती है - ऐसा कोई नहीं मानता। यदि एक बार भी रस्सी में साँप न दिखा 
होता तो हमें धोखा होने पर भी कोई हमारे धोखे की वात को सच नहीं मानता। सैंकहों 
वार धोखा खाने के कारण हमें धोखे से सावधानी आई है। धोखा भी जररी है। इसलिए 
हम धोखे का एक अर्थ और करते हैं कि जब आदमी बहुत वार “धोखा खा ले” तो फिर 
श्रादमी इसको “धो कर खाता है।” एकाध बार गन्दी चीज़ खा ले तो लोग सावधान होकर 
धोकर खाते हैं। हम दर्पण में धोखा खा जाते हैं - लगता है उधर भी एक कमरा है। इस 
जीवन में न जानें कितने धोखे खाए और स्वप्न में तो गेज़ खाते हैं। क्या ख्प्न का धोखा 
खाना बन्द हों गया? नहीं। ख्प्न में बहत बार धोखा खाया। वहाँ दिखने वाले को सत्य 
देखा और उस समय दःख-सख मानते रहें। अब भी इस ख्प्न से शिक्षा लो कि वहाँ 
दिखता था, पर था नहीं। पर यह ज़ाग्रत वेईमान वहाँ के (स्वप्न के) विषय में अथति स्वप्न 
की असत्यता को तो सोचता है, पर यहाँ के (जाग्रत जगत के) विषय में अर्थात्‌ जाग्रत के 
मिथ्यात्व को नहीं सोचता। यही बेवकूफी है। यह (जाग्रत) दूससें (स्वप्नों) को तो कहता है 
कि इसमें त्रटि है परन्त अपनी नहीं कहता। दुसरे साध बदमाश हैं, वेईमान हैं, लफंगे हैं 
जबकि वही वबेईमानी तृ भी कर रहा है। अन्य साध तो धन्धा कर रहे हैं और त्‌ क्या 
परोपकार कर रहा है? सारा समाज भ्रष्ट है और मैं? क्या आप हो ईमानदार? नहीं। 
यही बेईमानी है। ये बहुत चालाकी-पूर्वक वेईमानी है। ये सावधान चतर वेईमान हैं। 
सुपुप्ति में न रहना देखा। र्वप्नों को झूठा देखा पर अमी भी यह (जाग्रत वाला) झठा है - 
यह मानने को तेयार नहीं है। यह भी नहीं रहता, फिर भी इसे (जाग्रत) सच्चा मानते हों। 
अब यह कौन समझाएगा? स्वामी पस्मानन्द। समझने को तैयार होगे तों समझोगे। यदि 
आप अपनी ही समझ को सही मानते जाओगे तो क्या समझ पाओगे? 
एक गाँव में किसी के मकान की छत का पानी दुसरे के आँगन में गिरता था। 
उन्होंने कई बार अनुरोध किया, “भाई अपने पानी को अपनी तरफ गिसओ, यह हमारे आँगन 


६१ प्रादक्ायतिद 
में मिस्ता है।” पंचायत बुलाई गई। पंचों ने भी यही कहा कि, “भाई! ये गलत है। 
आप भ्रयनी छत्त के घानी का हाल अपनी तरफ करे”, थागन मे जिसका पानी गिस्ता था वह 
जोग्दार वहत था। पंचों की बात पर वह कहता है, “पंच तो बात सही कहते हैं, पर नाता 
इधर ही गिग्गा।” तो उपनियद्र तो सही कहते हैं, स्वामी पस्मानल्द तो सही कहते हैं. फ्र 
जगत सत्य है। तो जबर्दस्त कौन है? प्ज्जानी। वह अन्य किसी की सुनता ही नहीं है। 
कितना सम्झाशो, समझ में नहीं गरता। क्योंकि वासना समझने नहीं देती। खार्य अंधा कर 
देता है। इसलिए पंचायत की बात कोई नहीं मानता। ख्वार्थ, कामना एवं वासना ग्रादमी 
को अंधा कर देती है, इसलिए कहा है कि - 
“म्रत्र हदढया ना चेत, जो व॒ुझ मिलहिं विरंचि 
समा।” 

यदि ब्रह्म के समान भी गुझ हों तो भी मुर्ख नहीं समझता। कई बार वेचारी 
पलियाँ अपने पतियों के लिय्रे हमसे कहती हैं, “इन्हें समगाग्रो।” परन्तु थे लोग घल्वात्ी 
की तो सुनते ही नहीं, हमागे भी नहीं सुनते। पत्नियां कहती हैं, “महाराज, क्या करें? 
नरक बना है, ग्राप कृछ्ठ कर दो एम्न्तु वे नहीं समझते। कई शत पीते हैं। घर बखाद हो 
23 परन्तु फिर भी महीं सुनते। श्रब इस प्रकार की प्रवृत्ति वाले लोग भोक्ष की चर्चा को 
स॑ सुनंग? जब शराब छोड़ना नहीं सुनाई देता, खार्थ के कारण राष्ट्र-हित्त नहीं दिखता, 
अपने कर्म नहीं दिखते, अगने ख्ार्थ में इतने पंध्े हैं कि अपनी इज्जत की भी कई बार 
पखाह नहीं रहती, तो ये ब्रह्म की कथा कैसे सुनेग? क् | 
'नाविरतो दुष्चरितान नाशान्तो सासमाहितः' 

आय समझें कि वह (आत्मा था तुगीय) अन्तर नहीं है। “जो अन्तग्ज्ञ था, 
जैसा उस समय लगता था”, ऐसा आत्मा को नहीं लगेगा अपितु ज़गकर जैसा स्वप्न लगता 
था वैसा अनुभव करेगा। परन्‍्त तब दूसरी समस्या पैदा हो गई कि जगत सत्य लगने हगा 
था। समाधान तो तब होगा कि जाग्रत जगत भी खत लगने लगे। संपीक्त में जगत का 
अभाव था वर्थात वहाँ जगत दिखना बन्द हो गया था। यहाँ (जग्रत का) जगत दिखना बन्द 
ने हो, पर मन भीतर वैसे ही हो जैसे सोया हुआ होता है। सोए हुए की तरह निश्चिन्ततो 
जिसमें है वही तरीय है। है ट 
तुरीय मं प्रवेश कैसे होगा? निषेध के दाग। बहिप्रन्ञ अन्तग्रन्ञ एवं प्राज्ञ का निषेध 


करके। जैसे अन्तग्रत्ञ का निषेध जाग्रत में हुआ, वहिप्मज्ञ का नियेध ख़प में हुआ। वहाँ 


श्रत्मा का चतुर्थ पाद-।] . ६१ 


निषध किया नहीं अधित हो गया। अधथति विवेक से हमने वहाँ कोई निषेध नहीं किया। 
प्रकृति के नियम से स्वप्न का निषेध जाग्रत में हो गया और जाग्रत का अभाव स्वत में हों 
गया। इन दोनों (जाग्रत तथा स्वप्न) का अभाव नींद में हो गया। इसमें हमारा कोई 
एस्पार्थ नहीं लगा। हमार पुरुयार्थ तो है कि इन तीनों की इस बात (अभाव) को समझकर 
चौधा एक निर्णव करे कि ये सत्र (जाग्रत, खप्न एवं सपुप्ति) खवत ही हैं। 

एक भक्त ने एक महात्मा को आमंत्रित किया। सन्त भोजन करने आए। जब 
भोजन करने बेठे तो भक्त ने एक अन्य साध की प्रशंसा कर दी। इस पर भोजन करने वाले 
साध ने कहा “उस साध की तम प्रशंसा करते हो? थे तो ऐसा है, पैसा है ठग है...... 
ब्रादि कहने लगा। अगले दिन दुसरे वाले को निमंत्रण दिया। पहले वाले साधू चले गये। 
उनसे उनकी प्रशंसा कर दी। तो वे कहने लगे, “अरे! वो तो ऐसा है, वैसा है उसको तुम 
अच्छा कहते हो?” एक दिन उस भक्त ने दोनों को एक साथ बुला लिया। पहले वालों ने 
उन्हें 'बैल' कहा धा। और दूसरे वाले ने उन्हें 'गधा' कहा था। तो बैल और गधे को 
निमंत्रण दिया और घास-भूसा की तैयारी कर ली। जब दोनों बैठ गये तो उनके आगे घास- 
भूसा डाला। इस पर दोनों क्रोधित हए और कहने लगे, “आप हमें बैल समझते हैं। हमें 
आप गधा समझते हैं।” भक्त कहने लगा, “हम तो नहीं समझते। आपने इनको समझा है। 
इन्होंने आपको समझा है। मे तो कोई समझ है ही नहीं। हम तो साधू समझते थे। इन्होंने 
जो समझाया वहीं हमारी समझ में आ गया।”” 

इस प्रकार जाग्रत ने स्वप्प को समझावा। नींद ने ख्न तथा जाग्रत को समझाया 
और ख्प्न ने जाग्रत को समझावा।, एक-दूसरे की समझ से हमने मान लिया कि सब मिध्या 
है। हमने सबको मिथ्या कैसे जाना? इन्हीं के कहने से। ये तीन अवस्थाएँ न होतीं तो 
हम कभी ज्ञानी न होते? ये निमंत्रण करने वाले भगत तब समझदार हुए जब उन्होंने एक-दूसरे 
को समझा दिया। एक-दसरे के द्वारा ही हम आत्मा को समझने में सहयोग प्राप्त करंगे। 
इसलिए ये तीनों पाठ आत्मा के समझने के लिए बहुत आवश्यक हैं। 


हु 
चतुर्थी पाद को समझने की प्रक्रिया 


ए.१ उपनिषद्‌ का प्रयोजन 


उ्रनिदद्‌ किसी शक्ति की कथा नहीं कहता। उपनियद्‌ किसी सामान परिस्थिति 
अदवा ग़बस्था मात्र की चर्चा नहीं करता। उपनिषद का प्रयोजन उस सल की चर्चा करना है 
जिसे सुनकर व्यक्ति के जीवन की सभी समझाओ्रों का समाधान हो जाता है। अन्य विषयों 
की भंकाओों को समाधान एक विषय है और उपने जीवन की समस्थाज्ञों का सम्राधान विल्कल 
बलग विषय है। जीवन में बहुत संशय होते रहते हैं, शक्ति उनका भी समाधान करता है। 
एस्तु उपने जीवन के मुल्रभृत प्ण्नों जैसे मरने के वाद क्या होता है?, ग्रह जन्म क्यों होता 
है?, यह जगह क्या होता है?, में क्या चीज़ हूँ? इन सभी प्नों का समाधान उपनिषद 
करता है। 


प.२ चतुर्थ पाद को समझने में तीन पादों 
की उपयोगिता 


भ्रत्मा के तीन पदों का वर्णन किया जा चुका है। चतुर्थ णद का वर्णन चल रहा 
है। इस चतुर्थ पाद में तीन पादों का स्मरण रखना ज़र्यी है। यहाँ पर एक प्रश्न उठ सकता 
है कि यदि आत्मा अ्य्वा तुरीय को ही बताना था, तो तीन पदों को बताने की क्या 
आवश्यकता थी? तुरीब तत्त में ये शब्द श्राद्म है 'चर्र्थम मन्यन्ते सात्मा सविज्रेयः- अर्थात 
तुरीव वा आत्मा ही जानने बोय है। परन्तु उपनिषद्र ने विश्व, तैज़स और प्राज्ञ से ज़नाना 
भर किया। जब जानने योथ एक चतुर्थ शर्मा ही है तो प्रास्भ से ही उस्ती की कथा क्यों 
नहीं शुर की? मान लो आप किसी से खाम्ी परमानन्द का परिचय पष्ठो और वह देने राग 
जाए मेरे आप्रम का परिचय, चेत्नों को परिचय, जमीन-जायदाद का एर्चिय। झशा यह परियय 


चतुर्थ पाद को समझने की प्रक्रिया ६३ 


भी मेरे परिचय में कृछ उपयोगी हैं? यदि है तो देना चाहिए। यदि मेरी फोटो लेनी हो और 
फोटो खींचना शुर कर दिया हो पहले मेरे एक चेले का, दूसरे चेले का फिर तीसरे चेले का। 
साथ ही कहे कि हमें स्वामी परमानन्द्ज्ी का फोटो खींचना है। यह उपनिषद की कथा इसी 
तरह विचित्र है। जानना है उस दिशद् तरीय आत्मा को और परिचय जाग्रत अवस्था तथा 
उसक लक्षणों सं कराया। तत्यश्चात स्वप्न के तेजस की पहिचान केगई! फिर सप्रष्ति के 
प्राज्ञ की पहिचान कराई। परन्तु पहिचान तरीव की करानी है। ऐसा क्यों किया गया? 
क्योंकि हम उसका सीधा परिचय नहीं करा सकते। इनका (विश्व, तेजस तथा प्राज्ञ) परिचय 
करने के बाद हम कह देंगे कि यह (जाग्रत) आत्मा नहीं है, यह (स्वप्न) आत्मा नहीं है, यह 
(सुपुप्ति) भी आत्मा नहीं है। इससे आप आत्मा को जान जाएंगे। यदि इन तीनों का 
परिचय श्षात्मा के परिचय से संबंध न रखता होता तो भी इन तीनों का एरिचय नहीं देते। 
यदि चौथा तीन से विल्कूल भिन्‍न होता तो फिर या तो इसका सीधा परिचय देते या फिर 
उसका परिचय हो ही नहीं सकता था। 

उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति मेरी एक छाथा की फोटो खींचे। फिर दूसरी छाया 
की खींचे। फिर तीसरी छाया की खींचे। जैसे शीशे में मेरा फोटो खींचा जाएं। तदुपसन्त 
व्यक्तियों को पहली छाया वाला फोटो दिखाया जाये कि यह स्वामी परमानन्दजी का एक स्प 
है। फिर दूसरे वाला दिखाया जावे कि यह भी स्वामी परमानन्दज्जी का दूसग रेप है। फिर 
तीसरा फोटो भी दिखाया जाये कि यह भी स्वामी परमानन्दजी का तीसरा रप है। और स्वामी 
एरमानन्दज़ी इन तीनों से अलग हैं। यह पूछने पर कि “उनकों बताओ कि वें कैसे हैं?” 
उत्तर दिया गया कि “उनको नहीं बता पाएंगे। उनको नहीं दिखा पायेंगे। 

अब मैं आपसे पृषठना चाहूँगा कि क्या हम आपके मुँह को दिखा पायेंगे? यदि 
आपको ग्रपना मूँह देखना है तो किस वस्त की श्रावश्यकता पड़ेगी? दर्पण देखने की। उसमें 
जो दिखाई पड़ेगा आप वही हैं। अब मैं आपसे पनः पुछना चाहँगा कि यदि आप दर्पण में 
दिखने वाले वहीं हैं तो तर्क के आधार पर दर्पण के ने झने पर आपका मुख भी नहीं खना 
चाहिए। प्नः जब दसस मेँह दिखाया तो वह भी आपका ही था, पर वह भी नहीं रहा। 
इसी एकार आपको तीसग मूह दिखाया परन्त वह भी नहीं रहा। अब प्रश्न उठेगा - जब दर्पण 
में दिखने वाला मेँह सचमच वाला मँह है ही नहीं तो फिर इसे दिखाया ही क्यों? दर्पण में 
दिखने वाले प्रतिविम्ध के बिना इसे दिखाओ। “दर्पण के बिना इसे कैसे दिखाये?'” कहते 
हैं, “हम दर्णण में दिखे मख के प्रतिविम्व के विना बिल्कुल ही नहीं दिखा पायेंगे यदि 


न पा्क्योयतिदद 


दिखाएंगे तो ये भी कहेंगे “यह है तो श्ापका ही मुँह, परत के गायक मूँह नहीं है” बाद 
को ज़ग तक से समगझना। आपका ही मुँह है। वदि बह मेग मुंह होता तो कभी उससे में 
ग्पने मुंह को पहचानता”? वद़ि एक भैंस के मुँह के भाग शीणा रख दे तो क्या उसकी 
छात्रा से था अपने मुँह का पहचान लेंगे? नहीं। तो 'दर्णण में दिखने वाला मुख मेग ही 
मुख है” बह भी सच है गैर 'मेंग मुख नहीं हैः यह भी सच है क्योंकि बंद वह छाया 
बिल्कुल मेरे मुख की ने हो, तो उससे भी में ग्रयने मुंह को पहचान नहीं सकूगा। यदि आपके 
कोई तीन फोटो दिखा दे और भ्रापकों ने दिखाब तो मैं श्रायक्रो पहचान जाईगा। दर्पण में 
फोटो वन रहे हों भ्रीर हम शीश के फोटो खींच लें तो आप उन को पहचान ज्ागि प्रथ्वा 
नहीं? पहचान जाग जीर यह भी जान होंगे कि वे (फोटो वाले) भाप नहीं हैं क्योंकि 
आपका तो हमने फोटो लिया ही नहीं है। हमने तो ग्रापके प्रतिवि का फोटो लिया है। 


प.3 आत्मा को समझने की ताकिक विधि 


ग्रत्मा कभी देखी उधवा जानी नहीं जा सकती पस्न्‍त उसका परिचय इन्हीं तीन 
(जग्नत, स्वन एवं सुप्ृत्ति) के द्वाग होगा। उन्य कोई उपाय नहीं है। पहले भ्रात्मा का प्रो 
जानने में आन वाला हिस्सा है, उसे जनाएगे ग्रौर तत्यण्चात इन्हीं को जानकर कहेंगे "यह 
शरात्मा नहीं. है।' है तो यह (जाग्रत) उन्हीं का पर यह (जाग्रते) वह (आत्मा) नहीं है। यह 
(सखवण) भी है तो उन्हीं (आत्मा का) का फ़ोटो फ यह वो नहीं है। गैर यह (सुप्रीन) भी 
है उन्हीं (आत्मा का) का फोटो फ यह प्राज्ञ भी वह (्रात्मा) नहीं है। अब समग्र तो कि 
वह कौन है? तरीका देखो। जाग्रत में जगत का ज्ञान उन्हीं को होता है, उन्हीं के दाग 
होता है पर जगत का ज्ान-मात्र वह नहीं है क्योंकि ज्ञान नहीं रहता जबकि भ्राम्मा वी है। 
ख़त का जान भी उन्हीं आत्मा को होता है पर यह होने वाल्ला ज्ञान थी वह नहीं है। 
सुप्ति का प्रज्ञान भी उन्हीं को होता है पर वह ग्रह्ञान भी वह नहीं है। ज़िन लोगों को 
प्रकाश और प्रकाश में वस्तुएं दिखती हैं, उन्हीं त्लोगों का गर्ग दिखता है और अच्छे में 
कृछठ नहीं दिखता। उत्लल्ना ग्रौर उले में चीज़ें, और अख्थेग गरौर उ्छें में चीज़ों का न 
दिखना कोन देखगा? वहीं और उन्हीं शँखों से। तो वही आत्मा अपने प्रकाश में जगत 
देखता है। वही आत्मा गपने एक चिक्तवृत्ति के प्रकाश से, प्रतिवि्ध (एलवालस०) से 
स्वन देखता है शरीर वही आत्मा इन ढोनों प्रक्राणों के ने रहने पर यन्धकार प्र्थाने संर्पाष्मि को 
भी जानता है। पर 


चतुर्थ पद का समझने की प्रक्रिया धर 







को और रोशनी में पदार्थ को भी देखती हैं वे ही आँखें अन्धेरे को और 
अच्धेरे में पदार्थ के न दिखने को भी देखती हैं। 
क्या उन्धर में आँख अन्‍्धी हैं? नहीं। आँखे का हैं। इसीलिए 
उपनिदद्‌ में एक स्थान पर कहा गया है: “न हि दुष्ट: दुप्टे: विषर्यलोपों विद्यते 
अविनाशितात।” ढद्व॒प्टा की दृष्टि का लोप नहीं होता क्योंकि द्रप्टा की दृष्टि अविनाशी है। 
द्रप्टा की दृष्टि का लोप एक सैकंण्ड भी नहीं होता। आत्मा जड़ एक सैकेण्ड भी नहीं 
होती। फिर भी अज्ञानी होती दिखती है। जैसे अन्धेरें में लोगों को आँखें अन्धी लगती हैं। 
वास्तविकता तो यह है कि अच्धेरे में भी आँखों को अन्धकार नज़र आता है पर वस्तुयें नहीं 
दिखतीं। इसलिए हम कहते हैं कि नहीं दिखता। इसी प्रकार सुपुष्ति में भी प्राज्ञ आत्मा 
को जगत नहीं दिखता। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि उसी आत्मा की जब प्राज्ञावस्था 
होती है तो उसे जगत तथा स्वप्न दोनों ही नहीं दिखते। इसी आधार पर कहते हैं कि आत्मा 
उस समय अज्ञानी होती है। परन्तु एक तुरीय अवस्था होगी जब वहीं आत्मा जानेगा कि “मैं 
कभी भी अज्ञानी होता ही नहीं हूँ।” यहाँ उस अवस्था को समझने के वाद अज्ञान हटने 
काकोई प्रबल नीं कना। _ ___  _ 

अज्ञानी आत्मा नहीं होती क्योंकि वह अज्ञान की ज्ञानी होती है। आत्मा के 
ज्ञान का नाश होता ही नहीं। इस प्रकार ज़ब ज्ञान का नाश ही नहीं होता 
तो ज्ञान को अविनाशी रखने की कोशिश क्यों है? वह बात जिस दिन जान 


जाओगे उस दिन सारे भ्रम मिट जाएंगे। 











नान्तःप्रज्ञ॑ न बहिएपण्प्रज्ञं नोभयतः प्रज्ञ न प्रज्ञानलघन न 
प्रज्ञ॑ नाप्रज्ञसम कम आर 
इसीलिए सातवाँ मंत्र यह बताने के लिये है कि यह आत्मा नान्तग्रजञ! है. अधात 
जो भीतर-भीतर ज्ञान है वह आत्मा नहीं है। आत्मा तो है, पर जो भीतर-भीतर ज्ञान है वह 
भ्त्मा नहीं है क्योंकि यदि इसको ही आत्मा मान लिया जाबे तो इसका तो अभाव हो गया। 
जाग्रत में जो ज्ञान हो रहा है, वह आत्मा के ही रहते हो रहा है। परन्तु यह ज्ञान भी आत्मा 
नहीं है। सपाप्ति में ज़ो अज्ञान हो जाता है वह अज्ञान भी आत्मा नहीं है। इससे यह सिद्ध 
होता है कि अज्ञानी होना और ज्ञानी होना दोनों ही झूठ हैं। यदि आत्मा जाग्रत मैसी जानी 


६६ प्रालक्यापनिद 


होती तो फिर जगत के ने रहने पर देखती कि ज़गन नहीं है। यदि जाग्ते अवस्था का जाने 
ज्यों का तो बना रहता तो जगने का प्रभाव ठेखते कि अयना ने मना देखते? बढ़ि आभास 
सा ही बना रे श्रीर देह ने के तो हम देह को ने हना ठखंग। तो मीठे में बह एसा 
प्रौनता है कि मेंस ज्ञान नहीं झूता। संचमच ग्दि ल्लान करना है तो प्रयलएर्वक यही ध्यान 
कमा है कि क्या नहीं सता? उसे यर्ब का सलीट्राता देने जीर नम दिखने लगी। 
यदि थ्राप्र पर में उधर हर्यण लगाकर आपकी शखों की तर्क कर दूँ तो सरर्म का प्रकाश ब्रापम 
शायेगा या नहीं? ग्रायेगा। तो सर्म का श्राप दिखने छूतग। सर्म को आप नज़र आने लग 
और दर्गण को जग टहा कर दिया तो आए नज़र थाने बन्द हो गयी क्यों? क्या सर्म चल्ला 
गया? नहीं, सर्य नहीं गया। शीणा वा प्रतिविब (लील्ंणा) में गया। तो जो और 
क्रठ्ठ दिखने लगा, उच्च खप्न कह दो। जब आप नज़र आ रहे थे तो जाग्रत। जब आप नजर 
ने आने लगे, कषछठ ग्रीर दिखाई देने लगा तो खप्न। शरीर ज़ब शीश को उलट दिया तव कष्ठ 
ने नज़र आने लगा। थे कछ नज़र ने शाने का काम किसको हुआ? सुर्य को। कृठछठ नहर 
आने का काम किसके रहते हआ? यर्य के रहता सर्य के रहते ही आप नज़र आने लगे 
गैर सूर्य के रहते ही आपके बज़ाब कुछ भीर नज़र आने लगी और सूर्य के हते ही कुछ और 

नज़र नहीं आने लगा। प्रव हमने सर्म से कहा, “जो नर आने लगा वह तमर महीं हो। 
जिशके होने से नक़ः आने होगे वह तुम नहीं हो क्योंकि वह नहीं रहा। जो दूसरे नज़र आने 
लगे वह भी तमर नहीं होा। जब कठ नजर नहीं आने लगा वह भी हमर नहीं हो। तम तीमों 
समय में थे और एक भैसे थ। ताहारे बिना तीनों हात्तें नहीं, लेकिन तम इन तीन से 
विल्यक्षण काई चौथ हो आर चीध का ही नाम यर्य है।” फ़िर ध्यान दें, यय पहले का नाम 
है? नहीं। क्या फल सम यर्य नीं था? था। पर पहल्न का नाम (जगत) सर्व 
(आत्मा), दूसरी हालत (खनन) का नाम सूर्य (आत्मा) गैर तीसगे हालत (सपप्ति) को नाम 
भी सर्य (आत्मा) नहीं है। जिसमें सदा एक जैसी हालत रहती है उस्चका नाम यर्य है। तो 
क्या आप आत्मा ठीक कंसेग? नहीं। अब आप बलाबें कि शआत्सा ठीक नहीं है या शत्मा 
का ठीक पता नहीं है? आत्मा का ठीक पता नहीं है। जो लोग आत्मा को हीक केसे का 
गाय बता झे है वे चाह गुझ हाँ, ग्रन्थ हों, संत हों, वे मूर्ख है अथवा समझदार? और जनों 
लोग उनके यहां भर्ती होकर ठीक कराने गए हैं वे? वे भी मर्सख ही है। 

गप इसलिए अच्छे हो कि ठीक करवाने नहीं आएं शरीर ठीक जगह इसलिए आ गए 

हा क्योंकि आपका हमने ठीक कस्ने को बल्लाया नहीं है। हमने ताझें हीक समझाने को 


बर्थ पाद को समन्ने की प्रक्रिया 0 


बुलाया है। उपनिषद शापकों ठीक समझाना चाहता है। कुछ करने की बात उपनिषद नहीं 
करता। और ब्रदि आप कुछ करने आए हो तो तुम अस्यताल तो सही आए हो पर बीमार 
गलत हों। यदि डाक्टर भ्रष्छा हो पर गेगी किसी अन्य प्रयोजन से आया हो तो क्या उसका 
उयार ठीके होगा? प्रश्न यह है कि श्राने वाला रोगी (साधक) क्या समझकर आया है? 
कुछ करने वा समझने? इसलिए 'नास््यकृतः कतेना (करने से अक्त की प्राप्ति नहीं 
होती।) ै 

ज्ञो नित्य है, ठीक है क्या वह करने से ठीक होता है? नहीं। इसलिए 
“तनादेवतु कैवल्यम/” ज्ञान से ही कैकल्य (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। 
ज्ञान प्राप्त की ही प्राप्ति कमता है। आप्त की प्राप्ति ज्ञान नहीं करा 
सकता।  अ्राप्त की प्राप्ति के लिए ज्ञान के साथ कर्म आवश्यक है। 
और प्राज्त की प्राप्ति के लिए केवल पता चलना आवश्यक है। 
यदि आपके झयये आपके ही पास हां और श्राय भूल जायें तो उन्हें पाता नहीं है। 
मात्र पता चलने से मिल्र जायेंगे। परन्तु यदि झयये बाहर से कमा कर लाने हों तो कंबल 
ज्ञान से नहीं मिल्ेंगे। उनके लिये परिश्रम करना पड़ेगा। ।॒ 

यह उपनिषद “भान्तग्ज्जं न बहिप्पज्ज" के दास आपको कहता है कि आप बहिप्प्ज्ञ 
नहीं हो क्योंकि वहिप्पज्ञता आपमें सदा नहीं रहती। आप उन्तग्नज्ञ भी नहीं हो क्योंकि 
अन्तग्रज्ञता भी आप में सदा नहीं रहती। घनप्रज्ञता भी तुम नहीं हो क्योंकि अज्ञता भी तुम्म 
सदा नहीं रहती। अब ठीक से विचारना है कि क्या अज्ञता, अन्तग्जज्ञता तथा बहिप्यज्ञता 
तीनों तुम्हारे बिना रहती हैं? नहीं रहतीं। और तुम इनको एक एक करके बागै-बारी से छोड़ 
' चुक हो। 







पार्वती (जाग्रत, खष्न एवं सुपुप्ति) बहत जन्म ले चुकी हैं। शंकर वादा (साक्षी 
या श्रात्मा) एक बार भी नहीं जन्मे। पार्वती कई बार मेरी तभी तो ज््मी। वे कई जन्म 
लेकर मर चुकी हैं। भोले बाबा मरे ही नहीं। ये बड़ी वेईमानी है (व्यंग्य में।। समाजवादी, 
साम्बवादी, समतावादी कहेंगे कि ये तो बेईमानी की वात है। एर्वती मस्ती हैं, शंकर बाबा 
क्यों नहीं मरते? कल्न लोग कहेंगे, “अवस्थाएँ मस्ती हैं। ये साक्षी क्यों नहीं मर्ता?” हम 
कहेंग, “बरदि तम्हें शरच्छा नहीं लगता तो मार ड्रालो। सब मस्त हैं तो आत्मा को भी मार 
दो। क्योंकि यह तो आत्मा की वेईमानी हुई कि वह नहीं मरती और सब मस्त हैं (व्यंग्य 
मं)।! 


(८ प्रान्डुक्योपनिपद्‌ 


समाजवादियों, साम्यवादियों तथा समतावादियों को आत्मा की अमर्ता पसन्द नहीं 
है (तंग्य में)। उनकी सोच के अनुसार या तो किसी की भी मृत्यु न हो या फिर आत्मा भी 
मर। दोनों काम साभव नहीं हैं। सब न मरें ऐसा भी नहीं हो सकता और अ्रात्मा मर जाए 
ये भी नहीं हो सकता। इसलिए इस प्रकार की सोच वाल नता मस्त हैं क्योंकि व असम्भव 
काम में लगे पढ़ें हैं। हमने पहले ही स्ीकार कर लिया कि भाई इनको वाया नहीं जा 
सकता और श्रात्मा को मांग नहीं जा सकता। 


पए.४ उपनिषद्धों में प्रयुक्त नींद एवं स्वप्स का अर्थ 









ग्यथा-ग्रहण को खप्न कहते हैं श्र तत्त्व के अग्रहण को निद्रा कहते हैं। 
तत्त्व के अन्नान का नाम निद्रा और तत्त्त के भ्रज्ञान से कुछ का कुछ 
विपरीत दिखने का नाम खप्म है। 
आम जनता के लिए यह जगत ही सत्य है। इसलिए इस सत्य जगत के न दिखने 
का नाम निद्रा है। चूँकि इन स्थृत्न भेत्रों से दिखने वाला उगतठ आम जनता के लिये सत्य है, 
इसलिए इस सत्य के ग्ग्रहण का नाम निद्रा कहलाती है। सत्य की ही तरह ख़प्न है जिसे 
सत्याभास कह सकते हैं। ख्प्म में जञाग्रत जगत की तरह वैसा ही अर्थात्‌ झुठ सत्य होकर 
दिखने लगता है। खप्न में मैं (स्थूल शरीर) का ही भान नहीं है और में (स्थाल्ात के मैं) 
का ही भान है। जब खुल देह का ही भान अर्थात अहसास ने हो तो उसका नाम नींद है। 
शर यदि जगत (ख्याल वा कह्पना के) ही दिखें, तो इसे स्वप्न कहते हैं। परन्तु यदि 
स्वान न दिखे, ज़गत दिखने लग जाये तो उसे जाग्रत कहेंगे क्योंकि इन दो जगत (जाग्रत एवं 
खान) में एक सत्य है श्र एक अअसत्य। जब ब्रात्मा सत्य ने लगे ता यही सबका था अपना 
विस्मग्ण कहलाता है। इसीलिए कह दिया कि: 

अपन को आपने ही विस्त्यो, जैसे श्वान काँच मन्दिर में ध्रमवश भूख मर्यी। 

हम जग के भूलने को नींद नहीं कहते। जब क्रपि उपनिषद कहता है तो जगत 

के न दिखने को नींद नहीं कहता क्योंकि जगत के ने दिखने को नींद तो इस देश का क्या 
विश का मे भी कहता है। इस्कों नींद कहने की ऋषि को क्या आवश्यकता पड़ी थी? 
इसके लिए उ्निषदर लिखने की क्या आवश्यकता धी? “हम सो गये थे।” ऐसा तो वह 
खबं ही मानता है। ख्प्त बताना भी ऋषि का प्रयोजन नहीं था क्योंकि ऐसा कौन मूर्ख है 





चतुर्थ पाद को समझने की प्रक्रिया ६९ 


जो जगकर झ्वप्तों को खप्न नहीं जानता। हम यह स्पप्ट करना चाहत हैं आम जनता जिसे 
सोना कहती है उसे ऋषि सोना नहीं कहते। 


आत्मा के न जानने का ही नाम निढ़ा है। मिसकों तम स्वप्न कहते हो 
उसको स्प्न कहना क्रपि का प्रयोजन नहीं, क्योंकि वह तो तम जानते 
ही हो। जिसको तमर सत्य कहते हो उसको स्वप्न बताना उपनिषद का 
प्योजन है। 
जिसे आप जानते ही हो उसे बताने में ऋषियां को इतना समव बाद करने की 
आवश्यकता नहीं थी। जो जाग्रत जगत तमको आज़ सच्चा लगता है, ऋषि की दृष्टि में वह 
सन है। शात्मा भ्रविनाणी है यह जो तुम्हें गण लगता है, उपनिषद्‌ उसी के विषय में चर्चा 
करता है। 

अनादि काल से यह जीव सोया है। हमें जो नींद आती है वह अनादि नहीं है। 
प्रवाह से तो है। आज़ रात भी जब सोए थे तो जगत को भूले थे अथवा नहीं? और उससे 
फहले? भूले थे। इसलिए यह नींद प्रवाह से अनादि है। इसके बोध के बाद आप सोते हो। 
जगत का बोध भी होता है फिर सोते हो। परन्त आत्मा का तमकों पहले बोध था, बीच में 
भूल गये हो - ऐसा उपनिषद नहीं कहता। 'भूल गए! उसका कहते हैं जिसका पहले पता 
था और बाद में भूल गए। नींद के दौरान आप सोया जान लेते हो क्योकि पहले आपका 
जगत दिखता था, बीच में भूल गए। यदि आप आत्मा को पहले जानते होते, आत्मा की 
जानते हुए सोए होते, तो नींद खलने पर जगत की तरह आत्मा को भी आप अपने आप जान 
जाते। इसलिए आप आत्मा से कभी भी परिचित नहीं रहे। आत्मा को आप कभी भी नहीं 
पहचानते रह। इसलिए इस झोच को कि “हम आत्मा को पहल जानते थ अब भूल गए 
हैं? - छोड़ ढो। यदि यह मान भी लिया जाय कि “पहले पता था बीच में भूल गए हैं 
तो बीच में फिर भलोगे। 

उपनिषद की व्याख्या करते हए कारिकाकार श्री गौड़पादाचार्यज्ी लिखत हैं 
अनादिमसाययासप्तो यदा जीव: प्रबुध्यते 


अजमनिद्धमस्वप्नमद्धित॑ बध्यले लदा। 
भनादि मावया” अर्थात बीच में आई माया से नहीं, बीच में आई नींद से नहीं, अपितु 


शरनादि काल से ही माया में सोया हआ यह जीव (यदा जीवः प्रव॒ध्यते) जब जागता हैं। केस 









है मान्डक्योपनिएद 


ज़ागता है? क्या भ्रधने-श्राप? नहीं क्योंकि भ्रनादि काल से सोया गहा। यदि बीच में सोया 
होता तो बीच में भ्रपने-श्राप ही उठ जाता। श्राप प्पने-श्राप सेत्र सोते हो, तो क्या जगाने 
से ही जगते हों? खयं ज़ग जाते हैं। अयने- श्राप ख़्म थ्राता है, अपने-शप घला जाता है। 
तमने बीच में ववप्म सा नहीं किया और ने बीच में साए। यह जीव अनादि काल से साया 
हा व भनादि काल से ही स्वप्न देखता हम्मा चला श्रा रहा है। पर बह ज़ब एक बार जग 

जाता है (यदा जीव: प्रबध्ध्ते) तो पाता है कि में जन्म नहीं हूँ, नींद भी मेरे में नहीं है। 
बत्र देखों। सोया है तो श्रनादि काल से परन्त जय कर पाता है कि 'मेंर को कभी नींद हुई 
ही नहीं। 

अ्ज्ञान, निद्रा सब्र कह्यित हैं। चेतन तो कभी सोथ सकता ही नहीं। जब जीव 
भयने पैतन्य-स्वग्य को -पहचानता है तो यह प्ननभव करता है कि, 'मैं अत्न हैँ, अनिद्ग हूँ 
भनित्य और उ्रस्वप्ण हैँ। मन्न्म खप्म नहीं हैं, मप्नर्म नींद नहीं है, मेरा जन्म नहीं है। 
यह स्थिति ठीक इस प्रकार है कि जैसे रस्सी के बोध के बाद व्यक्ति कहने लगे कि सर्प था 
ही नहीं। रस्सी के ज्ञान के बाद क्या यह भी कहोंगे कि साँप चला गया? मैं यष्ठता हूँ 
कि साँप दिखता था गरथवा संचमच में था? आपको रस्सी में साँप दिखता था और सच्चा 
भी लगता था। परनन्‍्त ज्ञान होने पर सर्प में सच्चापन निवत्त हो गया था साँप चला गया? 
हमें जानने के वाद यह पता चत्ना कि वह साँप था ही नहीं। 'साँप चल्ना गया' यह कहना 
ठीक नहीं। इसल्रिये तत्त्व को जान लेने के बाद जगत चला गया, मुक्त हो गया, "जगत 
निवृत्त हो गया' यह भाषा ठीक नहीं लगती। इसलिए तत्त्ववेत्ता देखता है कि यह जगत तो 
वास्तविक था ही नहीं, माया-मात्र लगता था। 

प्रपंचो यदि विद्येत निवर्तेल न संशय: । 

सायामानत्रमिदं द्वैतमद्धैत परमार्थतः ॥ 

(प्रपंच यदि होता तो निवत्त हो जाता इसमें संदेह नहीं। किनन्‍्त वास्तव में यह दैत 
ता माया-मात्र है, ए्मार्धतः तो ग्रदैत ही है।) 

यहाँ पर एग्मार्थ शब्द बहत जर्री है। एस्मार्थतः अदैत है और दैत माया है। 

मक्षामात्रम इढ देते! को हम यह भी कह झकते हैं कि 'प्रतीति मात्रम इस दैलम 

स्वनवत इदम दैतम। 


माया मात्रम इंदम देतम' खप्म के समान ये दैत है। स्वप्न को जब तक नहीं 


बतब पद का समन का प्राक््या ४३ 


जाना, तेव तक वह झत्य लगता था। जगने पर जैसे ववप्न को सम जाना जाता है. उसी 
प्क्रार उरी तक जो जगत सत्य लगता रहा है और प्री भी सत्य लग रहा है जागे पुझय को 
यह ला लगता है। सवप्म का खप्म लगना ही निवृत्त होना है। जब खषन अपने आप को 
सन लग जाता है. तभी यह प्रनुभव करता है कि खप्न निवृत्त हो गया। दूसरे भ्ों में 
हम कह सकते हैं कि ज्व सत्य आपको चत्य लग जाता है तब खप्न आपको मिथ्या लगने 
जगा है। पस्मार्थतः आत्मा ज़ब सत्र लगती है तो प्रातिभासिक आत्मा, व्यवहारिक आत्मा, 
माया की आत्मा, मादामात्र “मैं” सत खवप्न लगता है। छ्म लगने पर भी अख़न कहा 
जाता है। अ्प्न आ्राय कब्र कहते हो? जब स्वप्न को स्वप्न कहते हो। तब आप अपने 
को जागा कहते हैं। 
जत्र जाग्रत में ज़गत स्वप्न लगने लगे तब हमें समझमा चाहिये कि अब हम 
ग्ख़न हैं, खप्न रहित हैं अर्थति स्वप्न से मुक्त हैं। 
खन लगना ही स्वप्त का न होना है। खप्न का समाप्त होना अद्थप्म नहीं है। 
सर्प का समाप्त होना नहीं है। दुँकि पहले आपको सर्प सत्य लगता था इसलिए पत्र 'सर्प 
चला गया, निवृत्त हों गया? यह भाषा आपको उञती है। पर बहुत सच्ची भाषा तो कह है कि 
सर्व था ही नहीं। क्या जानने वाला बाद में कहेगा कि साँप था और चला गया? नहीं। 
बस जगत सन था, खान ही है। जगत जात में क्या है? खत ही है। यदि जाग्रत का 
लड़का चल्ला जाबे तो क्या आप खान कहोगे? नहीं। जात के बृढ़ापे को, जवानी जाने को 
सन चल्ला गया कहते हो? नहीं। इसलिए चले जाने के कारण कोई खष्न नहीं होता। 
मिथ्या होने के काग्ण ख्प्म होता है। जो मिथ्वा न हों, वह खन नहीं है। धर 

स्प्त के विषय में पुनः स्पाटट कर ढूँ। जो जागे व्यक्ति को यह वास्तविक नहीं 
है - ऐसा लगे, उसी का नाम खज है। ने रने से ख्म नहीं कहना 80 अन्यथा इस 
आधार एर कि “जगत अभी दिखता है” आप कहोंगे कि जगत खप्न नहीं है। जगत 
दिखता रहेगा, व्यवहार होता र्ेगा। चल्ों हम तो कल्रयग के -लोग हैं, तम गरभी जाती नहीं 
हे, इसलिये जगत दिखता है, व्यवहारिक क्रियाएँ करते हो। परन्तु मैं पृष्ठना चाहँगा कि 
पहले जो ज्ञानी थे वे भाषण देते थे या नहीं? शंकगचार्य ने समाज में प्रचार किया अथवा 
नहीं? ्रगीत्रों ने ज्ञान के बाद ग्रन्थ लिखे या जब अज्ञानी थे, तव लिखें? तो ज्ञान के बाद 
भी कागत् था, लिखना था, शब्द थे। किसी के प्रति कंरणा थी। यदि ने दिखने लगता, 





है; पाल्क्योयनियद 


ने अपने हाथ नजर आते, ने कागज नजर गाता, ने जुबान होती अर ने त्थाही कह्मम होती, 
तो क्या वे लिख पते? नहीं। इसलिए, 

खन ने दिखने का नाम उगना नहीं है, खान खून है 
का नाम ही जगना है। 









इस समय 





ए.प समाधि एवं जगत का मिथ्यात्व 


यह जगत प्रात्मा में मात्र प्रतीति है, मृग्न ग्त्मा के सिवा अन्य कोई वस्तु नहीं है। 
मवाधतिरिक्त बंद यद वा तत तत मिल्येति निश्चिन। 

तम्मे यदि ग्रात्मा के अलावा “कठठ है” एसा हगता है तो उसे ते मिथ्या निश्चय 
कर ले। चिद तत्त्व के प्रतिस्ति तम्े यदि कृछ भी लगता है तो “बह मिथ्या है” यही 
बार-बार सोच और “मैं अकेला ही सत्य हैं” यह ज्ोव, यह समझ ही जयना है। सम्राधि 
जगना नहीं। सम्राधि में तो लोग कहते हैं कि हम जगत से उ्न्दर चले गए। इस प्रकार तो 
मींद वाला भी यह मानता है कि “मग्ने दिखा नहीं, सो गया था।” समाधि वाला कहता है 
कि मैंने चित्त का निगेध किया था इसलिए जगत समाधि में नज़र नहीं आया।"” में यदि 
पीछे नजर कर लें तो सभा नजर नहीं आयेगी। तो मे छोगा कि सभा नहीं है। परत क्या 
सब्मच में सभा नहीं है? नजर फ़ेरने एए सभा नहीं दिखती। नींद में लगता है कि मे 
नींद आई इसलिए जगत मग्ने नज़र नहीं आया। एफ वहाँ (सा में) तो मेंगे मज़र थी है 
एन्‍्तु सभा नहर इसीलिए नहीं श्रामी क्योंकि नज़र मेरे दूसगी तरफ़ है। इसी प्रकार जगत है। 
इसलिए समाधि से जगत का मिथ्याल् निश्यय नहीं होता। 
वेदान कहता है जत का मिथ्याल निश्यय और भरत्मा की सत्पा 
(फमार्थता का बोध) का बोध ही जानना है, समाधि ज़ागना नहीं है। 
| जानकर एस विन्दर्श पर प्रकाश डालता हूँ जिन्हें यदि ने बताया जावे तो भ्रम 
दूर नहीं होता। लोग उत्त्े हुए हैं। उनको साधन में बार-बार यह रूचि है कि जगत ने 


दिखे। वेदान्त का बार-बार कहना कि दैतान की सत्यता खत्त होनी चाहिए। जगत 
दिखता रहे, कोई बाधा नहीं है। 









घत्र्थ पाद को समझने की प्रक्निया ७३ 


(हब मन ना नमन न न फी ननन- नमन“ नम लीन वन + तन न कली न न 34 + न विन न बनननन-ब जन मनन न वी पिनाक नमन - मनन ना नमन तन वि लनीनिनिनान वन नल न नमन न सन - नमन न+-नन विन “नकल नानक नाक+१+ ० *%+०- 










वेदान्त कार्य-विरोधी नहीं है, संसार-विरोधी नहीं है। समाधि को लोग 
पलायनवाद कहते हैं। 
समाधि म॑ जगत छोड़ना होता है। जगत की प्रतीति से हटना होता है और 
जात-ग्तीति से हत्ने वाला व्यक्ति कार्य नहीं कर सकता। पर ब्रह्मनिष्ठ पर्य काम करते 
हुए जागा होता है। भगवान शंकराचार्य मैसा काम कौन करेगा? चार मों की स्थापना, 
चार शंकराचार्यों की नियुक्तित, अनेक ग्रन्थों का लिखना, कितने भाष्य लिखना, कितना प्रचार 
कला और ज्ञो इसके विरद्ध थे उनसे शास्त्रा्थ करना, लड़ना और निपटना। इतनीं तैयारी 
करने वाला महापुरुष (शंकराचार्य) जगत को कहता है “नहीं है” । इसीलिए 


बेदान्त को समझने के लिए वहत सूक्ष्म समझ चाहिए।. और जगत ने 
दिखने के लिए समाधि चाहिये। वहाँ समझ्न की कोई आवश्यकता नहीं। 

ज़ब ध्यान वाले साधक समाधि में जाते हैं तो आम लोगों को लगता है बहुत डँची 
सित्ति प्राप्त कर ली है। ऐसे लोग अपनी ध्यान साधना का बड़ा होल पीठते हैं। जगत को 
देखकर ज़ो लोग डरते हैं वे जगत को होवा समझकर ही तो डरते होंगे! जो जगत को होवा 
ही नहीं समझता, उसे आँखें बन्द करने की क्या ज़ररत है? आँखें बन्द करके समाधि लगाना 
बचकाना खेल लगता है। जिस प्रकार बच्चों को डराने से वे आँखें मींच लेते हैं, उसी प्रकार 
हा वाले भी जगत से डर के आँखें मींचते हैं अर्थात्‌ आँखें बन्द करके ध्यान समाधि लगाते 
ै। 

















बह्मज्ञागी जगत को अपना आप देखता है और कुछ है नहीं! यह देखता 
है। परन्तु यह देखना आसान नहीं है। इसके देखने क॑ लिए बहुत साधन, 
य् चाहिए। े 
सलिए ही गौडपादाचार्यजी कहते है कि “ अजम अनिद्रम, अस्वप्नम अदुततम वुध्यत 

तदा।” अद्वैतम अर्थात्‌ आत्म-तत्त्व में द्वैु नहीं है। वहाँ और कृछ नहीं है। अपना-आप 
अक्रेल्ा है।. जैसे स्वप्म में वह ख़द अकेला ही था। खप्न देखकर, जागकर फ़िर ख्याल कई 
ख़प्त में कितने थे? स्वप्न का ख्याल करने पर पता चला कि वहाँ तू था और बाकी 
सब ख़न था। ख्म में हाथ-पेर वाले के पास दूसरे हाथ-पै& वाले भी थे - बेटा-बेटी, 


पति-पली, पेड़, जमीन, सड़कें आदि सब थे। वहाँ पर अनेक जीव थे। बकरी, मैंस आदि 






ीी. 
प्‌ मासस्थाशनका 


सभी जीवित थ। एए बताओ कि ज्गने एए कितने थ? कोई नहीं था। क्या तम भी नहीं 


ब्रथे? वह प्राय ही थे जो बच कए। उस वर्र हा का विधार नहीं क्रिया। तुर्त इसको 
(अगर को) ग्रयतरा बनाकर कह गंद। ख की तह जाग में भी फिर हाथ-ऐैर वाले वैसे ही 


सत्र प्रल्च गय।. उम्र दसना है कि उसकी बइठाई को जान था हो उक्त दयकी बताई 
को गरभी तक नहीं जान थाठ। हेयलिए उपनिय”ठ का कप अभी भी ज्राथक्रो सोथा ही कहता 
है। क्र श्राथक्ों उगाना चाहता है। किस खान से? जो उसी (जगत) आपके लिए चल 
है, गर्धात जन्म सत्य है, मृत्य सेल है, मेरे बल हैं, हर सत्य हैं यहां (जाग में) तो ये 
सत्र बत्य हैं, पत्ल उपनियद बताना चाहता है यह भी तम्हाग खान है गौर इसका खाम 
जानता ही जग जाता है। उरत्मा को नहीं जानना। वान्या दिखती भी नहीं। बस “यह 
दिखने वाला जाग्रत जगत स्व है” यदि यह साम्नश्ञ में था जाये तो सल क्या है? - यह 
एव ही पता चत्र जात्या। यह दिसने बाला प्रगन खम्म है। “जो दीसे सो सकते 
विनाती” जो जानने में ग्रावा है, वह सत्र ख़न है। फ़िर सेल ऊरैसा है? हों जानता है 
शरीर जिस बल के हते के सब्र दिखता है - वह सन कहाँ रहता है? वह जाम में भी 
हता है, सम में भी हता है भीर नींद में भी झा है। खान नहीं झता, जाग्नत नहीं 
रहता, नींद नहीं झती फिर शाय्य कैसे हो? कहते हैं कि हम नहीं बता सकते कि हम केस 
है? इतना हम जानते है, “थे स्वन है भर हम सत्य है।। "बह (जाग्रग) खून है”, “यह 
सखज) भी जन है”। जिस “में” को थे (जगत एवं स्ून) मालम पढ़ते हैं वह (साक्षी) 
मै" सत्य है। जिसको कह इतना मालूम पढ़ खा है कि 'ों गकंशा ही सल हूँ". दही 
देव है। तर फ़ि सत्य कितने? अक्ल्ला मैं खबर! क्र फ़िर ने हठने की जस््ण, ने रखने 
की जग्गता। में अकेला ही सत्य हूँ। “प्रात्मेव इृढ सर्वमा यह यब कंबल थ्रात्मा ही है। यदि 
यह सत्र शत लगता भी है तो सम सत्यता केबल मेगे है। जैसे स्व गहनों में सोने की 
सलता है. उसी प्रकार सर ख़स्थाओं में मरी सत्ता है। सब सल्य नहीं अपित सा्मं में 
किला सेल हैं। सत्र सत्र हगत हैं एए जिसने एक ही झेल देखा है उसके हिए सब क्या 
है? एके सता इसलि! “परददेतम वृध्यते हदा।". क्र वह जानता है कि एक ही सेल 
है। शत है, देन तो वहाँ है ही नहीं, भ्रीर वो यहाँ है ही नहीं। यह उपनियद का वचन है। 

फिर कहने हैं 

प्रपंचो यदि विद्येत निवर्नेत न संशय: । 

सायामात्रमिदं द्वेलमद्वेल॑ पसमार्थलः ॥२५०॥ 


बर्थ णद को समझने को प्रक्िय रा 


(प्रबंध यदि होता तो निदत हो जाता इसमें संदेह नहीं। परन्तु वास्तव में यह दे 
तो मावा-मात्र है पस्मार्सत: तो )दैत ही है) 

दूत माया-मात्र है, सबमच तो एक सत्य हैं। जैसे वहत ईटें बनाई, बहुत मकान 
है। मकान हैं! - यह हम भी कहँगे। पर सचमुच सत्य कितने हैं? एक मिट्टी। “यथा 
एकन मृतपिण्डेन” जैसे एक मृत्र मिट्टी के फिएड थे। और वे सब कुम्हार ने बनाएं, तो क्या 
सत्र संत? नहीं। क्या ब्वहार में उसके नाम अलग-अलग नहीं रखते? अलग-अलग रखते 
हैं सगीदते हैं, उनसे ग़लग-ग्रल्ग काम भी लेते हैं। आप जोग जब घर में मेहमान आएँ तो 
पु में पादी भरके रखते हो। उस सत्र अलग-अलग नाम, प्लग- अलग स्प, अलग-अलग गुण 
होते हैं। “ब्रथा एकेन मृतपि्दन सर्बम मृण्मयम्‌” परत सब ताल्िक दृष्टि से क्या हैं? 


पिटी। फिर कहते हैं कि जुबान से कहने के लिए इन बर्तनों को घड़ा, सुगही, पाला, 
गद्वि-आदि नाम देने हैं। जुबान से कहने के लिए ये सब हैं गौर व्यवहार के उपयोग में आते 
हैं। एलन हैं सब मिद्री। इसी प्रकार “माया मात्रम इदम दैतम” माया ने ये सब देत खड़ा 
किया है। पम्मार्थतः प्रद्ैन है शरीर इसी का नाम पम्पार्थ है। ५ 
बहुत से लोग दान ढने के नाम से एस्मार्थ में लगे हैं। कई गंगा नहाने के नाम से 
प्मार्थ में लग हैं। गन्य कष्ठ कीर्सन करने के मोम से फरमार्थ में लगे हैं। परन्तु पर्मार्थ एक 
ही है। पर्मार्थतः एक सत्य है। इस एक सत्य में जो लगा है वही एस्मार्थ में लगा है। 
बाकी सत्र तो व्यवहार ही में लगे हैं। हाँ व्वहार अच्छा है, परत वह पर्मार्थ नहीं है। 
फमार्थ तो है एक अदितीय व्रह्म। उसकी कंग्रा ही पस्मार्थ की कधा है। बाकी तो सब 
ब्यहर की कथा है। सम ने क्या किया, लक्ष्मण ने क्या किया, सीता ने क्या किया, 
उन्होंने ऐसा क्रिया, उन्होंने वैसा क्रिया! - ये यव व्यवहार की कया है। व्यवहर की 
कथा न सुनो? - यह हम नहीं कहते। व्यवहार, आय ने करें - ऐसा हम नहीं कहते। एरस््तु 
यदि प्मार्थ से आय वंचित रह जायें तो यह बड़े दुर्भाग्य की बाते है। विना एस्मार्थ के 
पग्मार्थ सुधर्ता नहीं है। ली 
प्मार्थ करा एक अर्थ होता है परम अ्र्थी। कई लोग कह देते है कि उन्होंने तो अपना 
फार्थ विगाइ लिया है" वैसे इस प्रकार बोलने वाले लोगों का ख़यं का प्रम्मार्थ भी बिगड़ा 
ही है। क्योंकि वे एम्मार्थ का अर्थ ठीक नहीं समझते। उनकी सोच में 'चूंकि मैं बीड़ी नहीं 
पीता, सिगरेट नहीं पीता, शराब नहीं पीता* इसलिए शराब पीने वाले ने अपना परमार्थ विगाड़ 
लिया। क्या ने पीने वाले का एस्मार्थ संधर गया हैं? जो मन्दिर नहीं: आते क्या वे परस्मार्थ- 


रु प्रानइापनिद 


विरधी हैं? क्या मन्दिर जाने वालों ने एग्मार्ट की प्राप्ति का नी है? मिन्‍्हें एम अर्थ 
का पता ही नहीं है क्या वे सब फम्मार्व से वंचित नहीं हैं? है। इसलिए उपनिषद फर्मार्थ की 
कथा है। रमायण एग्मार्व और ब्वहार दोनों की कथा है। थ्राग अल्यथा ने लें। गमावण 
एम्मार्य की भी कथा है शरीर "सम दरशस्थ पुत्र हैं, गम पत्नां के पति है, शाम सजा हैं, राम 
उठते है, गम प्रणाम करते हैं, गम जगत हैं, गम सोते हैं, गम सम्धा करते हैं, शबहार भी 
करते है।'- ये सब्र बहार की कथा है। 

राम एस्मार्थतः ब्रह्म हैं और ब्यहार भी करते हैं। शाप सिर्फ व्यवहार ही बाबर 
कर रे हैं। प्राप्र भी व्याह्मरिक "मैं" देह वाले है। राम भी दह वाले हैं। गम जगते हैं 
तम भी जगत हो। सम सोते हैं, शत भी सोते हो। गम भी व्यवहार करते हैं, तुम भी करते 
हो। एफ सम को उपने पम्मार्य को कि “मैं ब्रह्म हैँ” पता है। शाम द्रद्म कैसे हैं? एस्मार्स 
सर में। राम का पुत्र होना व्यावहारिक रथ, पति व्यावहारिक श्य, गा ल्यवहार्कि सप, उनका 
सोना व्यवहारिक ग्य, ज़गना व्यवहारिक रण, प्रकृति ग्यू, ए फमार्थ श्र में राम वह्म हैं। 
क्या आप एम्मार्थत ब्रह्म नहीं हो? है। तो फिर तुममें और सम में क्या अन्तर है? राम 
का अकल्वाण होने की सम्भावना? नहीं है। 


जिसका कत्याण मर होना बाकी नहीं है और छबहार बैसा ही करता है 
जैसे सब्र करते हैं वही साक्षात राम है। 
इसलिए समझ में गम के सभी ग्यों को कथा है। व्यवहारिक 
प्रातिभासिक गए की भी, कारण स्य से भी और पखह्य रप से भी। 

पर व्पनिदद व्यवहार की कथा नहीं करता। उपनिषद्‌ केबल एस्मार्थ की कथा है। 
यही उपनिषद एवं गमायण में उन्तर है। रमायण एत्मार्थ की कथा नहीं कसी - ऐसा नहीं 
है। पन्‍्त राम्रावण की कथा कहने वाले गमायगी अधिकतर व्यवहार की कथा बे हैं, 
पसमार्थ उन्हें खुद नहीं गरता। गममाग्ा में फममार्य भी है। भागवत में एसार्थ भी है। ए 
भागवत कहने वाल कई कथावाचक जनता को सिने के लिए गा-बज़ाकर समय छ्वीत करते 
हैं। पप्मार्थ का तो 3 पता ही नहीं होता। फमार्थ की वहां शस्जात भी महीं होंती। 
वि किसी ने भागवत सुनाने वाले कथावाचक से यह य्मार्थ की कथा सनी हो वो बा! 
क्या किसी शमावणी से भी गम का ऋ खण्य जो एम्तत्त है सुना है? बब्ध तो 


68 


'एग्त्ल" आगरा होगा। पर गम का खस्प स्याटट करे वाल्ले रमायणी त्लोगों को गा-बत़ाकर 












यकीभी और 


चत्तर्थ पाद को सममने की प्रक्रया द्डु 
जनता के रिक्वाने और पैसा लूटने से एुर्सत नहीं है। ऐसी स्थिति को देखकर ही शायद 
तुलसीदासती को लिखना पड़ा होंगा : 
हरहि शिण्प धना शोक न छहरही, 
सो गुरु घोर सरक मसहिं परही। 
जब भेता नग्क से नहीं इरते, त्तमाम दुनिया नग्क से नहीं इरती तो उपदेश करने 

वाले गुरु भी कहते हैं, “क्रमाश्रो, नरक्त अस्क फिर दखेंगे।! तो साधू भी मजबूत हैं, नरक 
के लिए पुरे तैयार हैं। चाहे नरक चले जायें परन्तु कमाने में नहीं चूकेगे। क्या आप लोग भी 
कमाते समय नरक थ्रादि की चिन्ता करते हो? नहीं करते। तो फिर वे ही क्यों चूकें? 
(बंग्य में) थे कोई ग्रलग से थोड़े ही भय हैं। तुम्हारे से निकलकर तो बाबा बने हैं, 
कथक्कड़ बने हैं। काम धन्धे वाली दुकान से कथा वाली दुकान अच्छी लगती है क्योंकि 
इसमें मान भी मिलता है और पैसा भी। लेकिन ऐसे लोग पन्‍्मार्थ की कथा नहीं कह सकते। 
इसलिए धन्य हैं वे ल्लोग जो उपनिषद्‌ सुनते हैं। उपनिषद्‌ का अर्थ भी यही है कि जो समीय 
से सुनाए, जो एस्मात्मा के बिह्कल झणीप ले जाये अर्थात सीधा वहीं। मैंने प्रारम्भ में इस 
उपनिपद का नाम 'माल्डुक्य/ वताबा था। 'मान्डुक्य! शब्द 'मण्डक' से बना है। 
प्रण्दक माने 'कृप-मण्डकः अर्थात्‌ कुएँ का मेंढक। 'मण्डूक' से ही आदि वृदि होकर 
माण्डक्य बना है। बह 'मेंदक उपनियद' है - ऐसा समझो। जैसे ज़मीन वाला मेंढक कोई 
खतग दिखने पर छलांग लगाकर पानी में कूद जाता है, ऐसे ही यह जीव जब संसार को 
देखता है तो ब्रह्म में, एरमार्थ में कृद जाता है। इस प्रकार परमार्थ में छल्लॉंग लगाने का नाम 
हों यह उपनिषद्‌ है। 
फिर कहते हैं: 
विकल्पो विनिवर्तेत कल्पितों सदि केनचित। 
उपदेशादयं वादों ज्ञाते द्वैलं ला विद्यते ॥ 
(इस विकल्य की यदि किसी मे कह्यना की होती तो वह निवृत्त भी हो जाता। यह (यु 
शिष्यादि) वाद तो उपदेश के ही लिये है। आत्मज्ञान हो जाने पर दैत नहीं रहता।) 

ः यह ढत गज्ञान काल में सच्चा था। तभी इसे गुर एवं शास्त्र की जररत थी। उप्त 
जिति में (अर्थात्‌ साधना काल में) उपनिषद सत्य है, गुठ सत्य है, मोक्ष सत्य हैं। जेब तक 
वन्धन लगता था तब तक मोक्ष सच्चा था। वन्धन सच्चा तो फिर मोक्ष वाना ही पड़ेगा। 
कब्र फिर गुछ एवं उपनियद भी सच्चा। फिर प्रश्न उठेगा कि क्या ये सच्चे हैं? कहत हैँ ये 


जी 
श्र इलक्ाागक 


सच्य तत्ती शक है जब नेक तेगे उत़ाने तर बन्थन सच्या है। कहाँ तृ जागा तो ने वहाँ 
ग़नियद सत्य, मे गुर बल, ने बाछ्षि स्य। के पिए 
एकमेवदितीयम क्रह्यः। 


7.६ आत्मा अदृष्ट, अव्यवहार्य एवं अग्राह्म है 


सास्लःप्रज्ञ न वहिप्पज्ञ नोभयतः प्रज्ञं न प्रज्ञानाधनं न 
प्रज्ञ॑नाप्रज्ञम। अद्प्टमब्यवहार्यमग्राहामलक्षणम- 
पचिन्त्यमव्यपर्देश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपंचोपणमंशान्तं 
शिवमदेत चतर्थ मन्यन्त स आत्मा स विज्लेय:। 
गत्मा खढट है। इसका उमा कि वह (गरत्मा) दष्ट नहीं है। वह कैसी 
है? यह नहीं बतावा। इस सल्दर्भ में पदुष्ट से कह पर्थ नहीं निकालना कि बह एसी है 
ववी एसी नहीं 6" सामान लग वात्या खाट है! का पय निकालते है कि वहाँ जान 
नहीं है। प्वक्ति पद क्र पर्य कब्र इला है कि ग्रत्मा दुष्ट कहीं है। प्र एन 
एन हुगा कि ऐि कह क्या है? 'उम्यकार्थी स्थान कहां कोई बवहार नहीं है। जो वस्त 
किसी काम में गाव वह बकहार्य कहलाती है। से पद्म एवं सई ब्यवहाय हैं। इसी प्रकार 
गसि व्यवहात है। भरगेर बबाय है। मन आग्ार्य है। बढि बहा है। पर आत्मा 
ब्वहार्य नहीं है। चूँकि वह क्रिग्री काम था उ्बोग में नहीं गाती, इसलिये उत्यवहार्थ है। 
इसीलिए एक जगह कहते है - जाया स्मणं विक्ाग लोभ इसे संत्यम...." विभिन्‍न गौज़ार 
जेंसे चाकू, कैंची, सई, छड़ं बवहार मे क्राम भरने हैं। क्या ब्रि् लोहा हा भी आपके काम 
गाता है? नहीं। वह ज्ाह बिना बाक, सई, सर्वा, थ्रादि बनें और फिर काम आये के 
हम्म ज्ञान। ; 
स्याप्त के प्रा्गभक दिनों में मेने क्र केस लिखा जिसका शीर्कक था "सोचो 
क्रीत नात्नयक ज्ाबक नहीं है: लिखने से पल्न इस विषय फ बहते पिन्तन किया था! गांव 
में प्राचन के दरिन कह दिया कक 'प्रह्म नालपक है" हुस प्रवयन को समकर कियी भोता 
ने अपने गँवि में कह दया कि "एक महात्मा वरह्य को नालायक कहो है।” यह सनक 
ग्राठ-ठत्त लोग लाठी लेकर मुझसे मिल्नने थ्रा का और पा कि ब्रह्म को माल्रायक कहें 
हो।/ मेन कहा, “जो क्राप्त जरात्रा है उसको लायक कहने हैं और ज्रो काम नहीं आए 
आपका नात्ाबकी | इसी व्राध्वार फ मैन कहा कि 'प्रद्म विल्कल भालाग्क है"।. प्व यह 


चतथ पद का सप्रन्नन का प्रोक््या 3१ 


बात उनकी समझ में आ गईं तो कहने लगे, “आपने तो कोई बगी बात नहीं कही।"” 
हमन कहा, “समन्नन बाल को क्या कहें वह भी नाल्ायक है”; जब यह बात उनकी समझ में 
आ गई तो पैर छा और चले गए। 
तदुपगन्त जब इन लोगों ने पहले वाले को बताया क्रि ख्वामीज़ी ने तम्हें भी 
“मात्नायक'' कहां है तो फिर वह भी लड़ने के लिए चल्ला जाया। उसको भी यह समझाया 
गया कि, “नालायक ब्रह्म होता है। तम्हें तो मैंने ब्रह्म कहा है। तम क्यों चिद रहे हो?”' 
वह खश हो गया। ु 
मैंने बोधसारा नामक एक पुस्तक पढ़ी थी। उसमें 00 श्लोक थे। एक 
प्रकण का नाम था “नन्मत्त प्रलाप शठकं!। इसका शाब्दिक अर्थ है उनन्‍्मादी की ॥00 
बातें। उनमें से एक बताता हैँ। तम कहते हो कि “्यभिचारी का मोक्ष नहीं होता” और 
उसने (लिखने वाले) ने कहा, “केवल व्यभियारी ही मक्त होता है।” व्यभिचारी कौन होता 
है? जा कई ख्रियों से संबंध ग्खता हो उसी का नाम व्यभिचारी है। तो, जाग्रत एक 
औरत, स्वप्न एक औरत, सप्रप्ति एक शर्त श्र यह (आत्मा या साक्षी) सबसे (जग्रत 
खण एवं सुपुप्ति) ज़ड़ता है शोर सबको धोखे में रखता है, श्र स्वयं किसी से कोई मतलब 
नहीं रखता। इसलिए आत्मा व्यभिचारी है यहाँ अवस्थाओं का व्यभिचार है। इसलिए 
व्यभिचारी मकत हां जाता है। ऐसी बहत सी बातें “उन्मत्त प्रलाप शतक” में बतायी गयी हैं। 
आम भाष्ठा में कृतन्नी एक गाली है। ओ किसी के किए हुए उपकार की नहीं 
मानता, उसे क्रतप्म माना जाता है। हम आत्मा को नहीं जानते थे तो गुरुदेव अनेक उपायों 
द्वाग ज़नाते यए। परन्तु जब प्र ज्ञान हो गया तो हम कहने लगते हैं कि आत्मा तो भज्ञानी 
है ही नहीं। गुद के किए गए उपकार को भी नकार दिया। इसका अर्थ यह निकलता है कि 
जो गृद को भी नकार दे वही पक्का चला है। कतप्नी से बढ़ा कोई चेला नहीं हो सकता। 
पहले मक्ति को हीं नहीं समझता था। गझ ने समझाया, मुक्त किया और समझने के बाद 
कहता है कि मैं तो फले से ही सदा मकत हैँ।” इसी प्रकार के ज्ञानी के सौ प्रलाप 
बोधसार में हैं। 
इसी पस्तक (बोध सागर) में ब्रह्मज्ञानी को गौ-हत्यास कहा गया है। वैसे धार्मिक 
ग्रन्थों में बताया गया है कि गौ-हत्या करने वाले का मोक्ष-कल्याण नहीं होता। परन्तु “उन्मत्त 
प्रताप” में कहा गया है कि जो गौ-कशी कर्ता है वही मुक्त होता है। “गोौ-कशी” मान 
इत्द्रियाँ। गौ इन्द्रियाँ हैं। इनकी जो कशी अधि हत्या करके जो आत्मा को प्राप्त करता है, 


ट्‌) मालक्योप्रनिणय 


वहीं मुक्त होता है। कहीं सुनकर गी-हल्या ने कर लेना। इ्सल्ए जानी की वां उन्माद 
गर्थाति उन्मतता की होती हैं। उस समग्र मे भी कुछ इसी प्रकार बोलता था। पत्र वो से 
गया है। एहल्ने मैं बजा था, “त्रह्म नालायक है, लोग बिंद जाते थ।”. उपनिषदर भी 
कहता है “व्त्मा उदुष्ट है, गात्मा उद्यवहार्व है, आत्मा गद्राद्य है।” जाग्त का गण हो 
गया। ख का? स्तन का? ऋण हा इसल शत्मा का ऋण श्रान्न तक नहीं हग्जा। 
आत्मा को कोई ग्रहण नहीं कर सकता। जाड़त ख़स्या प्राम हुई, खान प्रात हए, सुर्णात 
प्राप्त हुई। आपको गात्मा कब प्रान हई/ नहीं हई। इस्रल्िय श्ञात्मा ही प्राण कसी है। 
क्योंकि आप आत्मा ही प्राज करने थराये हो। पर साथ में हम मह भी कहते हैं कि उ्त्मा 
तो प्राज्त नहीं होती। इस सन्दर्भ में हम इतना ही बनाना चाहे कि 










गत्म को ही सत्र प्रान होता है। भ्रात्मा को जन के की उस नहीं 
है। भ्त्मा को पर्स ही प्राण करे है। जानी तो गात्मा ही हैं। 


“जानी तु आती में मतम"" 

जानी तो आत्मा ही है। उ्ेँ प्रात्त कमा कमा? क्या ग्रात्या दो हैं? क्या एक 
गत्मा दूसरी आत्मा को प्राप्त की? क्या गात्मा क्रोई घखवाल्री है जो पति प्रात करे? था 
वह कोई घख्ाल्ा है जो प्रात करे? क्या वहाँ आत्मा ॥0-]5 हैं जो प्राप्त करें? इसलिए 
आत्मा ग्राह्म नहीं है। शत्मा का कोई लक्षण नहीं है। जाग्त के लक्षण बता दिये कि वह 
सूल है। ख़त के लक्षण बता दिये कि वह कम है और सध््म ही उसके भोग हैं। सपत्ि 
के लक्षण बताये कि वहाँ अ््ञावता है. और झतमें कोई इच्छा, कामना, भय, आदि नहीं 
ते आत्मा प््क्षण है। पविल्य है। इसलिए गात्मा का विन्लन नहीं कला। चिन्तन 
ठड़ना है। आया अधिन्य है। ग़त्ता उल्बादेग्य है। ग्रात्मा ए्कात्मत्यय-सार है! 
एकात्मप्रयय अवर्ति एक के ही झबर प्रतव हैं। सम्पर्ण प्रतीतियाँ एक से ही हैं। इसीलिए 
आत्मा सत्र प्रतीतियों का एकामप्रत्नय अर्थात सत्र प्रलत्यों का एकमात्र सार हैं 
ग्रदापरमम ? आत्मा प्रंच को उपशम है। प्रहमं सब प्रपंच शान्तर झोते हैं या पहाँ पर सब 
खज की तह प्रांच हैं - वह जान लिया जाता है वह शर्मा है। उरी तक आपकी समग्र 
में केवल एक खान ही प्रंद है। एर सत्र प्रंच प्रदीति मात्र हैं, माया मात्र हैं, पत्मा के 


अतिस्क्ति अन्य कोई वास्तविकता नहीं है - यह जान लिया जाना है वही प्रयंधोषशम है। 


सतर्थ पाद को समझने की प्रक्रिया पु 


वही है शान्त। वहीं है जिव। वहीं है अद्ैद। वहाँ द्ैत सत्य नहीं है। द्वैत केवल मालम 
पुढता है, है अदैव। कंबल आत्मा है। जैसे खपत में वहत माल्मम पहते हैं, जाग्नत में भी 
बहुत मालूम पड़ते हैं, परन्तु तीनों अवस्थाओं में एक आत्मा ही है। उसी प्रकार पुरे 
ब्रह्माण्ड में कंबल बहुत मालूम पड़ते हैं फन्‍्तु है एक ही। _पही अद्ैत है, 8 है, चौथा है। 
“चतुर्थम्‌ मन्यन्ते” असल में चौथा माना है, है नहीं। ऐसा क्यों? क्योंकि आत्मा के तीन 
पाद गिना चुके हैं इसलिए चौधा है। तीन केवल माया मात्र हैं। प्रतीति हैं। असल में तो 
जाग्रत में, खप्म में सुपुष्ति में और बोध में भी केवल एक आत्मा ही है। आत्मा पहले ज्यादा 
थीं और शब एक रह गई हो - ऐसा नहीं है। वे तो सिर्फ़ अवस्थाएँ थीं, जिनके कारण ऐसा 
लगता है कि तुम हो, वो है, हम हैं। तुम, हम और वे मात्र, विश्व, तेजस, प्राज्ञ ही हैं। 
इसलिए जहाँ विश्व, तैजस प्राज्ञ माया मात्र हुए तहाँ आत्मा सर्वत्र एक ही है। 

पुनः उदाहरण द्वारा विषय को स्पष्ट करना चाहँगा साफी एक अस्तित्व है। इसमें 
तीन गाँठें हैं। एक हटेगी, तदुपरान्त दूसरी हटेगी और फिर तीसरी। और यहाँ (जाग्रत, 
स्वप्न एवं सुपुष्ति) में भी एक है। किस साफी में? इसी साफी (आत्मा या साक्षी) में। 
इसी साफी (आत्मा) में एक (जाग्रत) हुई, फिर दो (ख्वान हुए), फिर तीन (सुपरष्ति) 
हुई। इस प्रकार उसी साफी (आत्मा) में एक, दो, तीन होती रहती हैं। जो सुनने वाले है 
- ये सब एक (जाग्रत) दो (खष्न) तीन (सुप्ष्ति) वाले ही हैं। सुनाने वाले भी एक, दो, 
तीन वाले ही हैं। और ये (जाग्रत, खप्न एवं सुपुष्ति) चले गए तो फिर कितने हैं? एक। 
तो सत्य कितने? एक। अब ये कथा सुनने और सुनाने वाले कितने? न सुनने वाला, न 
सुनाने वाला। अब कई लोग शंका करेंगे कि आखिर गुरु तो सच हैं जिन्होंने समझाया। इस 
विषय में उपनिषद््‌ बताता है कि 
बताने के लिए ग॒र के र्प में जो जाग्रत है, साधक के रुप में जो सुनने 
लिए जाग्रत है, उन सबमें आत्मा एक ही है। 






अब प्रश्न उठेगा कि फिर गुरु समाता कैसे है? जैसे स्वप्न वाला। पतली से मिल का बैटा 
खिला ले और ज़गने पर कहे कि “बेटे ने बहुत सेवा की, पत्नी ने हमें बड़ा प्यार दिया। 


तुम्हिरे खप्म में ही तुम्हारा गुर है। जब तुम जागोगे (आत्मबोध को प्राप्त होगे) तो यह 


८५ प्ान्टक््योयनियद 


पनुभव करेगे कि “गृद्ध नेव शिष्यः चिदानन्द ग्य शिव्राछमम शिवोठहम।” परस्नु जब तक 
नहीं जगो, तब तक घख्बाली, प्रस्याले, लड़का, बच्चा श्र राच हैं।. जब नींद खलगी 
(स्व का बोध होंगा।) तो अनुभव कंसेगे क्वि “एक्रमवा दितीयम ब्रह्म” एक ग्रदितीय ब्रह्म 
है और कोई नहीं है। पम्रन्र में “चतर्थम मस्त दाग श्रात्मा को चौथा कहा क्योंकि अभी 
तीन लगते हैं। जब तीन बूठे था मादा मात्र लगने क्गं तो एक ही सत्य बचा। उसे ही 
चौथा माना है। अभी तक कहते थे “थे आत्मा”, ग्रे कहते हैं “स्रात्मा'। असल में 
वही है शत्मा। और यही (सात्मा सबिज्ञद) जानना था। इसी को जानने आब था यही 
है जानने योग्य। ज़नाना त्रीन से शुरु किया। पस्न्तु बंदर थे तीन ने होते, ने ज़नाते, तो यह 
चौथा समग्न में ही नहीं श्राता। 


छर्‌ 
तुरीय की मसहिसा 


| अध्यावों में ऑकार की तीन मात्राएँ और "सब $ ही है! मन्त्र द्वारा अमात्र 
की विस्तार से व्याख्या की गई। तदुपरान्त प्रात्मा के चार पाद ग्रौर “सब ज्त्मा ही है 
ब्क्त करने वाले दो मन्त्र सुने। तत्णण्यात स्थल, सक्ष्म तथा कारण क्री? के अभिमानी 
विश्व, तेजस तथा प्राज्ञ तथा इनकी अभिव्यक्ति की उब्स्थाएें - जाग्त, खप्ण, सुप्रप्ति को 
बताया गया। इसके बाद इन भ्रवस्थाओं में रूने वाले श्रात्मा तथा इन तीनों से विलक्षण 
(अन्तःजज्न, बहिप्पज्ञ आदि का निषेध करके जिसका बोध होता है) शुद्ध शिब्र आत्मा तुरीय 
का वर्णन किया गया। यह स्पष्ट किया गया कि आत्मा के बिना जाने जिसमें बाहर का ग्रहण 
होता है, आत्मा की अज्ञानता से आत्मा के नहते हुए हम गम रप से या इंदम रप से देखते 
हैं वह भ्रात्मा में कल्पित है। आत्मा को समझने की प्रक्रिया विस्तार से बतावी। यहाँ पर 
हम आत्मबोध प्रांप्त व्यक्ति की स्थिति के विषय में चर्चा करेग। 


६-९ आल्मवोध के बाद व्यक्ति कल्याण 
विषयक सम्पूर्ण चिन्‍ताओं से सुक्‍त हो जाता है 


तुगीय (आत्मा) एवं इसके जानने की महिमा को समझाने के लिए श्री 
गौइपादाचार्यती ने श्लोक लिखे हैं ज़िनकों कारिकाएँ कहा जाता है। इन्हीं श्लोकों में यह 
स्पष्ट किया जया है कि तीनों (जाग्रत, स्वप्न एवं सुपुप्ति) वास्तविक नहीं हैं, एक ही 
वास्तविक है - ज़ब यह समझ लिया जाता है तब तीनों ही स्वप्न लगते हैं। तब इनका 
होना, न होना समान लगता है। ऐसे बोध की अवस्था को कहा है 

निवृत्ते सर्वद:खानासीशानः प्रश्ुसव्ययः। 

अद्गैलः सर्वभावानां देवस्तुर्यों विभः स्म॒तः॥ 

(तुगीय आत्मा सब प्रकार के दुःखों की निवृनि में ईशान प्रभु (समर्थ) है। वह 
भ्रविकारी सब पदार्थों का अद्वैतग्प देव तुगीय और व्यापक माना गया है।) 








रे मालक्योपनिएदद 


यह वोधावस्था सत्र दुखों से निवृत्ति में इपान है, समर्थ है। इस चौथी प्रात 
शञात्मा का बोध सब चिन्ताओं से मक्त करने में समर्थ है। ग्रौर “संदभावानाम पदत:” यह 
सभी भावों में गदैत है। “देव: तगीय” बह चातर्थ देव है। “विभ:” श्र्थात व्यापक है। 
सीमित नहीं है। यह जाग्रत, स्वन, संपत्ति में ही नहीं प्रपित सम्षर्ण ब्रह्माण्ड में व्यापक 
है। विश्व में जहाँ ज़ड़ता है, पशुता है, मनुप्यता है, अन्तःकर्ण है, पृथ्वी है, पहाड़ है, वहाँ 
सब जगह कहीं प्राज्ञे के व्यू में, कहीं तेजस के सप में, कहीं विश्व-अर्थात वहिफ्राज्ञ के रथ में 
प्रतीत होता है परन्‍्त सब्॒में सत्य तो साक्षी ब्रह्म ही है। इसलिए ब्रह्म की व्यापकता का बोध 
होने पर यह आत्मा सीमित और नाना नहीं लगती। अपरिझिन्न ब्रह्म एक आत्मा ही है। 
कार्य काग्ण बही ही” कार्य कारण से दोनों वह हैं। कौन से दोनों? जाग्रत और ख। 
कार्य भी है और कारण भी है। सवग्य का, तत्त का, सत्य का भ्रज्ञान और सृष्टि का ज्ञान। 
कष्ठ देखते भी हैं और भ्ज्ञान भी है। इसलिए कार्य, कारण थे दो से बंध हुए हैं। 
जाग्रत शरर खज़ के विश्व और तैत़स दो से बंधे हैं - पज्ञनता (आत्मा का 
अज्ञान) से भी और सृष्टि जान से भी। “शप्राज्नः कारण बहुस्त” - प्राज्ञ कारण मात्र अर्थात 
केवल प्रज्ञान से वधा है। सापप्ति में प्राज्ञ यह नहीं सोचता कि सुप्टि नहीं है। वह सोचता है 
कि वहाँ सृष्टि का प्रत़्ान है। यह नहीं सोथता कि सिर्फ थे दिखता ही था, केवल में ही 
सत्य हैं। इसलिए प्राज्ञ कासण्ण से बँधा है और तुरीय में ये तीनों नहीं रूते। उसमें ने 
कारण रहता है, न कार्य मता है। साक्षी ने कार्य से वेधा है ड्रीर ने ज्ञान से। जब वह 
यह जान लेता है कि “भ्ज्ञान भी कल्पित है और जान भी कल्यित है, शद्द तत्त्त तुरीय ही 
सत्य है” तब वह किसी से वँधा महीं रहता। इसलिए तगीव मक्त तत्त्व है। 
नात्मान न परांश्वेव न सत्यं नापि चानृतम। 
प्राज्ञ: किन्चन संवेत्ति तुर्य तत्सर्वदृक्सदा॥ 
प्रात्ञ न तो अपन की, ने पेय को शरीर ने सत्य को अबवा अनृत को जानता है 
किन्तु वह तुरीय सर्वदा सर्वदक है) 
जान क्ात्ता की जाने, न दस को जाने ने सत्य को और न ब्ठ को उसको 
प्राज्ञ वालते हैं। “श्राज्ञः किन्वन संबेति” प्राज्ञ कठ भी नहीं जानता। “तय तत्सवंदृक्सदा' 
तृतेव सदा सं कृछ्ठ जानता है। क्योंकि वहाँ अपने अतिरिक्त वास्तविक कठठ है ही नहीं। 


इसलिए वह ने भी जाने तो भी जानता है, और जाने तो भी जानता है क्योंकि न जानना 
भी तो अज्ञान-कह्पित ही है। 


त॒गीद की महिमा ८५ 


पुनः चिन्तन करें। क्या खत से जग जाने के वाद आप यह कहोगे कि मश्े 
सम का ज्ञान नहीं है? नहीं। स्प्त से जग जाने वाला आदमी अब कहेगा कि अब मुद्े 
ख़न दिखते नहीं हैं। जागा हुआ कहता है कि ख्प्म है ही नहीं, देखूँ क्या? जागे हुए 
आदमी को ख्न दिखते नहीं कि स्वप्न होते नहीं? दिखते नहीं? तो तब कहें जब हों और 
मुध्ते न दिखें। 'सुपुप्ति में जगत नहीं दिखता' ऐसा प्राज्ञ भानता है। क्यों मानता है? 
क्योंकि जगत की सत्ता मानता धा और अब वहाँ जगत दिखता नहीं इसलिए सुप॒प्त व्यक्ति 
अपने को अज्ञानी मानता है। जैसे खपत से जागा आदमी खबं को ख्प्मों का अ्ज्ञानी नहीं 
मानता, अपितु स्व्नों का अभाव देखता है उसी प्रकार सुपुप्त व्यक्ति स्व और जगत का 
अभाव नहीं देखता, वल्कि “भञझ्ले दिखता नहीं था” - ऐसा देखता है। अन्धेरा हो जाए तो 
मैं कहुँग कि, 'तुम मुझे नहीं दिखते।' मान लो समा बन्द हो जाए और इस सभा पण्ठाल 
में कोई आदमी मुझ्ते नज़र न आये तो क्या मैं कहँगा कि मुझे आदमी नजर नहीं आ रहे? 
नहीं। तो क्त्मज्ञानी वास्तविक आत्मा के भ्रतिर्कति जगत को कुछ स्वीकारता ही, नहीं। 
इसलिए वह अज्ञानी हो ही नहीं सकता। ज्ञानी तो वे मूर्ख होते हैं जो जगत को मानते हैं 
और कहते हैं कि हमें नहीं दिखता। इसलिए प्राज्ञ अज्ञानी है पर आत्मवेत्ता अज्ञानी नहीं हैं। 
इसलिए वह जगत का अभाव देखते समय भी यह नहीं मानता कि “जगत का अभाव नहीं 
दिखता है। मेंरे को ज्ञान नहीं रहा।” वह देखता है, कि ज्ञान तो है पर जगत नहीं है। 
ज्ञान तो है पर खपत नहीं है। ज्ञान तो है पर नींद नहीं है। मैं तो हैँ पर जगत नहीं है। 
इसलिए वह अपना अभाव नहीं देखता, जगत का अभाव देखता है। वह सोता नहीं है। 
सोने बाला ज़गत का अभाव न देखकर अपने ज्ञान का अभाव देखता है। जब ज्ञानवान जगत 
नहीं देखता तो वह ज़गत का अभाव देखता है। जिसने सम्पूर्ण अवस्थाओं का अभाव देख लिया 
हो वह किसका अज्ञानी होगा। जगत का? नहीं। जगत का आज्ञानी है नहीं और अपना? 
आप तो है ही आत्मा। इसलिए आत्मा का अज्ञानी नहीं। जगत है नहीं, इसलिए जगत का 
भी अज्ञानी नहीं। इसलिए आत्मवेत्ा कभी अज्ञानी होता ही नहीं। यदि ज़गत-दृष्टि छोड़ दो 
तो तुम भी अज्ञानी नहीं हो। इसलिए तुरीय सर्वदृक है। 

अन्यथा नसुहकतः स्वप्नो निद्धा तत््व्मजानतः। 

विपयस्ि तयो: क्षीणे तुरीयं पदमझनुते॥5॥ 

(अन्यथा ग्रहण करने से ख्न होता है तथा तत्त्व को न जानने से निद्रा होती है। और इन 
दोनों विपरीत ज्ञानों का क्षय हो जाने पर तुरीय पद की प्राप्ति होती है।) 


प६ पन्दक्योपनियद 









ब्र्यया ग्रहण का नाम ख्म है ग्रैर सत्र के, सच्चाई के यान न 
रखने का नाम नींद है 


गन्य कष्ठ दिखने लगने का नाम खान है। इस जगत के ने दिखने को तुम नींद 
कहते हो या नहीं? नींद कहते हैं। श्राप्र प्रावः कहते हो कि छप्म में भी नींद थी। में 
पुछठता हँ कि ज़ब शाप स्वत देख ही रहे थे तो उसे नींद क्यों कहते हो? नींद तो कुछ ने 
दिखने का नाम है? यदि नींद ग्रीर खत को संक्षय में बतायें तो कह सकते हैं कि 
ने दिखने का नाम नींद और अन्यथा दिखने का नाम ख्वप्न है। 
खग्प से अन्यथा जगत है। अन्यथा को सत्य देखना स्वप्न है और 
अपन का ने दखना नींद है। 





“अन्यथा युकृतः स्वप्नो निद्धा ततक्त्मजानतः'' तत्तत 
के मे जानने का नाम निद्रा है ग्रीर विपरीत देखने का नाम ऋण है। 
“विपयसि तयोः क्षीणे तुरीयं पदमणश्न॒ते” 


६-२ आत्मवोध प्राप्त व्यक्ति अज, - अनिद्ध 
एवं स्वप्नरछहित अनुभव करता हि 


विपरीत भावना भी चल्ली गई शरीर ख्वग्य की भ्रज्ञानता का भ्रम भी हट गया। 
ज्ञान-सस्प हो तो फिगर “विष्यात तथोः” इन द्वानों के क्षय हो जाने पर ''क्षीण तरीबम 
एदम्नुत'' तुरय पद उ्थ्ति भ्ात्मणद का सख्त प्राप्त हो जाता है। 
अनादिमाययासप्लो यदा जीव: प्रवध्यते। 
अजमनिद्धमस्वप्नसदेल बध्यले लतदा॥।60 
(जिस समय भ्रनादि माया से सोया हम जीव जागता है उसी समय उसे आज़, श्रनिद्र और 
खणगहित अदैत आत्मतत्त्त का बोध प्राप्त होता है।) 


बेगीय की महिमा ८७ 


ज़ाग्रत में, खप्न में, सपप्नि में, श्त्मा से अनभिन्न रहकर अनादिकाल से सोया 
हग्ना यह जीव ज़ब जागता है तो सबको र्वप्म मान लेता है। जब सबको खप्न मान लेता है 
तब वह जोगा हुआ कहलाता है। तब यह अर, अनिद्र और अस्वन वाला कहलाता है। 
अप्ती तक जन्‍्मा कहता था। अब यह भ्रज़न्मा कहलाता है। तब यह कहेगा कि अजन्मा होने 
के साथ ही उत्र नींद भी मश्ने नहीं। आत्मा में भ्रज्ञानरपी नींद नहीं है। इसलिए इसे 
“मनिद्म” और “अख़नम” कहा क्योंकि खत की पहिचान है कि जो सच्चा लगे। अब 
वह सम्पूर्ण जगत आत्मा से भिन्न सत्य नहीं लगता। इसलिए इसे (आत्मा को) अजम्‌ 
अनिद्रम, अखप्नम, अदैतम, कहा। 


0 


आत्मा और उसके पाठों के साथ ओऑकार 
और उसकी मात्राओं की एकता 


सोषयमात्माध्यक्षरमोंड्ञारोइधिमात्र॑ पादा मात्रा 
मात्राएच पादा अकार उकारो मकाश इति ॥८॥ 


(वह यह आत्मा अक्षर दृष्टि से ऑकार है, वह मात्राओं को विषय करके स्थित है। पद ही 
मात्रा हैं और भात्रा ही पद है। वे मात्रा श्रकार, उकार और मक्कार हैं।) 
मैंने पहले यद्रपि बोल दिया था कि थम में 'श्र', 'ह ब्लोर 'म होते हैं, फ 

बहाँ ओम मात्र कहा गया था। यह भी बताया गया था कि भूत, भविष्यत, वर्तमान, सत्र 
श्रेम ही है। जो वर्धमान में हो वह, जो पहले बोला जा चक्रा हो वह, भर जो आगे बोलना 
हो वह सत्र, श्रोम होता है। 'अ' वोल चके। :व '3' पल रहा है। मे! आने वाला है। 
इस प्रकार जो शान वाला है, जो अभी है, और जो बीत चक़ा है, वह सब थीम ही है। 

सोझबमात्मा' अर्थात जो अभी तक आत्मा बताई, वह यध्यक्षर वाचक की दुक्ि 
से आकार है। जिन शद्धों से बोलकर बताते हैं वे वाचक होते है। जिसको शब्दों से बताते 
हैं वह वाच्य होता है। जैसे कथा, कध्य और कंथक्केड तीन शब्द है। जो कथा करता है 
वह कथक्कड़ और जिसकी कथा की जाए वह क्रध्य होता है। अर्थात चौथे की कथा है वह 
अक्ध है। इसलिए तीन की कथा की है। पर कथा करनी किसकी है? चौथे की। तीनों 
को कह दिया यह ऐसा नहीं है' बच्चे यही इसकी कथा है। उसकी सीधी कोई कथा नहीं 
है। इसलिए जाग्रत के विश्व की कथा, स्वप्न के पेय की कथा और सापप्ति के प्राज्ञ की 
कथा कही। ये (ग्रत्मा) वह नहीं है', 'ये नहीं है! 'इन पत्र में है', यही उसकी कथा 
है। अर उसी को कहा कि स्ोठय्रात्मा' अर्थात कही आत्मा है। 

क्ष की दृष्टि से, भाषा की दृष्टि से, शल्द की दाष्टि से थे ऑंकार है। और 
वह सं जो ऑकार है, वह अधिमात्रा से मात्रा वाल्मा है। माद्रओं का आंध्र करके वह 
ग़त्मा रहता है। इन्हीं मात्राओ के सहारे आत्मा बोला जाता है एवं कहा जाता है। मा्राओं 


पर न के है? उसकी प्रात्राद्रा दी एकता 
आता और उसके पादा कि याथ आकार हाग इसका प्रा्राद्शा को इछत ए 


के सहांए ही $ का उच्चारण किया जाता है। ऊ बिना मात्राओं के बोल कर दिखाओ। यदि 
[, ३ तथा म न निकालें श्रीर जुबान न खोलें तो क्या बोल णाओगे? नहीं। आत्मा के चार 
पद ग्ंकारा को आप्रय करके रहते हैं। इन्हीं के सहारे वह बोला जाता है, प्रकट होता है 
तथा कहा जा सकता है। यदि इसका वर्णन करना हो तो ऊ ही बोलना पड़ेगा। इसलिए 
"तत्व वाचक प्रणद:” अधथति प्रणव ही उसका वाचक है। प्रणव के बिना उसको ठीक से 
नहीं कहा जा सकता। 
'अधिमातनत्र पादा मात्रा मसातन्राश्च पाद्या' 

पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है। पाद और मात्रा एक ही चीज़ है। तीन 
मात्रा, तीन पाद। अमात्न ज्रौर तरीय। जो ग्रोम है वही आत्मा है। जो आत्मा है, वही ऊँ 
है। जो ब्रह्म है वही आत्मा है, जो शात्मा है वही ब्रह्म है। जो आत्मा है वही ऊ है। 
अन्त में फिर कहेंगे कि मात्रा ही पाद है और पाद-ही मात्रा है। मात्राएँ तीन हैं तो घाद भी 
तीन हैं। फिर कहते हैं कि वहाँ जो अमात्र है वही यहाँ तुरीय है। इस प्रकार इनकी एकता 
स्थापित की गई। फ़िर कहते हैं कि किसकी किससे एकता करें? कितनी मात्राएँ हैं? तो 
कहते हैं अकार, उकार, मकार की। 


५७.९ अकार और विश्व (बहिष्प्रज्ञा) की एकता 


जागरितस्थानो बैश्वानरोइकारः प्रथमसता साजाप्लेराठटि- 
मत्त्वाद्ाप्पोति ह वै सवन्किासानादिश्च भवति, स 


एवं वेद॥९॥ े है 
(जिसका जागरित स्थान है वह वैश्वानर व्याप्ति और आदिमत्त्व के कारण (ऑकार की) पहली 
मात्रा श्रकार है। जो उपासक इस प्रकार जानता है वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लता 
है भ्रौर महापुस्पों में आदि (प्रधान) होता है।) े ५ 
जाग्रत स्थान का जो वैश्वानर है, यही अकार है। ऊँ का अ और आत्मा के प्रथम 
पाद का अ उर्धात जाग्रत.. विश्व और अ एक हैं। क्योंकि $ में अ पहला ही नम्बर है 
और सृष्टि में आत्मा का प्रथम पाद जाग्रत विश्व भी पहले ही है इसलिए पहले को पहले से 
जोड़ना है। इसके कुछ लक्षण भी मिलते हैं जैसे व्यापक्ल। एक दिन मैंने पूछा था कि 


गरपने के, ख, ग, घ पढ़ा है या के, खे, गे? इसका मतलब के में भी अ, ख में भी अ, 


९) म्राइक्योपनियद 


सत्र बंजनों में भ। वैसे तो खरे 3 भी है। परत पहने शाम प्रधानता थर की रही है। 
की प्रधानता से हमने भाषा विज्ञान स्रीखा। ऐसे ही हम सभी ज्ञान जाग्त के वैश्वानर में 
ही सीखते हैं। सीसने का काम भी यहीं होता है, इसलिए भी ढोनों के गुण मिल्लने हैं। 
जैसे शादी में गण मिलाएं जाते हैं। उसी प्रकार यहाँ भी हम प्रकार और विश्व की एकता 
करते समय उनके गणों की समानता पट विचार करे 

'अ' का झित्रा विश्व से है, वैश्वानर से है। जाग्रत के अभिमानी अति विश्व से 
अकार का मेल खाता है। वाणी में उस्चका वर्चस्व है। इसी प्रकार ज्ञान-विज्ञान में भी इसका 
महत्व है। इसलिए इसकी एकता है। संल्या में प्रथम क्रम की दृष्टि से, ग॒णों से, 
अिव्यक्ति से तथा व्यापक्रल से भी समानता है। सापप्ति की अभिव्यक्ति ख्न की 
अभिव्यक्ति, तथा जाग्त की अअप्नि्यक्तति [ज़ं इन सबका निर्णय यहीं होता है। यदि कु 
बोलना हो तो '॥' के सहारे ही हम बोलते हैं। इश्चलिए 'शप्तेः ग्रादिमला' - व्यापक हाने 
से और एहल्ा होने से “अर” और वैश्वानर एक है। 
“आप्नोति ह वे सन कामानादिण्य भवति, य एवं वेद” वह सत्र कामनाओं का आदि है जो 
इस पहली मात्रा की एकता को जानने लगता है। वह सृष्टि में, मनुष्यों में गरादि एुर्प होता 
है। वह भनुषनों में प्रष्ठ होता है, मान्य होता है। “सन कामान आप्नोति” वह सभी 
कामनाओं को पूर्ति कर लेता है। उसकी कोई कामना उधरी नहीं हही। उसकी वक्ति में 
कोई कमी नहीं रहती। वह अकार की वैश्वानर थे एकता करके अपनी विभृता को और उक्षर 
की विभुता के माध्यम से अपने को विश्वय्य उनुभव करता है। 


५७-२2 उकार और तैजस (अन्तःप्रज्ञता) की एकता 


स्वप्नसस्थानस्नैजस उकारो प्ितीया 
सात्रोल्कर्षाद्भयत्वादोत्कर्षीती ह वे ज्ञानसस्ततिं 


कप भवति नास्यात्रह्मवित्कुल,. भवलि, य एवं 
द ॥९१0॥ 


(खान जिसका स्थान है वह तैजस उत्कर्प तथा मध्यवर्तिच के कारण ओकार की द्वितीय मात्रा 


उकार है। जो उपासक ऐसा जानता है वह अपनी ज्ञान सन्तान का उत्कर्प करता है, सबके 
प्रति समान होता है और उसके वंश में कोई ब्रह्मज्ञानहीन पुर्ष नहीं होता।) 


ब्रात्म और उसके पाद्य के साथ ह्रोक्ार डोर उसकी माज्माश्नों की एकता ९१ 

स्वप्न स्थान का जो तेजस है वह 'उ' है। '' की एवं तेजस की (खप्न वाले) 
की एकता क्यों है? क्योंकि सृष्टि वहाँ (जाग्रत में), सृष्टि यहाँ (खप्न में), स्वर 'उ' भी 
है, खर 'अ' भी है। मैं पूछना चाहूँगा कि फिर स्वप्न को नम्बर दो क्यों दिया? क्योंकि 
$ में भी उकर बड़े महत्व का है। एक तो 'श्र! से शुद्ध करते हैं, फ़िर 3? में जाकर 
ज़ोइते हैं। # के श्र, 5 तथा मे में '5ः उत्कर्ष भी है और मध्यवर्ती भी हैं। अ और म्‌ 
के बीच में 'उ! है। सुपप्ति श्रीर जाग्रत के बीच में स्वप्त है। इस प्रकार विश्व और प्राज्ञ 
के बीच में तैज़स होने से तैज़्न और उकार की भी एकता है। उमबत्वाद! अथति उम 
होने से और उत्कर्प आदि के होने से इन दोनों की एकता है। 'ज्ञान सन्ततिं समानश्य भवति 
नास्वा ब्रह्म वित्कले भवति, ये एवं बेद' अधथर्ति 

उपर वर्णित इस उकार की और तैजस की एकता को जो इस तरह जानता है वह 
ज्ञान सृष्टि वाला, ज्ञान सम्तान वाला होता है। वह गुरु होता है और शिष्यों को जन्म देता 
है। पुत्रों को जन्म देने वाला नहीं, शिष्यों को जन्म देंने वाला होता है। वह इस उपदेश 
द्वारा उपरोक्त वर्णित ज्ञान की सृष्टि पैदा करता है। ऐसे कूल में अर्थात उसके सत्संगी 
एखिर में, भ्रोताओं में भ्क्ञ नहीं रते। अव्ह्मवित नहीं होते, व्रह्मवित्‌ होते हैं। क्योंकि 
प्रतिदिन चर्चा एवं चिन्तन का केन्द्र बिन्द्र वही रहता है। अन्य पर प्रमुखता नहीं रहती। 
जिस प्रकार वत्तत का बच्चा पैदा होते ही वदि पानी में फ्रेक दिया जाय तो तेरने लगता है। 
इसी प्रकार ब्रह्मज्ञानियों के बच्चे 'सोउहम सो5हम' 'चिदानन्द ग्यः शिवो5हम शिवो5हम” 
बैसे ही चिल्‍्लाने लगते हैं। इस प्रकार जो इसको ठीक से जानता है. उस ब्रह्मज्ञानी के कुल 
में कोई अन्नह्मवित नहीं होता। 


५५.७३ सकार और प्राज्ञ (प्रज्ञानघधन) की एकता 


सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा, मितेरपीतेर्नबा 
मिनोलि हक वा छद सर्वमपीतिश्च भवलि य एवं 
बेद॥ ६११२१ 

(स॒पप्ति जिसका स्थान है वह प्राज्ञ मान और लव के कारण ओंकार की तीसरी मात्रा मकार 
है। ज्ञो उपासक ऐसा जानता है वह इस सम्पूर्ण जगत का मान - प्रमाण कर लेता है और 
उसका लव-स्थान हो जाता है।) 


९ मालक्यायनिपद 


सपप्ति स्थान वाल्ना जो प्राज् है वह ऑकार की तीस मात्रा मकार है। ऑकार की 
तीयरी मात्रा मकार और संर्पीन खान का प्राज् एक ही है। इनकी एकता क्यों है? . एक 
तो तीनों ग़ख्विर के हैं। इन दोनों (विश्व एवं तेजस) करा लग इसी (प्राज़) में होता है। 
विश्व, तेजस का तब प्राप्त में है। # के अकार' और 'उक्कार' का लव मकार में होता है। 
अकार श्रौर उकार का लब मकार में होने के बाद जब दुवाग # बोलते हैं तो श्र! फ़िर उसी 
से निकलता है। जैसे #, #, # का चक्र बना ढो। $ का वास्ार उच्चाग्ण करने 
पर पता चल्नगा कि मे में 'अ' दौर ३ समा गए गौर दवाग भर, उ उसी से फ़िर 
निकले। इसी प्रकार ज़ाग्रत और खप्म दोनों स॒परप्ति में समाते हैं। इस प्रकार हम स्थान 
होने से द्ानों की सम्रानता है। दोनों को अपने में इस प्रकार सप्रा ह्त हैं जैसे थोड़ी चीज़ 
बढ़े बर्तन में समा जाती है। 

वामन भगवान ने तीन पैगें में सत्र कठठ नाप लिया था। इस आत्मा रणी ब्रह्म ने, 
बिणा भगवान के तीन पदों में जाग्रत-जगत, खम-जगत, सुपप्ति सत्र नाप लिया गया। 
कितने पैर में? दो में तो सत्र जगत नये सब और कहने लगे “उन्र क्या नाप?” गज़ा बलि 

कहने लगे, “अर हम हीं को नाप लो।” सब विणु ने ले लिया। तो ये आत्मा ग्पी विण, 

शिव दो में ही सत्र कछ ने लेता है। बचता ही कुछ नहीं। तुम्हारा द्वो में ही सब कुछ 
गया। तीसरे में तो प्रात्ने हो गया। इसलिए सुप्ृप्नि का प्राज्ञ सब कछ नाप चक्ा है। वहाँ 
कुछ वचता ही नहीं। इसलिए नाप लने के कार्ण और लब-स्थान होने के कारण प्राज्ञ की 
शरीर मकार की समानता और एकता है। 
इद सर्वभमपीतिश्च भवति य एवं वेद अर्थात ज्ञो ्क्ति इस 
तरह जानता है वह सात सृष्टि को नाप लेता है, लब-स्थान बन जाता है। इसी अर्थ में 
भगवान कृष्ण कहते है - पिता ऋम अस्य जगतः मैं इस सारे ज़गत का पिता हूँ। मुझसे 
यह सृष्टि हुई है। पर में ही लय होती है। आर्वसमाजी कहते हैं कि यह गीता गलत है 
क्योंकि कुण अपने को भगवान कहते हैं। हमारे यहाँ यद्रि यह मे कहें तो हमास उपनिषद पृ 
ही नहीं होता। यदि थोड़ा सावधान रहें तो लगेगा कि थे सारी स॒प्टि कृष्ण से ही नहीं अपितु 
तुम्हार ही प्राज़् से निकलती है और फ़िर लव होती है। तम विणा हो क्योंकि तम्हीं ने सब 
कठ नाप रखा है। तुम्हीं शिव हो क्योंकि तुम में ही सब अध्यस्त जहाँ सब मर जाते हैं, 
शिव बावा भस्म लगाकर बैठे हैं। सबकी भस्म लगाकर तुम्हीं तो बचते हो। तुम शिव हो। 


3 5 5:00: सडक लि 2 कप 8 2257: 7 ५ :टेट ३५ ह 
की वआ/ 5 कक ९४ & 4 6. इन हर भरना 3 


तेम किए हे। नम कृष्ण हो। पसन्‍न उतार की दि से नहीं, उनकी यामर्ध्ध की दृष्टि से 
हक क् 
की। उनके इलिस्व पर्थात साक्षी की दप्टि से कृण हो, शिव हो। 


ड़ 








हैं। खब उनका एक्र चोगे ऋग्ता है, मम सत्यंग करते हो। तुम कल्याण को ग्राप्त हो 
, बह नहीं प्राज होगा। तम कल ज्ञानने-तानते एम्म-तत्त को प्राप्त होकर मुक्त हो 
पड़ेंगे कह और नग्के चन्ना जादगा। भगवान ने कहा प्ियम्बहम'। उसको कहाँ एक देते 


हैं? शक्ष में। दुःख में पके देते है। इस तन्ह से प्रो इस अवस्था को जानता है, वह 
आप का कि कं 2८ किम थी ध हाई गाद बन्दनीव 

छा में भादि हो जाता है। सह बोगियां में, ऋषियां में, मुनिर्या में, आदि बन्दनाथ होता 

$ हैः उयकी कोई कामना उधगी की खेती है। बहिक उनके समीण रहने वालों की भी 

! श्रेग इसकी कोई कामना अधगी नहीं झुती है। बल्कि उनके समोध रहने बोलो के 

जल हु न्विनि हो जा 4 नल कलम 

पदों हमेना। विवि हा जादा है, पथ हा जानी ह। 


७9.४७ अमात्र और आत्मा की एकला 


अमात्रशएचलुथोंडिव्यवहार्स प्रपंचोपशमः शिवोषइदैत 
एक्सोक्लार. आत्मैीब संविशत्यात्मनात्मानं थ एव वेद 
गा फेनज औज पी है 
(पराग्रारहित अक्रार तरीय आत्सा ही है। वह उद्यवहायं, पयदोयशम, हित हर इंपह है? 
इस पका श्रोंकार वरात्मा ही है। जो उसे इस प्रकार जानता है, वर खत झेल शाला | 
है पेश कर जाता है) 

यहाँ प्रश्न पा जा सकता है कि अमाज् क्या है? सेंकार हैंती है, उहर होता 
है, मकर होता है, एस यह अम्ात्र क्या है? ऐसा लगता है जैसे अमाते कोई कंपोल- 
कल्पिन बात है, ब्ठ है, फ्राड है। प्र होता है, उ होता है, परल्तु हम एुछत है कि, 3 
४यी मे किसम होते हैं? “#” प्र 

पा ने 'ओउम' इस प्रकार लिखते है। शॉर्गेद उनको इस प्रकार 
लिखा $ ऋत्यना लगती है। विभिन्‍न भारतीय भाषाओं में एक ऑकार अलग प्रकार से 


वंगालियां का 5, पंजावियों की $, 
लिख्चा गया। बंगालियों का 5, दक्षिणबासियों का 3 न 
भाषाओं का # अलग-अलग है। उन्‍्य को छोड़ो भर्यसमाजी एवं सनातनियों का 


| डिज़ाइन 
प्रेम उल्नग-त्नग है। सनातनियों का (#' में है। इसमे चन्द्रमा और विन्‍्दी, मे डिः 


रु मान्दक्यापनिपंद 


समनातमियों के "४ की है। हम लोगो ने भगवान का नाम भी अलग-अलग कर रखा है। 
चकि हिन्दी एवं संस्कृत की लिप में अ, उ तथा में को सब्र जानते हैं और अ+ठ «वो 
होता है, इसलिये आर्यसमाज़ ने शायद ज्यादा ईमानदागी के कारण ज्रो दिखता है पैसा ही 
ओउम लिखना प्नन्द किया। भ्रधति कत्यना को कोई स्थान नहीं दिया। 

सनातनियों एवं आर्यसमातियों दोनों की लिपि एक सम्रान है। तीनों ही वर्ण दोनों 
के यहाँ एक जैसे हैं। फिर आर्वसमराजियों एवं सनातनियों का ओम दो कह का कंसे हो 
गया? जिनकी लिपि अलग है उनके # का डिताइन बदल्न जाव तो कोई बात नहीं। अब 
जैसे अंग्रेज़ी में कोई गेम लिखना चाहे वो "0)/' इस प्रकार हिस्लेगा। वहाँ "0' से ही 
गो हो गया। उनकी लिपि अत्नग है। उनसे लिपि के भेद का कोई विवाद नहीं है। एस 
सनातनियों एवं आर्यस्रमाजियों दोनों की लिपि हिन्दी होने के बाद भी ये दो तरह के ओम 
क्यों लिखते हैं? समातनियों ने अपना ओम अलग करने के लिए डिजाइन थोड़ी बदल दी। 

जैसा कि उपर बताया गया आर्यसाम्ाजी अपने को ज़्याठा ईमानदार मानते हैं। 
चुँकि 3, ; तथा मे तीनों वर्ण दिखते हैं उत्त “ग्रोई्म” लिखने में वे समझते होंगे कि 
उन्होंने कोई कव्यना नहीं की। फरन्‍त यदि उन्होंने ओठम लिखने में कोई कत्यना नहीं की 
नो हे में अ्मात्न का विश्लेषण कैसे करेंगे? प्र हों गया, 2 हो गया, में हो गया, अम्ात्र 
कहाँ है? 


५०.५ विश्वास एवं अध्यात्म 


यदि बहुत ईमानदार व्यक्ति इलाहाबाद जावे और वह प्िवेणी (गंगा, बना तथा 
सरखती का संगम) में लान कर लें तो हम उन्हें एक लाख झयये इनाम देंगे। विमा कह्मना 
अथवा अन्ध विश्वास के यदि कोई ज़िवेणी में स्नान करके लौट तो हम उनके शिष्य बनने को 
तेयार हैं। क्या क़ोई व्यक्ति गंगा तथा बमना के अतिरिक्त श्रीस़गी नदी भी वहाँ दिखा 
प्रयेगा? कहेगा नीचे से आदी है, कोई कहेगा उपर से इतनी है। दो नदियाँ अर्थात 
गंगा तथा यमुना तो हैं, पल्तु वहाँ तीसरी अर्धात सरखती तो है ही नहीं। 


बिना विश्वास के अध्यात्म चत्र ही नहीं सकता। 


थ्रत्मा और उसके पादों के साथ श्लोंकार भर उसकी माताओं की एकता श्पु 


व्यवहर में अमृत और जहर दो शब्द बोले जाते हैं। जहर तो आप जानते हैं परन्तु जहर की 
तर अ्रमृत भौतिक नहीं है। हम पशु, पक्षी, मनुष्य यहाँ तक कि साधु को भी जहर देकर 
मार सकते हैं क्योंकि जहर भौतिक है। यदि अमृत भौतिक होता तो किसी भी जीव को 
चाहे वह आर्यश्चमाज़ी हो, नेता हो या अन्य कोई, अमृत के एक इंजेक्शन से अमर किया जा 
सकता था। ऐसी स्थिति न केवल आदमी को बल्कि गधे को भी इंजेक्शन लगाकर अमर 
किया जा सकता था। परन्तु अमृत सिर्फ मनुष्यों को ही क्यों मिलता है? क्योंकि वहं 
(अमृत) बुह्य्राद्म है। वह भौतिक नहीं है, इन्द्रिवग्राह्म नहीं है। इसलिए भौतिक जगत में 
भ्रमृत केवल शब्द द्वारा ही मिलता है। सरस्वती भी भौतिक नहीं है, वह भी अभीतिक है। 
वह ब्रह्मखरप है। इसलिए अमात्र भी जुबान और इन्द्रियों का विषय नहीं है। वह अ तथा उ 
से विल्क्षण है। इसीलिए सत्य सब अतीन्द्रि है। इसी तरह अमृत भी अतीन्द्रिव है। 
ऐसा नहीं कि अमुक आदमी को अमृत मिल गया। परीक्षित को भी भौतिक वाला नहीं 
मिल्रा। पर परीक्षित को अमृत की प्राप्ति हो गई। यदि अध्ृत भौतिक होता तो परीक्षित के 
अलावा नास्तिक को भी मिल जाता। इंजेक्शन वन जाते। यदि कोई नहीं भी लगवाता तो 
चार आदमी छाती पर चढ़कर लगा देते और वह अमर हो जाता। जैसे बैल एवं अन्य जानवर 
दवा नहीं खाते पर जनरदस्ती उनको खिला दी जाती है। 

कहने का भाव वह है कि अमृत भीतिक नहीं है, इन्द्रियग्राह् नहीं है। आनन्द 
और अमृत भी इन्द्रियों से नहीं मिलता है। जहाँ इन्द्रियाँ नहीं रहतीं वहाँ अमृत रहता है। 
इन्द्रियाँ बनी रें और इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण न करो तो अमृत मिल जाता है। शास्त्र 
के अनुसार ज़ो त्रिवेणी म॑ं भाव से नहाने जाते हैं वही त्रिवेणी में स्नान कर पाते हैं। नास्तिक 
कभी ज़िवेणी में नहीं नहाता। त्रिवेणी तो आस्तिकों के लिए है। नास्तिकों के लिए तो वह 
दुवेणी है। जो शास्त्र पर विश्वास नहीं करता वह परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता हैं। 
इसलिए शास्त्र को सत्य निष्ठा से पहना एवं सुनना चाहिये। धर्म पर विश्वास दिलाने वाला 
शास्त्र है। वह इन्द्रियों का विषय नहीं है। गंगा के नहाने से पृण्य होता है। परन्तु हक 
सुअर आदि जानवरों को स्नान कराने से क्या वे पवित्र एवं पुण्यवान होंगे? ऐसे तो मछलियां 
वहीं रहती हैं। सन्त कबीर साहिबजी ने इन सबका खण्डन किया, परन्तु वे इस सन्दर्भ में 
थोड़े नास्निक ढंग से बोलते हैं। मी] 

मछलियाँ क्यों नहीं तरीं जिसका घर ही जल में है। इसलिये कबीर साहेब को भी 
ब्रिवेणी नहीं मिलेगी। उन्हें गंगा में तरने जैसी कोई बात नहीं मिलेगी। हमारा यह मानना है 
कि गंगा में स्तान करने से विश्वास शुरु होता है और जो इतना विश्वास करता है, वही आज 


*६ पान्क्यापनियद 


नहीं कल अमृत का भी प्राप्त कर लेता है। महा गर्म ने जब प्रध्यात्म के विषय में कृठ 
लिखा, वो लोगों न कहा, “यह उ्रन्धविश्वाय की बात है। महामानव, अतिमालव की 
कह्यना उम्धविश्वास है।” हु पर उन्होंने कहा, “विश्बास वो सत्र अन्य ही होते हैं। 
सिद होने के बाद वे अपसेक्ष कहलाने है” इस प्रकार प्रस्यात्मा भी पहले 3न्धविश्वास ही 
है। भ्रमुत भी अम्धविश्वाय ही है। सस्स्यती भी अविश्वास हो है। पर जब अनुमति 
होगी सत्र खब प्रनभव कंगेगे कि आज़ हमने संच्मंच संसखती में स्नान करे लिया। 
गमचरितमानस में तमी कहा सवा, 

शमसभक्षति जँह ससससिधिरा। 

सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥ 

खिशथिसिपेधमय कॉलिमलहगस्नी। 

करम कथा इब्रिनंदलि बगनी॥ 

ब्रह्म विधार का प्रचार सम्खती है। बह करना है, यह नहीं करना है, आदि कर्म 
का वर्णन ज़मना है शरीर भगवान की भक्ति गंगा है। भक्ति से भी जाने अल्नग कर दिया। 
क्या भगवान की भक्ति के अलावा जान है? हाँ। भगवान का विश्वास गंगा है, भक्ति है। 
भगवान क्या हैं? ब्रह्म का अनभव। थे ही ससखती है। 

दुसललिए यह उपनिषद कहता है कि "“प्रमाझचनथों” अ्म्मात्न चौथा है। गौर 
चीथा क्या था? ग्रात्मा, तगीय, शिव। तीन यादों के अल्लाबा जो ग्रात्मा का चौथा पराद है 
वही तरीय है। वही कार का अअग्ान्न है। अ्मात्न शरीर तय एक्र है। प्राज्ञ और मकार एक 
है। उक्कार और तेजस एक है। अकार और वैश्वाना (विश्व) एक है। इस प्रकार इन बांस 
की एकता हुई। ये पीने दिखने बाले अकार, उक्कार, मकार, विश्व, तेजस तथा प्रा हैं। 
ग्रे तीन ही दिखते हैं। ऐसे ही ग्रोम की भी तीन ही मात्राएं ठिखली है। अ्रमात्र दिखता 
नहीं है, पर है। एस ही तरीय भी माल्म नहीं पढ़ता, पर है। इसलिए ने मालृम पढ़ने 
वाल से ने मालुम पड़ने वाले की एकता और मालम पहने बाल्नों से मालम पड़ने वाल्लों की 
एकता स्थापित की। कण 

“तम्मात्रम्चतर्थो छव्यवहार्य  चीथा उद्यवहार्य भी है। यह बोलने में नहीं आ्रता। 

मी बालन में आता है उस आम को तो आध जानते हो। आप एंगे कि इसके अलावा जो 
के है वह कहाँ है? हम कहेंगे “उसे बोल्ंग कैसे?" बह बोलने में तो आता ही नहीं। 
यदि वाल कर बताएंगे ता मात्रा हो जाएगी। परन्तु बढि नहीं बोलेंगें तो सनेंगे कैसे? अमान 
आम - जिसमें कोई मात्रा नहीं, प्रकट नहीं हो सकता। अग़कट है और है। श्राप पढेंगे कि 


प्रात्मा प्लोर उसके पादो के साथ शकार और उसकी मात्राग्रा की एकता *्् 


“क्यों मान लें कि है?” यदि यह नहीं है तो “अकार कहाँ से आवा?” आप कहोगे “ऐसे 
ही आ गया" तो हम कहेंगे कि “जो नहीं है, उसे बॉलकर दिखाओ।” जितने अक्षर हैं 
उन्हीं को तो बोलते हैं। ऐसा नहीं कि बोलने से अक्षर हो जाता हो। एक बात गुख्वाणी 
में सुनी धी। उसमें शब्द की भावना तो ठीक है पर अर्थ धोड़ा भिन्‍न हैः “जहाँ बोल अक्खर 
तहाँ आवा”। “जहाँ अबोल तहाँ मन न रहावा'!। अर्थात जहाँ बोलेंग वहीं अक्षर आ जाएगा। 
गैर मन से भी आवाज़ आती है, मत भी बोलता है। मन से विश्व, तैज़स और प्राज् 
निकलते हैं और जुबान से प्रकार, उकार, मकार निकलते हैं। इसलिए वाणी और मन एक 
जैसे हैं। वाणी और मन की भी एकता है। वाणी से भ्रोम प्रकट होता है और मन से 
विश्व, तैज्स और प्राज्ञ प्रकट होते हैं। अमन में वह रहता है और विना वाणी के वह अमात्र 
रहता है। इसलिए शआर्वसमाजी, सनातनी, बंगाली , पंजाबी, तेलगू सबका अमात्र श्रोम एक 
है। क्मात्र में कोई फर्क नहीं है। विना वोला हआ ओम सबका एक है। वहाँ लिपि का 
भेद नहीं है। कई ओम ने बोलकर # भी बोल सकते हैं क्योंकि अर्धमकार है। अ्रमात्र को 
लोग $ भी बोलते हैं। इसलिए यह अव्यवहार्य है। अमात्र हमारे सुनने, बोलने में नहीं 
आता। और “प्रपंचोपशम” अधि जहाँ अकार, उकार, मकार सभी ओम का प्रपं॑च समाप्त 
हो जाता है। ये तीन भाज्राएँ प्रपंच ही हैं। यह अमात्र प्रयंचोपशम है। जो क्षमात्र है वहीं 
शिव है। वहीं ओम है। वही अद्वैत है। इस प्रकार जो अमात्र ओंकार है वह आत्मा ही है। 
इसी प्रकार जो मात्राएँ हैं वे भी आत्मा ही हैं क्योंकि पाद मात्रा है और मात्रा पाद है। एक 
मन्त्र आता हैः 


भत्रिपादर्ध्बसदैपरूष: पादोस्येल्लाभवदपुनः (शुक्लयज्विद) 


इन तीन पादों से पुरुष ऊपर है। उसके ही पाद हो गए। जो तुरीय है वही पाद रुप में 
प्रकट हआ। जो तीन पादों से ऊर्ध्य था, उसी से तीन पाद निकले। जो अमात्र था उसी से 
मात्राएं निकल आईं। मैसे वाज़े में उँगली रखकर सब शब्द निकाल लिये जाते हैं। वीज से 
क्या निकालोगे? कोई भी वृक्ष? नहीं। मैसा वीज़ वैसा वृक्ष। जुबान से कितने अक्षर 
निकालोगे> क, ख, ग, घ, ड, .............. तर, ज्ञ तथा भ्रन्य कुछ व्याकरण के अक्षर 
जैसे श, प, से, ह आदि। नए अक्षर अभी तक क्यों नहीं वनाए? इससे सिद्ध होता है 
कि जो है वही प्रकट होता है। इसलिए अमात्र ओम ही तीन मात्राओं में प्रकट हुआ त्था 
तीन मात्राओं से सम्पूर्ण विश्व प्रकट हुआ। इसलिए ओम ही सब कुछ है और सब कुछ ओम 


श्र मान क्यापनियद 


ही है। इसीलिए ओम से सभी मन्त्र निकले जोर सारे मन्त्रों से सम्पुर्ण बबसा है। इस 
पकार वेद # ही हैं। वेढ श्ोम की व्याख्या है, $ का वर्ण है। मन्त्र तो सिर्फ $ ही 
है। ओम ही वेद है। $ भी क्या है? सिर्फ अम्ात्न है। तीन पादों में सारे सप्टि और 
इसका लग है शरीर तगीय इसका भी आशध्रव है। इसलिए 'जात्येव वेद सर्वम', यह ऑओंकार 
सबका आत्मा ही है। “सल्यात्मा ग्रात्मानं" इस नग्ह जो जानता है वह अपने को ब्रह्म 
से अलग नहीं समझता। वह ऐसा जानने वाला भाप शात्मा में ही प्श कर जाता है। वह 
कभी ब्रह्म से अलग अपने क्रो नहीं समझता 


अप्रमस्तेन वेधन्य सर्वतन्मयोभवेत। 

प्रणवोधनु सरो ह्मात्मा ब्रह्म तन्‍लक्ष्य स॒ुच्यते। 

जैसे बाण विद्या वाला एकाग्र चित्त से बाण को चलाकर लक्ष्य को भेदता है वैसे ही 
साधक प्रगव की धनुप्र बनाकर अकार, उकार, मकार, विश्व, मैज़स, प्राज्ञ इन तीनों को 
कल्पित जानकर, अम्ात्र और तगैय को एक करके ग्रात्मा ही हो जाता है। 
“आत्मचिद्ध हर्षशोको जहाति 


त्रह्मविदाप्नोलि परम” (उपनिषद) 


“ब्रह्मविदाप्नोतलि परम” व्रह्मविद परमात्मा को पा जाता है। ज्ञो आरत्मवेत्त 
तीन पादों को अध्यस्त और कल्पित समझकर शह आत्मा को अकल्पित जानता है, वह शोक 
मोह से छूट जाता है। थे तीन उसकी प्रतीति मात्र हैं। वास्तविक आत्मा शद्द क्रीय है। 
अन्य कृष्ठ वास्तविक है ही नहीं। चुँकि उसी का सब्र है इसलिए वही सब्र है। पर भी ये 
प्रतीति श्रर मना दमा ने झूना इनमें होता है। इस क्राग्ण से तमर इसे अविनाशी या ब्रह्म 
नहीं जान पाते। पर बाद ठीक से विचागे तो थे सब्र क्या हैं? 'भ्ह्मैव वेद सर्वम ये सब्र 
ब्रह्म हो है। ये दृष्टि कंवल् पढ़ने तक सीमित ने हो, धीरे-धीरे यह नभव में आना चाहिये 


है आओ 
मान्ड्क्योपनिषद्‌ एवं इसके सनिहिताथी 








८-३१ मसंंगलाचरण 


ऊँ भद्धं कर्णेलि: श्रणयाम देवा भें पश्येमाक्षभियजत्रा:। 
स्थिरेसजेंस्तप्टवाँ ससस्‍तनभिनन्‍्यशेम देवहितं यदायः॥ 
(है देवगण हम कानों से कल्याणमय वचन सनें। यज्ञकर्म में समर्थ होकर नेत्रों से शुभ दर्शन 
करें तथा अपने स्थिर अंग और शरीरों से स्तति करने वाले हम लोग देवताओं के लिये हितकर 
आव का भोग करें। त्रिविध ताप की शान्ति हो।) 
स्वस्ति ना इन्द्रो वृद्धअवा: स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः:। 
स्वस्ति नस्ताछत्यों अरिष्टनेमि: स्वस्ति सो बृहस्पतिदशथातु॥ 
ऊं शान्ति: शान्तिः१! शान्तिः ! ! ! 
(महान कीर्तिमान इन्द्र हमारा कल्याण करें, परम ज्ानवार्न पृषरा हमारा कल्याण कर, जी 
अरिप्टों (आपत्तियों) के लिये चक्र के समान (घातक) है. वह गछड़ हमारा कह्याण करे तथा 
वृहस्थतिजी हमारा कल्याण करें। त्रिविध ताय की शान्ति हो।) 

उपनिषद्‌ एवं अन्य हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों में किसी भी कार्यारम्थ से पूर्व मंगलाचरण 
एवं समापन में शान्तियाठ बोलने की परम्परा रही है। तदन॒स्प मंगलाचरण के रप में उपरोक्त 
श्लोकों के प्रस्तुत किया गया है। 


समस्त मनन्‍्त्रों का बीज सनन्‍्त्र - ऊँ 

ऊ हमारे हर मन्त्र से पहले लगता है। 'ऊँ नम्रः शिवाय!, '$ँ नमो भगवते 
वासुदेवाय”, ' नमो नाराबणाय”,  भूर्भवः खः......., आदि, सभी मन्त्र $ से ही 
प्रारम्भ होते हैं। उपरोक्त मंगलाचरण ('ऊ भद्ं कर्णमिः भ्रुणुपाम...... ) भी ऊ का 
उच्चारण करके ही बोला जाता है। # सब मन्त्रों का बीज़ मन्त्र है। अर्थात्‌ सब मन्त्र ऊ 


१9) मानइन्नापनिएद 


से ही निकले हैं। एसा लगता है कि $ से मन्त्र ही नहीं निकले, अपित सास विश्व # से 
ही निकला है। वह $ ह, और जो निकला है वह भी # ही है। 
ऊ परणमिदः पर्णभिंदं परण्णात पर्णमठ्च्यते। 
घणस्य पर्णमादाय परणमिवावशिष्यते। 
(यह संब्चिदानन्द घन पंरम्ह्मय सब प्रकार से पूर्ण ह। यह जगत भी उस प्रस्रह्मय से एर्ण है। 
क्योंकि वह पूर्ण परय्योत्तम से ही उत्पन्न हड्ा है। इस प्रकार परम्द्य की पर्णता से जगत पर्ण 
हाने पर भी वह पर््नह्य पस्पिर्ण है। उस पूर्ण में से पर्ण को निकाल लेने पर भी वह पर्ण ही 
बचा रखता है।) 

एूर्ण में से पूर्ण निकला है। पूर्ण में पूर्ण स्थित है। थीर जो निकला वह भी ए है 
तथा अन्त में पूर्ण में पर्ण समा जाता है और पूर्ण झता है। यह अन्‍य की तरह है। भशम्य में 
से कृठ्ठ भी निकालते जाओ, था जोड़ते जाओगे तो शन्य ही रहता है। अन्य से कितने ही 
भन्य निक्रान्न लो फिर भी शुन्य ही बचता है। इसी प्रकार गन्‍्य में कितने ही शन्य जोड़ें तो 
भी भुन्ध ही रहता है। इस प्रकार अन्य लगभग पर्ण अर्थत्रि ब्रह्म की तरह है। 

शिकागों में आयोजित विश्व धर्म सम्मेत्न में खामी विवेकानन्द को शायद इसलिये 
शुन्ध एए बोलने को कहा गया धा। इनके लिए 5 मिनट का समय निर्धार्ति था। परन्त 
विषय की गहराई एवं उनकी प्रभावी वाणी को सनक उ्न्य बक्‍लाओं ने भी अपना समय उन्हीं 
का दे दिवा। सम्मत्नन में ग्रस्यित सभी महाए्म्यों को जब उन्होंने "00065 क्षा्ं 
85ट5' कहकर रम्बाधित किया तो तालियों की गड़गड़ाहट हो गई धी। यह कितनी हँघी 
बात है कि ईमानदारी से कोई व्यक्ति सम्पर्ण मनण्ों को 'भाई' और 'बहन! कहे। ये शब्द 
धीरे-धीर हम लोगों की आदत में झा गए हैं। नहीं तो ये कितनी ऊँची बात है। यही कारण 
है कि सारी जनता उनके इन भअक्हों को सनकर गठदगद हो गई और उत्साह में इब गई। 

मंगल्लाचस्ण में के “$ भरद् कर्णभ. प्रणयाम..... इन शब्दों का अर्थ है कि हम 
कल्याण की बात सनें। हमें कानों से कह्याण की ही बात सनने को मिले। हम यह प्रयास 
करें कि जहाँ कल्याण की बात हो वहीं जाकर समें। आंखों से हम कल्याणकारी रप ही देखें। 
जिन चित्रों, वस्तुओं तथा अक्िियों को देखकर मेर ग्नन्दर शुभ भाव प्रकट हों, उनको ही 
देखें। भ्पने घरों में चित्र भी ऐसे टाँगे जो कल्याणकारी हों। ऐसी कविताएँ पढ़ें जो 
कल्याणकारी हों। उसे गाने सुनें जो कल्याणकारी हों। ऐसे नृत्य देखें जिससे प्रद्धा पैदा हो 
ऐसे चित्रों, चल्नचित्रों एव व्यक्तियों से ढुर रहने का प्रयास करें जिनसे काम, क्रोध, ईर्ष्या तथा 


प्रानइक्यायनियद एवं इसके निहितार्थ $० 


युंद्र भ्रादि की भावना पैदा होती हो। चल्लचित्रों, टेलीविजन धागवाहिकों शदि में मार-काट 
दुगचार, व्यभिचार, बलात्कार तथा गंठ आचरण के जो चित्र दिखाए जाते हैं वे कल्याणकारी 
नहीं हैं। 

उपनिपद के ऋषि ने कितनी गहरी समझ के वाद इस मंगलाचरण को लिखा होगा 
जिसको ठीक समझने से प्रत्येक व्यक्ति, समान एवं सष्ट्र कल्याण की ओर उन्मुख हो सकता 
है। यदि शासन चलाने वाले देश के नेता इन मन्जों का ईमानदारी से पालन करते तो देश 
में कोई समस्या नहीं रहती। आप भी इन मन्‍्त्रों के आधार पर यह निश्चय करें कि हम 
कल्याण की बातें ही सनेंगे। महर्षि अरविन्द आधभ्रम में आम गृहस्थ की तरह कुछ समर्पित 
लोग रहते हैं। सब सेवा करते हैं, इनका अपना कुछ नहीं है। सब आप्रम का है। आप्रम 
की ओर से शिक्षा-व्यवस्था, चिकित्सा-व्यवस्था और मनोरंजन व्यवस्था है। मनोरंजन आवश्यक 
है। कैसी शिक्षा देनी है? .- यह आप्रम पर निर्भर है। किस प्रकार का मनोरंजन - यह 
आग्रम तय करता है। सात्विक प्रवचनों के श्रवण दाता न केवल हमें आनन्द मिलता है अपितु 
मनोरंजन भी होता है। प्रेरणाप्रद भजन, अच्छी पुस्तकें, सात्विक खेल श्रादि भ्रेयप्रद होने के 
साथ मनोरंत्नन प्रद भी होते हैं। 

परन्तु आजकल्न मनोर॑जन हेतु जो चलचित्र दिखाये जाते हैं उनसे मनोरंजन न होकर 
मन दृपित एवं विक्त होता है। हम सब विशेष स्प से बच्चे इसके शिकार हैं। टेलीविजन 
धाराबाहिकों में मार-धाड़, अपराध, बौनाचार, से सम्बन्धित दृश्य हमारे मन विशेष ग्य से 
बच्चों के मन को गहराई से प्रभावित एवं दृषित करते हैं। 


८.2 यज्ञमय जीवन 


मंगलाचरण में प्रयुक्त 'यज़त्रा:' शब्द का आशय है कि हम यज्ञ करने वाले बनें। 
हमारे जीवन में यज्ञ की अवधारणा हो। हम प्रत्येक कार्य यज्ञ-वृद्धि से करें। यत्ञ के कुछ 
नियम होते हैं। इन नियमों का पालन करते हए हम विधिपूर्वक यज्ञ करें। यज्ञ की तरह हम 
जीवन को एक विधि से जीयें। हमाग खाना यज्ञ हो, हमारा सोना यज्ञ हो, हमारा चलना 
यज्ञ हो, हमाग बोलना यज्ञ हो। हम क्‍या बोलें? क्या पढ़ें? क्या सुनें? ये सब 
शास्त्र सम्मत हो। कछ भी अग्नि में डाल देने से हवन नहीं हो जञाता। जिस प्रकार निर्धारित 
हवन सामग्री से विधिपूर्वक्त हवन करना ही यज्ञ होता है। उसी प्रकार हमें इहलोक 
तथा परलोक के कल्याण हेतु शास्त्र सम्मत श्राचरण ही करना चाहिये। इस- प्रकार यज़त्र होकर 


१0२ मालक्योपनियद 


देवताओं को हम प्रसन करें। हमारी आय देवहित में लगे। हम देवताओं के हित के लिए 
यज्ञ करें। हम इन्द्रियों के देवताओं को प्रसन्‍न करें और वे हमें प्रसन्‍न करें। भगवान श्रीकृष 
की वाणी प्रीमद भगवदगीता में भी यही कहा गया हैः 


सहयज्ञाः प्रजा: सृष्द्वा प्रोवाच प्रजापतिः। 
अमसेन प्रसविष्यध्वमेष वाइस्त्विष्टकामधक॥ 3/१0 ॥ 

(प्रजापति ब्रह्मा मे कह्प के आदि में बजसहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि 
तम लोग इस यज्ञ के द्वार वृद्धि को प्राप्त होग़ो और यह बच्ञ तुम्र ल्लोगों को इच्छित भोग 
प्द्यान करने वाला हो।) 
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। 
परख्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥ 3/११॥ 

(तम्र लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करे और ये देवता तुम लोगों 
को उन्नत करें। इस प्रकार निःखार्ध भाव से एक दूसरे को उन्नत करते हुए तम लोग परम 
कल्याण को प्राप्त हो ज़ाओगे।) 

भाव यह है कि हम देवताओं को तृप्त करें और वे देवता हमें तृप्त करें। एक 
दूसरे के प्रतिसहयोग ही यत्ञ है। बस्तुतः हम दोनों तृप्त हों, तो ही यज्ञ है। पति-पत्नी 
भाई-बहिन, बेटा-वाप, मालिक-नौकर एक दूसरे को प्रसन्न करें। 

इस सन्दर्भ में एक कथा प्रचलित है जो आपने सुनी होगी। एक वार देवताओं एवं 
राक्षों को निम-्यण दिया गया। राक्षस कहते थे कि हमारे साथ धोखा किया जाता है 
देवताओं का ज्यादा ख्याल रखा जाता है। ब्रह्माज़ी ने कहा कि वे ऐसा नहीं करते। हमारी 
तरफ से बेईमानी नहीं है। ये तो अपनी तरफ़ से ही है। नहीं माने वो उन्होंने (त्याजी ने) 
निमन्रण दिया। आधे में देवताओं को और आधे में राक्षसों को बैठाया। दोनों के बीच में 
एक दीवार थी। सबके आगे गुलावज़ामुन, खीर, पूरी, सब्जी, हलवा सब धालियों में परोस 
दिया गया। सबको खाने को कहा गया। सबके हाथों में प्लास्टर की तरह वाज़ओं में इंडा 
बाँध दिया गया जिससे हाथ न मड़ सकें। हाथों के न महने के कारण भोजन करना कठिन 
था। इस पर राक्षसगण क्रोधित हो गये। उनकी आँखें लाल हो गयीं तथा गाल्नी देने लगे। 
दूसरी ओर देवताओं ने हाथ न महने के कारण सीधे हाथ करके अपने से दायें और बायें बैठे 
देवताओं को भोजन कंय दिया। इस प्रकार सभी देवताओं ने अपने से अन्य की सहायता 
करके भोजन सम्पन्न कर लिया। ठेवता भोजन करके प्रसन्‍्नचित्त लौटे। 


प्रानइक्योपनिपद एवं इसके निहितार्थ १0३3 


असम साथ-साथ +- नमक न + ५ नर न न पाना भक-१+तनलझाथ सकी“ >3+॥७५०नाककथ >तन८तक ५ पतानन-क बन क क- ९ २-५, ब+े. ८क्‍४+अ ९०५ 4. 6-० 3४० 3» बन जा कप ८-५3 बताए ५+२५३अकतन- “3 ानास- 8 .0<4घ पक +++ ८५42७» +-नक+लर ;५७+०५४4++-5ननननमनन पहा 4८ ८334५. +-क० उप (जानवर क+ 755 


' जिन्दगी का यह सृत्र है कि तुम दूसरों को खुश कगे, वे तुम्हें खुश करें। 





सर्वे भवनन्‍्त स॒रित्रनः: सर्वे सन्‍त निरामयाः। 

सर्वे भद्गाणि पश्यन्तु साकश्चिदःख भाग्भवेत्र। 

परन्तु ऐसे लोग भी होते हैं जो सोचते हैं कि हमारा ही पेट भरना चाहिए। “मेरा 
पेट आऊ, हम न देंगे काहच।” हम खाएंगे, हम किसी को नहीं देंगें। इसी प्रकार हम बड़े 
होंगे और अन्य को नहीं होने देंगे। सव अपने-अपने होने में लगे हैं। तुमने मेरी घोरी की, 
मैंने तुम्हारी चोरी की। देना भूल गया और चोरी शुरु हो गई। हम तुम्हें दें, तुम हमें दो” 
यह सहयोग की भावना नहीं रही। “हम तुम्हारा छीनें, तुम हमारा छीनों” वाली आपा 
धापी से चोर पैदा हो गए। चोर बनाने वाला ज्ञान वेद-विरुद्ध ज्ञान है. जबकि दानी बनाने 
वाला ज्ञान वेद सम्मत ज्ञान है। 

. इसलिए याज्ञिक होकर हम स्थिर अंगों से देवताओं को प्रसन्‍न करें और देवता 
हमको प्रश्नन्न करें। हम जानवरों को खस्थ और सुखी रखें और जानवर हमारे काम आयें। 
हम कार की हिफाज़त करें, 5०७०० केराएँ, साफ रखें, कार हमें जहाँ जाना है तहाँ ले 
जाए। कहीं भी देख लो यज्ञ के नियम से ही सृष्टि चलती है। इसलिए सम्पूर्ण सृष्टि 
भगवान ने यज्ञ के साथ ही पैदा की है। 

यज्ञ के साथ परमात्मा ने दुनिया बनाई है। जो यज्ञ का ध्यान नहीं रखेंगे उनके 
परमार्थ एवं व्यवहार दोनों ही बिगड़ेंगे। इन मंगलाचरणों के साथ अन्त म॑ कहा गया 


स्वस्ति ना इन्द्रो वृद्धभ्नवाः स्वस्ति नाः पूषा विश्ववेदाः। 
स्वस्ति नस्ताध््योंइिरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पत्तिदधातु॥ 
सभी देवता हमारा कल्याण करें, हमारी वृद्धि हो, अभ्युदय हो, शरीर खस्थ हो, 
मन शान्त हो। हम राग द्ेष रहित हों। लौकिक जीवन भी अच्छा हो और अन्त में कल्याण 
भी हो। हमारे यहाँ एक ही प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना में जहाँ एक ओर लौकिक वृद्धि एवं 
स्वास्थ्य आदि की भावना है वहीं मोक्ष की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया है। 
"ईशावास्थोपनिपद्‌” ने अकेले मोक्ष चाहने वालों को बहुत खतरनाक कहा है। 
अकेले भोग कर जाने वाले तो खतरनाक हैं ही, मोक्ष वालों से भी खतरा है। इसलिए 
एकतरफा नहीं होना। दोनों पश्चों का सनन्‍्तुलन एवं समन्वय परम आवश्यक है। गीता सन्तुलन 


२0९ मान्इक्यापनिएद 


का ग्रन्थ है। वेह तसज की तरह ढानों पक्षों व्यवहार एवं पस्मार्थ) को स्खती है। गीता 
किये निकली है? ग्रनिरदों ते। भख्रान ने कहा 
-“-. सर्वोपनिपदो गावबो, दोगसधा गोपालनन्दनः। 
पाथरवल्‍स: सुधीभक्ता गीसामतं सहल।। 
उपनियद याब है। एक गाय (मान्इक्योयनियद। अमी आयने देखी है, जिसका दध्च (कथा 
प्रवण) इन थात ददनों में श्राथन णीया है। एम्स बह दूध (अति कहमचर्चा) यीथा उपनिषद्‌ से 
निकला है। उ्रनियद्ध गाय है। गीता दूध है। दोहने बाले कृण है। “ार्थों बत्य:' 
अजुन बड़ा है। उसने पृछठ-पृठकर झास उपनियदों का ज्ञान निकला लिय्रा। “खीर 
भोकता " सज्जन, विमान पृस्य उस उपनिषठ जनम स्पी दूध को पी रे है। इस प्रकार 
गनियदों से गीता निकल्नी। ग्रनिषदों से ही सन्त ग्रन्थ निकालमे है। कभी-कभी पता भी 
नहीं हाता कि अमुक प्रवचन प्रथवा ग्रन्थ उपनिएदां का है। बहत लोगो ने उपनिष़ों का नाप 
नहीं शिया, बढ़ा का नाम नहीं लिया, ग्रन्थ का नया नाथ गले दिया पर्न्‍्स इसका मतलत यह 
नहीं है कि वह ज्ञान ग्रनिएद श्र बेद्ों थे बाहर का जाने है। 





दुनिया में सना कोई जाने नहीं है ज्ञा वेद ये बाहर का हो। बह सभी 
पग्मात्रों पब ज्ञान के भण्दुए है। 





मान्दक्यापानपद को और अधिक स्थाक्‍्ट करने ऊे लिय्रे ऋषियों विशेष व्यू से प्री 
गीडपाठाचाबजी ने कारिकाई लिखी है। इसमें एक्र प्रकण है “प्त्नावशान्ति पकण।" 
अलात अर्थात मगाल या पत्ता हम तिनका। गसत्ति में जब जाग लगा हवा तिनका 
घरमात है तो वह गाल्ना बनता है। यदि सीधे चल्नाये नो लकी? बन जाती है। यदि तीन शोर 
धमाय ता जिक्राण वन जाता है। इसी प्रकार हम्मा गोला भी बनता है, हीक गोला भी बनता 
है। इसी के दाग गौडपाहाचार्यत्री मे यह सिद्ध किया है कि वहाँ गाल्ना नहीं वन सकता। 
गला बताना अध्रम्भव है क्योंकि तिनका कभी भी बारें कफ एक समय पर नहीं हो सकता। 
कम सप्रय में भी चार्ग कफ हो सकता है। फरन्तु एक ही समय पर यहाँ और वहाँ एक साथ 
नें हैं| सक्रता। जब एक झमय में यहाँ ज्रौर वहाँ नहीं था तो सीधी रखा दिख नहीं 
सकताी। अज्रस प्रकार एक समय में तिनका चागें तरफ मही होता, _उ्मी प्रकार आग भी एक 
भम्द में बाग क्रफ एक साथ नहीं होती। यहाँ होगी तब वहाँ नहीं और वहाँ होगी तब यहाँ 


माडिक्यागनए एव इसके नाइताथ ६00 


नहीं। एक जगह से चला गया तो दुसरे जगह खाली हो गई। फ़िर पुरे गोले में तिनका 
कहाँ होता होगा? एक तरफ भ्रीर दिखता है कई और। इसलिये दिखता है पर होता नहीं। 
इस एकार बिना हआ्ा गोला दिखता है। भ्रज्नन्मा श्रर्थाति बिना जन्मा गोला दिखता है। बिना 
बने गोला दिखता है। वन तो सकता ही नहीं। इसलिए जो श्रकृतियाँ दिखती हैं, वे होती 
नहीं हैं। दिखने वाल गोल की तरह यह झम्यर्ण संप्टि माया से, घित्त की गति से, चित्त के 
सु से दिखती है। जब घित्त का स्फग्ण शास्त्र हो जाता है तो जगत नाम की कोई चीज़ 
दिखती नहीं है। इसलिए जगत दिखते हए भी वास्तविक नहीं है। अल्लातशान्ति प्रकरण में 
यहीं सिद्ध करने की कोशिश की गई है ताकि हमारे मन में भरोसा आ जाए और जिससे चित्त 
वंचना चाहता है उससे बच सके तथा संकल्य-गहित हों जाए। चित्त के संकल्प के कारण 
आपक दुःख और समस्याएँ हैं। इसीलिए “मन एवं मनुष्वाणाम्‌ कारणं वन्ध मोक्षवाः” कहा 
गया है। 

मैनें एक कथा पही थी कि एक आश्रम में एक झंडा लगा था। हवा चल रही थी 
और ब्लेड हिल रहा धा। झंडा हिलता दिखाई दिवा। इस पर एक ने कहा, “बंडा 
हिलता है।' दूसरे ने कहा, “झंडा नहीं हिलता, हवा हिलती है।” उसने भी ठीक देखा। 
तीसरे ने कहा, “न झंडा हिल्लता है, न हवा हिलती है आपका मन हिलता है।” 
असल में जब मन के कम्यन शान्‍्त हो जाते हैं, वित्त की वृत्तियों का निरोध 
हो जाता है तो ज़गत में दुःख नाम की कोर्ड चीज़ नहीं बचती। कह्यना ही 
जगत है और मन जब जगताकार फरता है तब जगत दिखता है। ख्न में 
मन ही तो फरता है। मन के अतिरिक्त स्वप्न में कृछ भी नहीं होता और 
दिखता सव कृष्ठ है। ऐसे ही माया से यह जगत भासता है जबकि 
वास्तविक कुछ नहीं है। 








पहल्ले मन्त्र में यह स्प्ट किया कि वह सब ऊ है। जो भूत, वर्तमान तथा भविष्य 
में है सव $ है। इसके अतिरिक्त जो दिखाई नहीं देता वह भी ऊ ही है। आत्मा के तीन 
पाद- जाग्रत, खप्स, सपाप्ति, विश्व, तैज़स, प्राज्ञ तथा तुरीय को बताया। तुरीय के विषय 
में समझाया गया कि यह विश्व, तेजस एवं प्राज्ञ नहीं है। इसमें वह (तुरीय) रहता है। जी 
इन तीनों में एक जैसा रहता है, वही तरगीय हैं। तदुपरान्त बताया गया कि ऊँ ही पाढ है। 
पाद् ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है। $ ही आत्मा है, आत्मा हीं 


ह् 


१0६ प्रालक्योपनियद 


<-.3३ उपनिषद विद्या निम्नस्‍्तरीय सत्य 
(जगत एवं अवस्थात्रय) को स्वीकारते हुए 
उच्चतम सत्य की ओर ले जाली हछिेि 


यदि कोई ज्योतिषी हमारे भृतकाल के जीवन की घटनाओं का बता दे तो हमें उत्त 
ज्योतिषी पर भरोसा हो जाता है और उसके द्वार बतोबी गयी भविष्य की बातों पर विश्वास 
कर लेते हैं। वैसे ही उपनिषद हम सभी के दाग अनभव की हई जाग्रत, खान एवं सर्पाप्त 
की व्यास्या कसा है। तदपगन्त जिसका अभी हमें ज्ञान महीं है. परन्‍त जिसे हम जानना 
चाहत हैं वह बताता है। इस प्रकार उपनियद का प्रारम्भ सत्य से होता है और वह एएस सत्य 
तक ले जाता है। 
कई धर्मग्रन्थों में बताया जाता है: “वहाँ नरक है, वहाँ नरक कण्ड है, वहाँ आरे 
चलते हैं” आदि-शआदि। यानि शस्शातर ही अन्धविश्वायों एवं पाखण्डों से होती है। छठ 
चालाक लोग समाज को अन्धविश्वास की बातें बताकर अपनी दकान चलाते हैं। मर्ख आदमी 
चेल्ना बनकर उनकी दुकान के ग्राहक बन जाते हैं। उपनिषदर ऐसे सभी दकानदारों की दकानें 
समाप्त करते हैं। इसलिये व्रह्मकृमार्ियोँ उपनियदों का खण्डन करती हैं। जिन्हें धर्तता 
करनी हो तथा अपना पन्थ चलाना हो उन्हें उपनिषदों का ही खण्डन करना पड़ेगा। परन्‍्त 
उपनियदों में अन्धविश्वास एवं पारूण्ड के लिए कोई स्थान नहीं है। वे पहले उस व्यवहारिक 


सत्य की बात करते हैं जो आपके अनभव में आये हैं। फ़िर उस परम सत्य की बात करते हैं . 
जो ब्रापकों अनभव करना है। 





करता है। इसलिये उपनिषद जैसा अदितीय स्पाट ग्रन्ध दसग नहीं है। 


एक साधक ऋषि से पछता है 
“तं को औपनिषरदं परुष॑ प्रच्छामि।” 


(मैं तुमसे औपनि्ंद पु अर्थात जिस पझण को उपनिषद् ने बतावा है. वह मैं आपसे समना 
चाहता हूँ।) 


मान्इक्योपनिएद एवं इसके निहिता्थ १03 


“आपनिपद पुरुष अथति उपनिषद्‌ ने किसे आत्मा कहा है? उपनिषद ने किसे 
सत्य कहा है? उसे में आपसे समना चाहता हूँ।” प्रन्य धर्मों में जो यह बताया जाता हैं कि 
“हम ज़ीव हैं, हम भ्रमुक हैं हम मर जायेंगे” में यह नहीं पछना चाहता हैँ। उपनिपद का 
सत्य क्या है? - में वह पृष्ठना चाहता हूँ। 

परन्‍त आपकी स्थिति भिन्‍ने है। आप तो किसी भी वावा की बात सत्य मानकर 
मृट बने रत हो गौर सत्य को जानने की चेप्टा नहीं करते। एक लड़के दाग यह चिल्लान 
ए कि “कौओ मेरा कान ले गया” गाँव की भीड़, कौए के पीछे हीड़ने लगी। किसी भी 
बक्ति ने यह नहीं पृष्ठा कि कौआ किसका कान ले गया? एक थोड़ समझदार व्यक्ति के 
एुठ्ठने पर कि “कौशा किसका कान ले गया?” सभी एक दुसरे से यही पछठने लगे। अन्त 
में ज्ञों लड़का चिल्‍लाया धा उससे पछ्ठने पर पता चल्ला कि कौआ उसका कान तो नहीं ले गया 
था फन्‍त जल्दी में पंज़ा लगने के कारण उसे कान ले जाने का प्रम हो गया था। चूँकि 
उसके पीछे लोग भाग रहे थे इसलिये वह भी भागता रहा। इस प्रकार भागन वाले लोगों का 
एक जुलूस बने गया। हमारी हालत भी लगभग इसी प्रकार की है। हम चिल्लान वाल लागां 
की बात मान लेते हैं। सत्य को जानने के लिये अपनी बद्धि का प्रयोग नहीं करत। 

इसलिय श्रध्यात्म में हमें सबकी वात नहीं माननी। यदि हम मोक्ष चाहत हैं 
कल्याण चाहते हैं तो उपनिषदर की बात सननी है। वहीं चर्चा सुनन लायक है। परन्तु इस 

भ॑ म॑ महत्वपर्ण वात वह है कि 


उपनिषद्र पहले पढ़ना नहीं चाहिये, पहले सुनना चाहिये। उपनिषद्‌ विद्या 


गुर्ग्रहणीव विद्या है 





उ्रनिपद्‌ में कहा गया है। 
थश्रोतव्यों सनन्‍तव्यो निद्िध्यासितज्यः।! 
यदि उपनिषद को खबं पट़ोगे तो तम्हारी समझ में नहीं आयवेगा। जा लाग कंबल 
कर्मी हैं अर्थात कर्म में ही ज्ञिनकी निष्ठा है, कोई ज्ञान ध्यान नहीं है, उनको खबं वेद नहीं 
. ढ्ना चाहिये। जिन्होंने वेद पढ़ा है, समझा है, जो ब्रह्मनिष्ठ हैं, उनस पहल सुर्नी। पहले 
उनसे समझकर कल्याण के सस्ते पर चलें। उपनिषद विद्या को केवल पढ़ने मात्र से लाभ नहीं 
मिलेगा। पहने से यह विद्या समझ में नहीं आयेगी। इसलिये कहा गया कि ब्राह्मण अर्थात 


॥८ परल्क्योगनिद 
गिज्ञाय भी फहले इय विद्या को गुर से पह। फि बाद में ख़ब ही पढ़ता झू। ता गे 
प्र से पहते हैं, वे गमगह हो जाते हैं, अटक जाते है। कह विद्या गृढ् मूल्ा है। इसलिए 
गोखामी ततलसीदाबाग्गी ने कह दिया - 

गर बिन भव निधि तरइ न को्ड। 

जीं बिरंचि संकर सम होई॥ 

गख़ाएी में कहा गया है 

जो सो चन्दा उगवे, सरज चढठें हजार। 

एते चाँदड़ होण्या, गुझ विन घोर अंधार॥ 

गरू बिन घोर अंधार, गरू विन समझ न आवे। 

गरू बिन सरति न सिद्ध, गरू विन सक्‍्ति न पावे॥ 
इसलिय यह विद्या गझओों से पही जाती है। 


८.४ गुरू कौन? 


सामान खय से आम ब्क्ति यह मानते हैं कि जिसे गे दीक्षा (मर) मी जाती 
है वही गय होता है। पर मेरी दृष्टि में हम गिमसे पहले हैं उद्चका नाम भी गछध है। बिना 
ग् मंत्र लिय भी जो ग्रनिद सता है, के शिक्व है गीर जो सनाता है वह गछध है। 
उनिदद की पावन वाणी को झनने में ग् बनाने बात्मा माप्नत्ना कोई विशेष महल कहीं 
रखता। गिश् करह्मनि्ठ एव ध्रोगिय गे पए ्रापकी थरहा हो, उसे रे के रेप में खीकार 
कला है। वहीं आपके गे है। 

गन, भगवान कण को गे खीकार कमा है, बनाता नहीं। वह कहता है : 

कार्पण्यद्रोषोपहतस्वभाव: 

पृच्छामि त्वां धर्मसम्मृठचेताः। 

यच्छेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे 

शिष्यस्तेइ३हं॑ शाधि मां त्वां प्रपनन्‍्नम ॥2/6॥ 

(किया गए दोग से ग्हत हा खाव वाल्ना तथा धर्म के विषव में मोहित चित्त 
हुआ मैं आएसे पृष्ठता हूँ कि जो साधन निश्चित कह्याणकारक्र हो, वह मेरे लिये कहिये 
क्योंकि में आपका शिष्य हैं। इसल्रिय आपके करण हा मम्नकों शिक्षा ढीविये। 


बद्क्यायतिय एव इसई निहितार्थ ५3 


दम प्रकार अर्जुन श्रापक्रा शिम्य हैं, मजे समब्राओ यह कहता है। “मंत्र 
दो" - एस्मा नहीं कहता। “मैं शायरी कर्ण में है, शायके पास शराया हैं। मेरा भरज्ञान 
नष्ट कगे। मेरे भ्रम को हटायो।" ऐसा कहता है। 

गए तो मंत्र दीक्षा लेकर गे बनाने हैं। जो ग बनाता है, वेह ज्यादातर बबकफ़ 
ही बनाता है। गंझ तो बना ही नहीं सकता। जो गझे नहीं है उत्ते तम क्या बनाओग? गृंझ 
को तो कंवत्न मु मानना है, बनाना नहीं। क्ई लोग शिकायत करते हैं कि गुझ हमें मूर्ख 
बनावे हैं। मैने कहा, “ज्राप हों। उ्न्यथा कोई वेबकफ़ कैसे बनावेगा?े बिना हुएं कोई 
बेवकफ़ कैसे देगा सकता है?” तो आए गझे कैसे बनाओगे? यदि भ्रमक व्यक्ति गुर है तो 
फ़िर आप उसे बनाना खत कहो। वे हैं! यह झीकार कर जो। 
तर्क की सार्थकता एवं निरर्थकला : तर्क में बड़ी क्षमता होती है। 
एल तर्क सार्वक भी हों सकता है एवं निर्ग्थक भी। ब्रदि तर्क सत्य को समझने के लिए 
किया जाये तो यह बहत उपयोगी होता है। यदि तर्क का उद्देश्य वकीलों को तरह केवल 
दूसरे की बात को काटने के लिए ही किया जाता है तो वह :ध्यात्म विद्या के लिए उपयुक्त 
नहीं होता। संक्षेप में कहा जा सकता है कि तर्क के पीठ निहित उददंश्य पर उसका 
सार्थकता एवं निर्ग्यकता निर्भा करती है। 


८ूप आत्मा के तीन पाद एवं सावभशीमिक 
धर्म के रुप में सनातन (हिन्द) धर्म 


जागना, सोना, एवं खप्म देखना - ये तीन अवस्था कब से प्रारम्भ हुई? जप से 
मानव साष्टि की रचना हई। क्या थे कलिया में शुरु हुई? नहीं। क्या इनका जासिकों 
नेताओं, वामपंधियों अथवा बाबाओं ने शर किया? नहीं। सीना, खज तथा स्थूल जगत मे 
दिखने लगना ये किस मतहव की कथा है? क्या हिन्दुओं की? नहीं। तो फिर क्या व 
उ्निषद हिन्दओं के हुए? क्या जागने सोने एवं खत की अबस्थायें अन्य धर्मों अर्से जन 
बौद़, सिक्ख, ईसाई, मसलमान आदि के मानने वालों पर घटित नहीं होती। इस एध्वी पर 
कोई एसा मानव है जिस पर ये लक्षण घटित मे होते हों? तो फिर यह उपीनिपह किसका 
है? सम्गूर्ण मानव जाति का है। 


री 


११] ;ल्‍ प्रालक्योपनियद 


तथाकधित मानवतावादी कहते हैं कि हिन्द ग्राग्रदाविक है। हम मानवता की 
बात कल्ते हैं। में एगी निष्ठा एवं मज़ती से कहता हूँ कि हिन्दू धर्म सार्वभीमिक धर्म है। 
इतना शक विश्व में कोई दस्त धर्म नहीं है। हमाग दर्शन कहते ध्यापक्र है। उ्रनिदद 
सत्य की बयात्या करते समय हिन्द, मुसलमान, परस्सी, ईग्राई, नेता, अधिनेता, ली-पुणा, 
भ्रादि की बात नहीं कसा। वह तो उस सेल का सीधा वर्ण कस्मा है जिसका पलक 
भक्ति जीवित हते हा ख़बं साक्षात्कार कर ग्रकता है। 
धर्म के नाम फ कितना दष्परचार किया जो रहा है। कई मज़हवों में यह बताया 
जाता है कि पशगों में शरत्मा नहीं होती। पर तो खाने के लिये सब्ी-पात़्ी हैं। ईसाई एवं 
मसल्मान जानवरों को आत्मा बाल प्राणी नहीं मानते अधत इनकी पा करने वाल्लों को 
काफिर कहते हैं। यदि उपनिषद्‌ विद्या तुझे सत्य गो तो इसका एर देश में प्रधार करने का 
उत्तदायित्र भी ताह्मत है। जो नेता वेद को, छाती वन्दना को गल्लत कहते हैं. उनका 
ऐगी शक्ति के साथ विरोध कला हमार दायिल है। 
स्लित्रों को मसह्म्ान मस्सिद में नहीं ले जाते। नमरात् नहीं पहाते। क्योंकि उनकी 
नहर में स्ली भी भोग की सामग्री है। उसके कोई गत्मा नहीं होती। परत इस विषय फ 
उनके प्रति कोई विरोध प्रदर्शित नहीं किया जाता, क्योंकि गज़नीतिक द्ों को उनसे बोट बने 
होते हैं और उनका वोट इकट्ठा होता है। मेरी दी में इस्ताम के समान दसग कोई 
उसहिए एवं अमासवतावादी धर्म नहीं है। वहाँ धर्म नहीं है, केवल भौतिकता है।. उनके 
भौतिकवाद का सन्देश यही निकलता है कि खाओ और प्त्रो। स्तियों का इस्तेमात्न करे। 
जब चाहे रख लो, जब चाह तल्लाक दे दो। नेताओं को यह सर ठीक ज्ञगता है क्योंकि 
उक्हें मगत्रमानों के वोट चाहिये। खतंग्रता प्राप्ति के बाद इस देश में जाते समय तक शासन 
करने वाले राजनीतिक दक्ष ने मग्रत्मानों को महत्न वोह के शा में माना तथा देश का 
नागरिक मानकर उन्हें नहीं योचा गया। राष्ट्रहित को भी ध्यान में नहीं रखा गया। 
| ग़रनिदद हिन्द को आत्माओं की कथा नहीं कहता। वहाँ आत्मा की कथा है 
हिन्द मसत्मान की नहीं। ईमानदार मुखतमान, ईमानदार ईसाई, ईमानदार नेतारों को 
चीहये कि वे उपनियद विद्या को सेल प्रमाणित समगकर सभी पासंड़ों को समाज से हटा दें। 
क्योंकि उपनिषद राम, कृश की कथा, नहीं कहते। वे किसी जाति या मज़हवे का नाम नहीं 
तेते। वे तो सीधे-सीव एम सत्य (परमात्मा) का वर्णन कर हे हैं। इसलिये मैं कहता हूँ 
कि गनिद साम्रदापिक ग्रन्थ नहीं हैं। दाराशिकोह बादशाह ने उपनियद्दों का अन॒वाद हर्ह 
में काया था। पल इममामों एवं बोट बैंझ की गत़नीति करने वाल्ले राजनीतिज्ों के कहकाये 


मराडक्योपनिदद्‌ एवं इसके निहितार्थ 8ु 


बाजकल के कट्स्यंधी मस्नल्मान हिन्द को काफिंग तथा साणदायिक कहते हैं। जब 
गउनीतिक नेता हिन्दओं को साझ्रदाविक कहे हैं तो कट़स्पंधी मसल्रमान को वहत अ्रच्छा 
लगता है। 

मेरी दृष्टि में जो सत्य का ग्रादर नहीं करत वे ही साम्प्रदायिक हैं थरौर 
जो सत्य का आदर करते हैं वे उसाशदाधिक हैं। 





संविधान सत्य को देखकर बनाना चाहिये, राजनैतिक लाभ के आधार पर नहीं। 
एसे सभी संविधान जो सत्य की उपेक्षा करके बोट को लक्ष्य मानकर राजनीतिक ल्लाभ हेतु 
बनाग्रे जाते हैं, उन्हें आग लगा देनी चाहिये। यदि ऐसा बोलने में फाँसी होती हो तो मैं 
उसके लिये सहर्ए तैयार हूँ। 


८-६ जीवन के कल्याण हेत शास्त्र एवं 
संस्कृति का महत्व 


जो तम्हारा भाई होता है उसे भाई मानते हो, बहन को वहन मानते हो, पिता को 

पिता मानते हो और इतनी दृढ़ता से मानते हो कि वे मृत्यु पर्यन्त तक तुम्हारे भाई, पिता 
बहन, माँ, आदि लगती हैं। यहाँ तक कि इस दृढ़ मान्यता से प्रकृतिजन्य स्वभाव में विजब 
प्राप्त होती है। इस सम्मन्ध में एक उदाहरण देना घाहुंगा। आप जवान बेटे हो, आपकी माँ 
है। कभी-कभी वेटा रात्रि में माँ के साथ लेटवा है। काफी सवाना है। वह इतना सथाना 
है कि और लड़की के साथ नहीं लेट सकता। यदि लेटेगा. तो खतरा है। पर अपनी माँ के 
साथ? कोई खतरा नहीं। क्यों? क्योंकि वह माँ है और माँ ख्याल में है। भौतिक कसौटी 
में जानवर के मन को माँ नाम की चीज़ काम से नहीं गेक पाती। पर मनुष्य के मन को 
माँ की समझ एवं भावना काम से बचा लेती है। क्या यह भौतिक जगत पर विजय नहीं है? 
प्रकृति पर विजय नहीं है। प्रकृति के हिसाव से १८ साल का वच्चा रात को अकेले में अपनी 
माँ के साथ लेटा है। क्या आप कभी रात, बे-रात सफर में अपनी माँ के साथ अकेले नहीं 
रहे? किसने बचाया धा? किस विज्ञान ने? मन ने और केसे मन ने? शास्त्र से 
संस्कृति से शिक्षित मन ने। इस प्रकार संस्कृति एवं संस्कार से शिक्षित मन जवानी को रोक 


११६ मरा स्थाएतियद 
लेता है, पकति के नियम को सेके का है। आप यह जानते हो कि बहत बार मेरे मन मे 
एद्ठा इस प्रकार का संस्कार में” ्वहर में वह पंखिर्तन जाया जो जानवर ॥00 जन्मों तक 
नहीं त्रा सकता। उसी प्रकार मेंर मन में श्रात्मा के ज्ञान का संस्कार मुझ्ने मुक्त कर ठेता 
है, गजातीत कर द्वता है। 

इस याद से कभी सोचो। वेटियों मोर, श्राप प्रिता हैं। क्या पिता के साथ 
कल नहीं जाती हो? नहीं झती हो? अच्धर में नहीं? फिर? क्या हठडी-मॉँस और 
तरह का है? वैज्ञानिकों से पृ्ठी। हड़दी-मांस गश्राठमियों का है और विपरीत लिंग 
(0770जञ्ञा० $०५) का सिंह्वांत है कि स्त्री को पुझय से खतग तथा एस्य को खत्री से 
खतग है। लेकिन परस्मों को माँ से क्यों नहीं है? और ख्रियों को पिता से क्यों नहीं है? 
हाँ, प्रव भाग्तीय संस्कृति एवं आख्रों के थे संस्कार शिधिल हो जाएगे नो फ़िर सब कृष्ठ 
समाव है। प्रात संस्कार में इतना बड़ा बल है कि प्रकृति पर विजय ठिलाने में सक्षम है। 
मीन, बढ़ाया, जन्मना, जागना, सोना सब प्रकृति है। 
तय तत्व के झस्कार जिस बुढ़ि में पड़ जागगे उसके यहाँ मीत भी स्थाल 
मात्र है। वहाँ कछ भी नहीं है। इसलिए इस तगीय प्रात्मा क्रा संस्कार ही 
मक्ति दे सकता है। प्रकृति से पार कर सकता है। 






गीता में भगवान कण ने कहा था 
त्रेगण्यविषया वबेंदा निस्‍्यत्रेगण्यो भवारजन। 
भसिर्दन्द्री नित्यसत्त्वस्थो निर्योगि्तेमभ आत्मवान॥२/७प॥ 

(है प्र्न! वेद तीनों गुणों के कार्यरण समस्त भीगो एवं उनके साधनों का प्रतियादन करने 

वाले हैं। इसलिए तू उन भोगों एवं साधनों में श्रासक्तिहीन, हर्ष शोकादि दन्दों से गहित 

निल्बंस्त परमात्मा में स्थित बोग-क्षम को ने चाहने बाला पर झाधीन उन्तकरण वाला हो) 
पहले तो बे तीन गणों की बात करता है। थे माँ-वाप की संस्कृति भी वेद की 

है। पर थे तीन गण की है। तुम पिता हो, माँ हो। प्म्ी व्रह्मचागी हो, फ़िर गहस्थ हो 

फ़िर बरानप्रस्थ; पर अन्त में संन्यासी - थे सब वेद की संस्कृति है। 'तम ब्राह्मण हो 

क्षत्रिय हो' - इसलिए तम्हें माँस नहीं खाना चाहिए। माँ का संस्कार मद्म प्बानी में भी 

सी ऊेग्यमें मां से वा लेता है। शक (लड़कियां के) पिता का शरीर प्रण्य का है 


प्रालइक्योएनिपद पर इसके निितार्थ 4१3 


परन्तु पिता के संस्कार से काई खतग नहीं होता। इसी प्रकार ब्राह्मण को माँस, शसव 
और बुराई कभी नहीं भ्राती थी क्योंकि 'वह ब्राह्मण है।' उसके मस्तिप्क में यह संस्कार 
? अभी में ' अविवाहित हूँ" थे उसको परत्तित होने से बच्चा लेते हैं। इसलिए कह ब्रह्मचागी 
रहता था। जो शास्त्र को मानता है वही बगई से बच सकता है। जो शास्त्र की सपेक्षा 
करता है वह नि्चित पतित होगा, बखाद होगा। गीता का निम्न संदेश उपनिषद के इसी 
वचन की एष्टि करता है 
यः शास्त्रविधिसत्सज्य वर्ततेि कामकारतः। 
न स सिद्धिसवाप्नोति न सरब्रे न परांगतिम॒॥ 
(जा पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है वह 
न सिंह का प्राप्त होता है, ने परमगति को और ने सख को ही॥) 
जो अपनी भारतीय संस्कृति को छोड़का जीएंग, उनके लिये कुछ दिनों वाद माँ- 
बहन, पिता तथा भाई के साथ भी रिएते ख़गब हों जाएंगे। विदेशों में खगब हो रहे हैं। 
जो भारतीय संस्कृति का पालन करेंगे उनके पारिवारिक रिए्ते ठीक रहेंगे। 
कलय॒ग में बीवन ब्राने पर कोई माँ एवं बहन को नहीं समझता। 
कोई मानत नहिं अनज़ा-तनज़ा।' अ्रनज़ा अर्थात बहिन, तनज़ा अथति बेटी। 
अ्रमी लोग मानते हैं। ज़ब कलियग आएगा शास्त्र की उपेक्षा होगी, ऐसे कलियगी नेता आएंगे 
चलचिग्रों का बोल-बाला होगा, भारतीय संस्कृति का हास होगा तो अनुज़ा-तनजा मानना 
बन्द हो जाएगा। अभी अनजा-तनजा का विश्वास आपको बचाए है। ध्यान रखना, यदि 
पर में भी सुरक्षित रहना है तो धर्म एवं शास्त्रों का विश्वास कायम रखना पड़गा अन्यथा घर 
में भी सुरक्षित नहीं रहोग। 
यदि शास्त्र विधि का त्यागकर मन में जो आया वही करने लगोगे तो अवश्य पतित 
होंगे। यह ल्लोक तथा परलोक दोनों ही बखाद होंग। ग्रदि धर्म को नहीं मानोंगे तो इसी 
ख्याल में महोंगे कि, 'हम पैदा हुए हैं, मर जाएंग।' धर्म को मानोंगे तो यह अनुभव कर 
पाझ्ेगे कि हम ने पैदा हुए हैं, और ने मरेंगे। बात तो इतनी सी है। इसलिए शास्त्र 
जीवन का आधार है। बिना शास्त्र के जीवन अन्धकार है। इसलिये कहा गया है 
अन्धकार छे चहाँ जहाँ आदित्य नहीं छि, 
सुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है। 


१ प्रन्दक्योपनियद 


जहाँ सत्संग नहीं है वहाँ तो मात्र भौतिक जगत है जो कृतों मे भी है। वह देश 
जानें का ही देश होगा जहाँ वेद नहीं हैं, शाख्र नहीं हैं, उपनिएद नहीं है। इसलिए शास्त्र 
विधि का त्याग करके जो मन में जोश वही कर लेते हैं, ऐसे लोगों की सांसारिक, भीतिक 
कामनाओं की एनिं भी ठीक नहीं होगी। बलात्कार करने वाले प्ॉसी एए लत्का दिये गये 
क्या उनकी काम वासना की एर्ति हुई? अल्लौकिक मोक्ष तो जाने ढो ल्लौकिक सस्र भी प्राण 
नहीं होंग। 

भल्र विधि छोड़कर मनमानी करने से जो लौकिक सुख मिलना चाहिए वह भी 
नहीं मिलगा। छीना-अपटी लट-मार होगी। मर्यादा तोड़ने से लड़ाई होगी। तैसे आजकल 
गण्डों का गद्य है। इस प्रकार जीवन में सुख नहीं मिल्लेगा। मोक्ष, शान्ति, निश्चिन्तता, 
ग्रत्मा भी प्राण नहीं होगी। इसलिए उपेक्‍्त का ध्यान रखते हुए आप जीवन को शालत््र के 
बनुय्चार जीन का अभ्वात्त करें 


ऊं शान्ति/ शान्ति:!! शाम्तिः:!!! 


अखण्ड परमधाम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित साहित्य 


१ दो दिशाओं की यात्रा एक साथ ४ ध्यान के ससत्र प्रयोग 
२. सुखी मीन जहँ नीर शगाधा १... मोक्ष कैसे? 
3 पर्म क्रान्ति १४ खप्न से सत्य में 
४ अन्‍्त्तीप्त १४. ग्रजन्मा का जन्म 
५ पाया सागर १६. मे ज्रीर पन्मात्मा 
६. ग्त्म सन्षात्कार १७ आत्मानुसयान  « 
७ नंगा फ्मात्मा श्ट ़ाश रिएतए० 
८ भपने र्का द्खा ११ बल एशञ 40 5$९0--ट्योा5श07 
५ जैसे के तेसे-भवे र्) ?ा्टाणा ॥ 4.6 
(0 अमृत सरदार रे रिजञाए/0ए05 रि९ए0प्रांणा 


१ अमृत सरिता भाग १ - भाग ६ 


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अखण्ड परमसधास अखण्ड, परसधाम 
सप्त सरोवार, हरिद्वार (उत्तर प्रदेश) पाकेट आर के सामने दिलशाद गार्डन 
पिनः 24940 दिल्‍ली - 0095 


दुभाष - 0]33-426305 ॥ दुभाप - 2]]008